जमीन की जद्दोजहद

झारखंड में आदिवासियों को जमीन से बेदखल करने के खिलाफ लोग सड़कों पर हैं। भविष्य में जमीन के लिए संघर्ष और तेज होगा।
एक अक्टूबर 2016 को बड़कागांव में पुिलस फायरिंग के बाद गांव की महिलाओं ने पेड़ों की ओट में छिपकर अपनी जानें बचाईं (फोटो : प्रीति सिंह)
एक अक्टूबर 2016 को बड़कागांव में पुिलस फायरिंग के बाद गांव की महिलाओं ने पेड़ों की ओट में छिपकर अपनी जानें बचाईं (फोटो : प्रीति सिंह)
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पलामू टाइगर रिजर्व (पीटीआर) पीछे छूट चुका था और हम डालटनगंज की ओर बढ़ चले थे। उत्तरी कोयल की खूबसूरती आंखों को भा रही थी। यही नदी है जहां उत्तरी कोयल जलाशय परियोजना अथवा कुटकू मंडल बांध की 1970 में कल्पना की गई थी और जिसने 1990 के दशक में आकार लेना शुरू किया। 20 साल बाद यह परियोजना फिर खबरों में है क्योंकि केंद्र सरकार ने इसे पुनर्जीवित करने का निर्णय लिया है। 16 अगस्त 2017 को जारी पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की विज्ञप्ति बताती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने 1622.27 करोड़ रुपए के अनुमानित खर्च से बिहार और झारखंड में इस परियोजना को पूर्ण करने की मंजूरी दी है।

सूखाग्रस्त पलामू जिले को देखते हुए इस परियोजना का विचार आया था। अगस्त 1997 में बांध के इंजीनियर बैजनाथ मिश्रा की माओवादियों द्वारा हत्या के बाद परियोजना में ठहराव आ गया था। यह हत्या भयंकर बाढ़ का परिणाम थी जिसमें 19 लोग बह गए थे और फसलों व पशुओं को भारी नुकसान पहुंचा था। 80 और 90 के दशक में ग्रामीण आदिवासी संगठनों ने उत्तरी कोयल परियोजना का निरंतर विरोध किया था। इसे पुनर्जीवित करने की योजना 15 गांवों के उन ग्रामीणों को बेचैन कर देगी जो डूब क्षेत्र में आएंगे और इसके बाद जिनका पुनर्वास होगा।

पलामू टाइगर रिजर्व के फील्ड निदेशक एमपी सिंह बताते हैं, “यह एक बड़ी परियोजना है और उन 15 गांवों को पुनर्वासित करने की योजना है जिनकी जमीन अधिग्रहित की जाएगी।” वर्तमान में इन गांवों में अब भी लोग रह रहे हैं, वे अस्थायी तौर पर तभी यहां से जाते हैं जब बाढ़ आती है। झारखंड में वनों के प्रमुख चीफ कंजरवेटर (वन्यजीव) एलआर सिंह के अनुसार, 1990 के दशक से रिजर्व का करीब 1,000 हेक्टेयर हिस्सा आंशिक रूप से हर साल पानी में डूब जाता है।

क्या बांध विरोध का फिर कारण बनेगा

परियोजना के विरोध के दिनों को याद करते हुए गढ़वा जिले के आदिवासी कार्यकर्ता सुनील मिंज बताते हैं कि 1980 के दशक में जमीन अधिग्रहण का ज्यादा विरोध नहीं किया गया लेकिन पर्याप्त मुआवजा न मिलने का विरोध हुआ। सरकार गैर मजरूआ यानी सामुदायिक जमीन का मुआवजा नहीं देना चाहती थी जिसकी यहां बहुतायत है। लोग उस वक्त भड़क उठे जब बांध क्षेत्र कुटकू के निवासियों को गढ़वा जिले के भंडरिया खंड के टिहरी गांव में जाने को कहा गया। वह बताते हैं कि परियोजना से मुख्य रूप से बिहार के औरंगाबाद जिले को फायदा होगा, इसलिए आने वाले दिनों में फिर से विरोध हो सकता है।



