"जब मैं वहां चावल लेने गई तो मुझे बताया गया कि राशन नहीं दिया जाएगा। मेरी बेटी भात-भात कहते हुए मर गई।" झारखंड के सिमडेगा में रहने वाली कोयला देवी ने जब यह बताया तो उनके वाक्य मीडिया में सुर्खियां बन गए। उन्होंने यह भी बताया कि पिछले आठ महीने से राशन नहीं मिल रहा था क्योंकि वह अपने राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं करा पाई थीं। परिवार के अनुसार, 11 साल की मृतक बच्ची संतोषी कुमारी ने आठ दिन से खाना नहीं खाया था। आधार की अनिवार्यता ने झारखंड में रहने वाले लोगों के सामने ऐसी समस्याएं पैदा कर दी हैं जिनसे होकर कोयला देवी गुजरी हैं। भ्रष्टाचार मिटाने और कल्याणकारी योजनाओं में पारदर्शिता लाने के लिए झारखंड सरकार की पहल के विपरीत परिणाम सामने आ रहे हैं।
वर्ष 2013 में झारखंड उन राज्यों में शामिल हुआ जिन्होंने सबसे पहले आधार को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत मिलने वाले भुगतान के साथ जोड़ा था। इसका मकसद मजदूरी का भुगतान सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में करना था। इससे पहचान और प्रमाणीकरण की गलतियों जैसे नकली या भ्रांतिपूर्ण लाभार्थियों की मौजूदगी को रोकना था।
पिछले चार वर्षों के दौरान मनरेगा के तहत काम करने वाले 99 प्रतिशत कामगारों ने आधार के लिए अपना नाम लिखाया और 99 प्रतिशत कामगारों ने मनरेगा के लिए बैंक में अपना खाता भी खुलवाया। राष्ट्रीय औसत की तुलना में यह काफी ज्यादा है जिसके अनुसार देशभर में 87 प्रतिशत मनरेगा कामगारों के पास बैंक खाते हैं तथा 86 प्रतिशत के पास आधार कार्ड है। राज्य के मनरेगा आयुक्त सिद्धार्थ त्रिपाठी बताते हैं कि पिछले एक वर्ष के दौरान बैंक खाता रखने वाले कामगारों की संख्या 15 प्रतिशत से बढ़कर 100 प्रतिशत हो गई है।
हालांकि इस योजना के लाभार्थी और मूलभूत स्तर पर कार्य कर रहे कार्यकर्ता बताते हैं कि राज्य में यह समस्या उससे कहीं ज्यादा है जितनी दिखाई देती है। ऐसे कई लोग जो पहले इस योजना का लाभ प्राप्त कर सकते थे, वे अब बेरोजगार हैं या उन्हें मजदूरी नहीं मिल रही है। कई लोग ऐसे भी हैं जिनकी मेहनत की कमाई अन्य लोगों के बैंक खातों में जमा हो जाती है।
रांची जिले के जरेया गांव के स्वयं सहायता समूह की महिला सदस्यों ने डाउन टू अर्थ को बताया कि कुछ महीने पहले मनरेगा के लिए बैंक खाते खोलने के बाद उनमें से अधिकांश को मजदूरी नहीं मिली है। पिछले दो महीने से अपनी मजदूरी का इंतजार कर रही मीना देवी ने बताया, “जब हमने मनरेगा साथी (काम का पर्यवेक्षक) से इस देरी के बारे में पूछा तो उसने कहा कि शायद हमारे आधार नंबर बैंक खाते के साथ जुड़े नहीं हैं इसलिए देरी हो रही है। उन्होंने हमें बैंक जाने की सलाह दी। लेकिन बैंक नुमकुम खंड में है और वहां जाने का मतलब है 40 रुपए का खर्चा। इतना पैसा किसके पास है?”