समाजसेवी मेघनाथ बताते हैं कि पलामू में सूखे का विचार बहुत बड़ा धोखा था। ऐसा इसलिए क्योंकि मोहम्मदपुर बैराज से 90 प्रतिशत पानी औरंगाबाद में आपूर्ति की योजना थी। पत्र सूचना कार्यालय की रिपोर्ट बताती है कि इस परियोजना से बिहार में 91,917 हेक्टेयर जमीन के सिंचित होने की संभावना है जबकि झारखंड में 19,604 हेक्टेयर के जमीन के सिंचित होने की उम्मीद है। पर्यावरणविदों के विरोध को देखते हुए बांध का स्तर 367 मीटर से घटाकर 341 मीटर कर दिया गया है जो यह सुनिश्चित करेगा कि रिजर्व का मूल क्षेत्र प्रभावित न हो। हाथियों के विशेषज्ञ डीएस श्रीवास्तव बताते हैं, “ऊंचाई कम करके पलामू टाइगर रिजर्व का मूल क्षेत्र तो नहीं डूबेगा लेकिन बांध में पानी भरने के बाद रिजर्व में हाथियों की आवाजाही पर असर पड़ेगा। जानवर रिजर्व के भीतर बसे उन गांवों में पहुंच जाएंगे जो डूब से प्रभावित नहीं होंगे। इससे मानव और पशुओं के मध्य संघर्ष बढ़ेगा।”

विपक्ष जमीन अधिग्रहण के खिलाफ

झारखंड में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ विरोध नया नहीं है। कुछ महीने पहले शताब्दी पुराने छोटा नागपुर टेंनेंसी (सीएनटी) और संथाल परगना टेनेंसी (एसपीटी) कानून में सरकारी संशोधन के खिलाफ बड़े पैमाने पर लोगों ने विरोध किया था। आदिवासी लोगों की जमीन को निजी निवेशकों को देने के मकसद से मुख्यमंत्री रघुबर दास की अगुवाई में चल रही बीजेपी सरकार ने ये संशोधन प्रस्तावित किए थे। सरकार के इस कदम के खिलाफ विपक्षी दल, आदिवासी संगठन और यहां तक कि चर्चों ने राज्यव्यापी विरोध किया था। लोगों के मूड को भांपते हुए झारखंड की पहली आदिवासी राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू ने मंजूरी के लिए भेजे गए सरकार के विधेयकों को निरस्त कर दिया था (देखें “राज्यपाल ने खींची तलवार”, डाउन टू अर्थ, अगस्त 2017)। वर्तमान में हालात इतने खराब हैं कि बीजेपी के कुछ आदिवासी नेता अगले चुनाव में हार की आशंका से घिरे हुए हैं क्योंकि मतदाता खिलाफ हो गए हैं।

डाउन टू अर्थ हजारीबाग जिले के जुगरा गांव में पहुंचा तो स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां 28 मई से शुरू हुई भूख हड़ताल करीब एक महीने चली थी। यह भूख हड़ताल नेशनल थर्मल पावर कारपोरेशन (एनटीपीसी) के खिलाफ थी जो रैयती जमीन पर बलपूर्वक सड़क का निर्माण कोयले को ले जाने के लिए कर रहा है। जुगरा गांव के ग्रामीण सुधलाल साव ने बताया, “हमने उन्हें मंजूरी नहीं दी है। वे जबर्दस्ती सड़क का निर्माण कर रहे हैं।” एनटीपीसी प्रवक्ता एके तिवारी के अनुसार, जमीन कानूनी तरीके से अिधग्रहित की है।  