मनरेगा के तहत सामाजिक लेखा परीक्षा के लिए जिम्मेदार रामगढ़ के जिला विशेषज्ञ कुलदीप मिश्रा स्वीकार करते हैं कि डिजिटल हस्तांतरण के बावजूद लोगों को समय पर मजदूरी नहीं मिल रही है। कुलदीप विलंब का कोई कारण नहीं बताते, तथापि गांव के प्रमुख और पंचायत के पदाधिकारी कहते हैं कि यह समस्या उन पहलों के कारण उत्पन्न हुई हैं जिनसे इस योजना के सुचारू रूप से चलने की उम्मीद थी।
कट्टर सुधार से हुआ नुकसान
रामपुर की पूर्व मुखिया सरस्वती देवी ने बताया कि ग्राम पंचायत के कई लोग मनरेगा के तहत मजदूरी नहीं ले पा रहे हैं क्योंकि उनके बैंक खाते अभी तक आधार के साथ नहीं जुड़े हैं। रामपुर के वर्तमान मुखिया महादेव मुंडा कहते हैं, “इस कार्यक्रम के तहत पंजीकृत अधिकांश लोग अनपढ़ हैं। इसलिए बैंक में खाता खोलते समय उनके द्वारा पेश किए गए दस्तावेजों में गलतियां रह जाती हैं। सामान्य गलती नाम की वर्तनी में अंतर है और यही समस्या गांव के नाम के संबंध में भी है। इससे आधार और बैंक खाते को आपस में जोड़ने में रुकावट आती है।”
जिन लोगों ने अपने खाते आधार के साथ जोड़ लिए हैं वे भी परेशानी से मुक्त नहीं हैं। गैर-लाभकारी संगठन झारखंड नरेगा वॉच के जेम्स हेरेंज बताते हैं कि सरकार द्वारा आधार को मनरेगा से जोड़ने की शुरुआत के बाद से प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआईएस) का रखरखाव करने वाले खंड कार्यालय के ऑपरेटरों पर दबाव बहुत बढ़ गया है। उन्हें अक्सर देर तक काम करना पड़ता है, टाइप करने में गलतियां रह जाती हैं तथा आंकड़ों में त्रुटियां नजर आती हैं। कई मामलों में किसी और की आधार संख्या किसी और के साथ जुड़ जाती है। नतीजतन मजदूरी गलत खातों में जमा हो जाती है।
रामगढ़ जिले के मांडु खंड में आयोजित सामाजिक लेखा परीक्षा में ऐसी ही एक अनियमितता सामने आई। जोबला गांव के संजय मांझी ने दावा किया कि उनके खाते में 11,356 रुपए जमा हुए जबकि उन्होंने मनरेगा काम नहीं किया था। एमआईएस दर्शाता है कि उन्होंने 68 दिन खेत के तालाब पर काम किया। लेखा परीक्षक ने अब इस मामले की जांच के आदेश दिए हैं तथा अधिकारियों से कहा है कि वे मांझी से रकम की वसूली करें। डाउन टू अर्थ द्वारा सिंहभूम के सोनुआ खंड के मनरेगा निधि हस्तांतरण आदेश का विश्लेषण दर्शाता है कि ऐसी अनियमितता आम बात हो गई है। इस वर्ष मई में सोनुआ की रहने वाली सुखमती गोपे के पैसे इस खंड के स्वयं सहायता समूह आजाद महिला मंडल के खाते में जमा हो गए। इस महीने यहां की एक अन्य निवासी रोईबारी गोपे के पैसे तीन बार पूर्णा गोपे के खाते में जमा हुए।
हेरेंज ने एमआईएस में आंकड़े अद्यतन करते समय होने वाली एक और गलती का उल्लेख किया। 100 प्रतिशत व्याप्ति प्राप्त करने के लिए ऑपरेटर कई बार उन लोगों को छोड़ देते हैं जिनके पास आधार कार्ड नहीं हैं अथवा जिन्होंने अभी आधार कार्ड जमा नहीं कराया है। इस प्रक्रिया में ऐसे कई लोग छूट जाते हैं जिन्हें कल्याणकारी योजनाओं की जरूरत है। इस वर्ष अप्रैल में उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया था कि मनरेगा के कार्यों के लिए आधार अनिवार्य नहीं है। मिश्रा स्वीकार करते हैं कि इस निर्णय के बावजूद केवल उन लोगों को रोजगार मिल रहा है जिनके पास आधार कार्ड है। राज्य सरकार के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई 2017 तक केवल 86 प्रतिशत लाभार्थियों के बैंक खाते आधार के जोड़े गए थे। इसका अर्थ है कि इस महीने तक राज्य में 3,83,000 से अधिक परिवारों के आधार और मनरेगा आपस में जुड़े नहीं थे।