एनटीपीसी के खिलाफ विरोध 2004 में आरंभ हुआ था। कुल मिलाकर 28 गांवों का अधिग्रहण हुआ था। साव के अनुसार, सड़क बनाने में करीब 10.11 हेक्टेयर यानी करीब 25 एकड़ जमीन सड़क बनाने में गुम हो जाएगी। लोगों ने अपनी जमीन से अलग होने से मना कर दिया है क्योंकि यहां पूरे साल गन्ने, धान और चने की फसल होती है। मुखिया पति शंकर राम बताते हैं, “एनटीपीसी की यह कारगुजारी गांव में खेती को बर्बाद कर देगी। सारी सिंचित जमीन कंपनी के अधीन आ जाएगी। ऐसा तंत्र बन गया है कि सरकार हमारी बातें सुने बगैर अपनी मर्जी से काम कर रही है।”

जुगरा के ग्रामीणों के अनुसार, एनटीपीसी एक एकड़ जमीन के बदले 20 लाख रुपए दे रही है। साव बताते हैं, “अगर हम हजारीबाग में जमीन खरीदना चाहें तो 20 लाख में एक कठ्ठा (0.0066 हेक्टेयर) जमीन मिलेगी। सारा पैसा जमीन खरीदने में चला जाएगा तो हम खाएंगे क्या।”  

कई सालों से जुगरा के ग्रामीणों और एनटीपीसी के बीच संघर्ष चल रहा है। स्थानीय लोगों के अनुसार, 2004-07 में कंपनी ने बड़कागांव जिले के 28 गांवों में गुप्त सर्वेक्षण कराया। बड़कागांव में कुल 85 गांव हैं और 28 गांव विस्थापन की कगार पर हैं। शंकर राम बताते हैं, “अब हम जमीन खरीद और बेच नहीं सकते क्योंकि एनटीपीसी ने कोयला संबंधी कानून लागू कर दिया है। इसका मतलब है कि कंपनी ही जमीन बेच सकती है।”  

साव के अनुसार, लोगों ने कंपनी से जंगल के किनारे रोड बनाने को कहा था लेकिन कंपनी सुरक्षा बलों की मदद से खेती की जमीन के बीच से सड़क बना रही है। जुगरा निवासी सत्यनारायण कुमार और चंद्रिका प्रसार के अनुसार, पिछले महीने केंद्रीय उड्डयन मंत्री जयंत सिन्हा के दौरे के बाद भी कुछ नहीं हुआ।

रांची में नगड़ी खंड के कुट्टे गांव के संदीप उरांव 2012 से हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन (एचईसी) हाटिया विस्थापित परिवार समिति से जुड़े हैं। इस क्षेत्र में एक फैक्टरी बनाने के लिए एचईसी ने 1958-62 में जमीन का अधिग्रहण किया था। कागजों में गांव को विस्थापित कर दिया गया। यहां न तो कोई फैक्टरी बनी और न ही टाउनशिप। उरांव बताते हैं, “एचईसी ने जमीन अधिग्रहित कर ली और उसके बाद कुछ नहीं किया। अधिग्रहण के बाद से हम जमीनों पर खेती कर रहे हैं। रैयतों को जमीन मिल जानी चाहिए क्योंकि कुछ भी आगे नहीं बढ़ा। हमें यहां से ढाई किलोमीटर दूर नया मोड़ के पास प्रति व्यक्ति 10 डिसमिल जमीन दी गई लेकिन हमने यहां जमीन का स्वामित्व नहीं छोड़ा। हमें बैनामा नहीं मिला और सरकार को राजस्व का नुकसान हुआ।”  

कुट्टे के निवासी अदालत में मामले को ले गए। उरांव बताते हैं कि उस वक्त किस मकसद से जमीन लेकर मुआवजा दिया गया था, यह हमें अब तक स्पष्ट नहीं है। उरांव के भाई संदीप बताते हैं, “अभी मामला झारखंड उच्च न्यायालय में है लेकिन हमें तरीखें नहीं मिल रही हैं। सरकार विधानसभा की इमारत और उच्च न्यायालय को अवैध तरीके से बना रही है। हमारी मांग है कि सरकार हमें मुआवजा दे फिर निर्माण को जारी रखे। यहां सुरक्षा बल भेज दिए गए थे और धारा 144 लगा दी गई थी। एचईसी ने जमीन सरकार को दे दी है। हम दो बार रघुबर दास से मिल चुके हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।”