मुंडा एक विशेष समस्या का जिक्र करते हैं, कई लाभार्थियों को इस बात का पता ही नहीं है कि मनरेगा की मजदूरी किस खाते में जा रही है। आधार-आधारित हस्तांतरण की शुरुआत के बाद सरकारी सहायता पर निर्भर अधिकांश लोगों ने विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं के तहत कई खाते खोल लिए हैं। उदाहरण के लिए एक लाभार्थी का एक बैंक में मनरेगा खाता हो सकता है तथा प्रधानमंत्री जन धन योजना खाता किसी दूसरे बैंक में हो सकता है। एमआईएस ऑपरेटर के इससे भ्रम में पड़ने की आशंका रहती है तथा संभवत: वह एक खाते को दूसरे से बदल सकता है। इससे लोगों के लिए अपनी मजदूरी का पता लगाना मुश्किल हो जाता है। रांची के बायंगडीह गांव में जीत मुंडा के तीन बैंकों- ग्रामीण बैंक, बैंक ऑफ इंडिया और को-ऑपरेटिव बैंक में खाते हैं। यद्यपि उनका मनरेगा खाता बैंक ऑफ इंडिया में है, तथापि पिछले कुछ महीनों से उसकी मजदूरी को-ऑपरेटिव बैंक में आ रही है। जुलाई महीने में महादेव मुंडा ने मनरेगा निधि हस्तांतरण आदेश की मदद से सही बैंक पहचानने में उसकी सहायता की थी।
झारखंड में मनरेगा संबंधी कार्य करने वाले देबमाल्या नंदी कहते हैं कि ऐसी गलतियां असावधानी से अथवा जान बूझकर हो सकती हैं। नई व्यवस्था होने के नाते एमआईएस ऑपरेटर ऐसी जगह पर हैं जहां भ्रष्टाचार पनप सकता है, इसलिए सरकार की अब यह योजना है कि मजदूरी के भुगतान में किसी भी प्रकार की अनियमितता होने पर एमआईएस ऑपरेटर को जिम्मेदार बनाया जाए। लेकिन क्या सरकार मजदूरी हस्तांतरण के एक अन्य अहम पक्ष- बैंक पर नियंत्रण रख पाएगी?
बोराम में गड़बड़ी
वर्ष 2016 में आईसीआईसीआई बैंक ने सिंहभूम जिले के बोराम खंड के 18,000 लाभार्थियों में से लगभग 6,000 के मनरेगा खाते बिना उनकी जानकारी के खोल दिए थे। बोंगोरा गांव के लबखान महतो याद करते हैं, “एक दिन बैंक के अधिकारी हमारे गांव में आए और यह कहकर हमारे आधार नंबर इकट्ठा किए कि अटल पेंशन योजना (असंगठित क्षेत्र के लिए केंद्र सरकार की पेंशन योजना) के तहत वे हमारे खाते खोल रहे हैं। लेकिन तब से हमारी मजदूरी बैंक ऑफ इंडिया में हमारे मनरेगा खातों में आनी बंद हो गई।” जबकि खंड कार्यालय स्थित अधिकारियों ने उन्हें बताया कि उनकी मजदूरी आईसीआईसीआई बैंक में जमा हुई है। महतो के पास इस बात की पुष्टि का कोई जरिया नहीं था क्योंकि निकटतम शाखा यहां से 30 किमी. दूर जमशेदपुर में है। इसके अलावा, बैंक ने उन्हें कोई पासबुक, चेकबुक या एटीएम कार्ड नहीं दिया। महतो बताते हैं, “उन्होंने हमें सिर्फ बायोमैट्रिक कार्ड दिया है जिस पर एक नंबर छपा है।”
बायोमेट्रिक कार्ड से कामगार केवल जीवन मित्र द्वारा चलाए जाने वाले माइक्रो-एटीएम से पैसे निकाल सकते हैं। लेकिन खंड के सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि बैंक मित्र इस इलाके में बहुत कम आते हैं। यदि आ भी जाएं तो खुरदुरे हाथों अथवा गांव में इंटरनेट की खराब कनेक्टिविटी के कारण कई कामगार अपनी प्रमाणिकता साबित नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए बोंगोरा में लोग इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए 5 किमी. चलकर जाते हैं।
अपनी जायज मजदूरी प्राप्त करने में नाकाम रहे कई लाभार्थियों ने हाल ही में खंड प्रशासन को पत्र लिखे हैं। खंड विकास अधिकारी सुनील कुमार प्रजापति ने डाउन टू अर्थ को बताया कि आईसीआईसीआई बैंक ने वादा किया था कि वह माइक्रो-एटीएम के जरिए जगह-जगह जाकर भुगतान करेगा इसलिए उसे मनरेगा खातों की देख-रेख की अनुमति दी गई थी। एमआईसी के रिकॉर्ड बताते हैं कि आईसीआईसीआई बैंक को पैसा हस्तांतरित किया जा रहा है किंतु हैरानी की बात है कि कामगारों के खाते खाली हैं। खंड प्रशासन की अब यह योजना है कि बैंक के खिलाफ जांच शुरू की जाए और असंतुष्ट कामगारों के खाते बैंक ऑफ इंडिया को हस्तांतरित किए जाएं।
डाउन टू अर्थ ने आईसीआईसीआई बैंक के अभिकर्ता बिबेक कुमार शर्मा से संपर्क किया जो बैंक मित्रों द्वारा किए जाने वाले भुगतान की निगरानी करते हैं, ताकि यह पता लगाया जा सके कि बैंक मजदूरी का भुगतान क्यों नहीं कर रहा है। उन्होंने दावा किया, “हम प्रतिदिन घर-घर जाकर भुगतान करते हैं। प्रखंड संयोजक के पास 2-4 लाख रुपए नगद होते हैं ताकि तुरंत भुगतान किया जा सके। माइक्रो एटीएम यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी तरह की धोखाधड़ी न हो। केवल वे लोग मजदूरी नहीं ले पाते जिनके उंगलियों के निशान रिकॉर्ड से मेल नहीं खाते।”
असली समस्या
अंगुलियों के निशान का मेल न खाना, खराब इंटरनेट कनेक्शन और ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकों की पर्याप्त शाखाएं न होने जैसी समस्याओं ने आधार से जुड़ी अन्य कल्याणकारी योजनाओं जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी प्रभावित किया है। मनरेगा के तहत सामाजिक लेखा परीक्षा के राज्य संयोजक गुरजीत सिंह ने कहा, “सरकार का मानना है कि आधार भ्रष्टाचार को मिटाने का एकमात्र जरिया है। जबकि पैसे का पता लगाने के लिए हमें बैंकों की और शाखाएं, इंटरनेट कनेक्टिविटी तथा बिजली की जरूरत है।”
विकास अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज इस बात से सहमत हैं। उनका कहना है कि सरकार भुगतान के तरीके बार-बार बदलती रही है। कभी डाकघर, कभी चेक और अब बैंकों के जरिए भुगतान किया जा रहा है। लोगों को इससे परेशानी होती है। भुगतान को आधार के साथ जोड़ने से यह मामला और जटिल हो गया है। सरकार का खयाल है कि आधार भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए जादुई छड़ी है।
मनरेगा आयुक्त त्रिपाठी स्वीकार करते हैं कि बैंकों की कम संख्या के कारण लोगों को परेशानी हो रही है। उनका कहना है, “हमारी योजना है कि हर पंचायत में सहकारी बैंक की शाखा खोली जाए। कुछ ही दिनों में झारखंड में मनरेगा सर्वक्षेष्ठ तरीके से कार्यान्वित कार्यक्रमों में से एक बन जाएगा।”