 
 
विरोध का अगला चरण

आदिवासी कार्यकर्ताओं के अनुसार, कानूनों में प्रस्तावित संशोधन आदिवासियों की जमीन हड़पने की चाल थी। आशंका को बल उस वक्त मिला जब राज्य सरकार ने झारखंड निवेशक सम्मेलन के वक्त निवेशकों को लुभाने के लिए कहा कि वह जमीन का बैंक बनाना चाहती है। निवेशकों को लुभाने के लिए सरकार अब तक 1,75,000 एकड़ (िदल्ली के क्षेत्रफल का करीब आधा हिस्सा) जमीन का अधिग्रहण कर चुकी है। आजादी के बाद सिंचाई और ऊर्जा परियोजनाओं के साथ बड़े कारखाने पंचवर्षीय योजनाओं के रूप में आदिवासियों की जमीन पर ही स्थापित किए गए हैं। रांची जैसे शहर भी आदिवासियों की जमीन पर बसाए गए हैं। रांची के लेखक बिनोद कुमार बताते हैं कि अब परिस्थितियां अलग हैं। इस बार बड़े संशोधनों के खिलाफ लोगों का शांतिपूर्ण विरोध सफल रहा। वह मानते हैं कि आदिवासियों की शंकाएं जायज हैं। पिछले सालों में राज्य में आदिवासियों की आबादी तेजी से कम हुई है। 1901 आदिवासियों की उपस्थिति 55-60 प्रतिशत थी। अब यह 26 प्रतिशत ही बची है। यह विडंबना ही है कि 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य यह कहकर बना था कि आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए ऐसा हो रहा है।

राज्य में लोगों का गुस्सा उस वक्त भड़क गया जब वर्तमान बीजेपी सरकार ने सीएनटी कानून की धारा 49, 21 और 71ए में संशोधन की कोशिश की। इसके अलावा सरकार ने निजी कंपनियों के जमीन अधिग्रहण के मामले में हाथ मजबूत करने के लिए एसपीटी कानून में नई धारा 13ए जोड़ने की कोशिश की। कुमार बताते हैं कि इन दो प्रयासों के बावजूद नेहरू युग से जमीन अधिग्रहण का सिलसिला चल रहा है। नेहरू के सार्वजनिक उपक्रम योजना में भारी उद्योग और बांध शामिल थे। इन योजनाओं के चलते आदिवासी की जमीन का बड़ा हिस्सा चला गया। सरकार जमीनों को निजी कंपनियों को देना चाहती है।

2016 में मर्टीना टोप्पो द्वारा लिखित रिपोर्ट  इंडियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च (आईसीएसएसआर) में जमा की गई है। रिपोर्ट अभी प्रकाशित नहीं हुई है। यह बताती है कि दामोदर घाटी परियोजना से 93,874 लोग विस्थापित हुए। यह परियोजना 305 गांवों की 84,140 एकड़ जमीन पर फैली हुई है। परियोजना के लिए ली गई 37,320 एकड़ जमीन सिंचित थी। रांची के पास हटिया में 1958 बने एचईसी के लिए 12,990 लोग विस्थापित हुए जिनमें से अधिकांश मुंडा और उरांव जनजातियां शामिल थीं। इसके लिए कुल 9,200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया।

अभी तूफान से पहले की शांति है। बीजेपी सरकार विधेयकों को दोबारा आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकती है। पूर्व मुख्यमंत्री व झारखंड विकास मोर्चा के अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि अगर सरकार दोबारा संशोधन की कोशिश करेगी तो विरोध भड़केगा, खासकर सीएनटी कानून की धारा 49 में बदलाव करने पर।

सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बरला के अनुसार, जमीन हथियाने की कार्रवाई से भोगौलिक विविधता और पारिस्थितिकी नष्ट हो जाएगी। मरांडी बताते हैं कि सरकार अब भी कानून में बदलाव का प्रयास कर रही है, खासकर दूसरी धाराओं को। उनका सुझाव है कि आदिवासियों की जमीन को 20 से 25 साल के पट्टे पर लेना चाहिए। उन्होंने बताया, “हमें कोई न कोई रास्ता निकालना होगा। आदिवासियों की आर्थिक गतिविधियों को पूरा करने के लिए जमीन ही एकमात्र जरिया है। सरकार जमीन के बदले दूसरी जमीन भी दे सकती है।” सीएनटी कानून की धारा 49 के तहत ही झारखंड में अब तक सारी जमीनें अधिग्रहित की गई हैं। रांची में गैर सरकारी संगठन जन्मध्याम से जुड़े प्रवीण कुमार बताते हैं कि ग्रामसभा की अनुमति के बिना आदिवासियों की जमीन हथियाने के लिए उन्हें लालच दिया जा रहा है। सीएनटी कानून कहता है कि खेती की जमीन का गैर कषि इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। यह आशंका भी घर कर रही है कि आदिवासियों की जमीन को छपरबंदी तरीके से गैर आदिवासियों को दिया जा सकता है। मेथोन, बोकारो और अन्य कुछ दूसरी जगहों पर धोखा हो चुका है। नियम है कि अगर जमीन का पांच साल तक इस्तेमाल नहीं होगा तो उसे लौटा दिया जाएगा।

एचईसी का उदाहरण देते हुए बिनोद कुमार बताते हैं कि उसने 1948 में 9,200 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर लिया और केवल 5,000 एकड़ का ही इस्तेमाल किया। बाकी जमीन बेकार पड़ी है।

एमसीसी (मार्क्सिस्ट को-ऑर्डिनेशन कमिटी ) के सुशांतो मुखर्जी बताते हैं, “अगर जमीन इस तरह अधिग्रहित की जाएगी तो आदिवासी उसे अपने हाथ से नहीं जाने देंगे।” पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता अर्जुन मुंडा बताते हैं कि स्थानीय समुदायों की सुरक्षा के लिए झारखंड में विशेष प्रावधान हैं। अब समय बदल रहा है, इसलिए कुछ लोग बेहतर चीजें और विकास चाहते हैं। मुंडा बताते हैं, “हमें यह देखना होगा कि उनके लिए क्या बेहतर है।” संशोधनों के बारे में पूछने पर मुंडा बताते हैं कि चर्चा के लिए कम वक्त था। कुछ लोगों को लगता है कि संशोधनों से फायदे से अधिक नुकसान होगा। मैंने पत्र लिखकर अधिक स्पष्टता की मांग की है। हालांकि सरकार का दावा है कि यह एक अच्छा कदम है लेकिन लोगों का इसमें यकीन नहीं है।

रांची के गैर सरकारी संगठन जल-जंगल-जमीन से जुड़े संजय बासु मलिक के अनुसार, दोनों कानूनों के तहत जमीन लेना आसान नहीं है। सीएनटी की धारा 49 के जरिए खेती की जमीन केवल खनन और उद्योग के लिए ले सकते हैं।”  

टोप्पो द्वारा लिखित रिपोर्ट भी बताती है कि मूल निवासी और आदिवासी समूहों को बलपूर्वक अपने घर से उजाड़ा जा रहा है। एक अन्य रिपोर्ट “होमलेस इन आवर ओन होमलैंड” में सामाजिक कार्यकर्ता स्टेन स्वामी बताते हैं कि भारत में पिछले 50 सालों में करीब 2 करोड़ 13 लाख लोग खनन, बांध, उद्योग, वन्यजीव अभ्यारण्य और फील्ड फायरिंग रेंज के चलते विस्थापित हुए हैं। इनमें से 40 प्रतिशत लोग आदिवासी थे। विस्थापितों में एक चौथाई का पुनर्वास हुआ है। बाकी लोगों को स्थानीय प्रशासन द्वारा तय मुआवजा देकर भुला दिया गया।

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