गरीबी की दलदल

हम गरीबी को परंपरागत बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यही वजह है कि गरीब परिवार के बच्चों के भी गरीब ही रहने की प्रबल संभावना है।
तारिक अजीज / सीएसई
तारिक अजीज / सीएसई
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विश्व गरीबी हटाओ आह्वान के 25वें साल से गुजर रहा है। हाल ही में भारत में भूख के स्तर पर आई रिपोर्ट विश्व के लिए अच्छी खबर नहीं है क्योंकि दुनियाभर में सबसे ज्यादा गरीब भारत में ही रहते हैं। गरीबी हटाने के बजाय भारत में चिंता के दो कारण दिखाई दे रहे हैं- गरीबी का स्तर कम हो रहा है लेकिन कुछ वर्ग और अधिक गरीब हो रहे हैं। ये कौन लोग हैं? जाहिर है, ये वे लोग हैं जो सामाजिक रूप से पिछड़े और हाशिए पर हैं। इस कॉलम में लगातार चेताया गया है कि इन समुदायों में गरीबी आनुवांशिक हो रही है और संकट का स्तर बढ़ता जा रहा है। अत: स्पष्ट है कि सामाजिक स्थिति गरीबी के स्तर और गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने की क्षमता निर्धारित करती है।

साल 1992 में संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव में दुनिया से गरीबी खत्म करने का आह्वान किया था। इसके बाद हर साल 17 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय गरीबी उन्मूलन दिवस अस्तित्व में आया। इस वैश्विक आह्वान के करीब 20 साल पहले स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत में गरीबी के प्रतीक ओडिशा के कालाहांडी जिले से गरीबी हटाओ का नारा दिया। दोनों मामलों में सामाजिक रूप से हाशिए पर चल रहे समुदायों को लक्षित किया गया था जो उस वक्त भी बड़ी संख्या में थे। हाल के महीनों में आजादी के बाद जन्म लेने वाले पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी चुटीले अंदाज में ही सही इस नारे को दोहराया है। वैश्विक अपील के 25 साल और इंदिरा गांधी के नारे के 45 साल के बाद से हमने क्या कुछ पाया है? जिस तरह गरीबी का स्तर कम हुआ है और हाशिये पर चल रहे लोगों की दशा और बदतर हुई है, उसे देखते हुए इसका जवाब न ही होगा।  

विश्व बैंक की शीघ्र प्रकाशित होने वाली रिपोर्ट का आंशिक भाग जारी किया है। यह रिपोर्ट गरीबी की वजहों और कुछ लोगों के कभी इससे बाहर न निकल पाने के कारणों पर प्रकाश डालती है। रिपोर्ट का निष्कर्ष बताता है कि भविष्य निर्धारित करने वाला किसी व्यक्ति के अभिभावकों का सामाजिक स्तर का प्रभाव आज भी उतना है जितना 50 साल पहले था।

रिपोर्ट के शुरुआती निष्कर्ष के अनुसार, 1960 का दशक गरीबी व असमानता को कम करने और विकास को बढ़ावा देने के लिए बहुत अहम था। रिपोर्ट बताती है कि कैसे शिक्षा तक पहुंच गरीबी से निकलने और समग्र विकास तय करती है। किसी बच्चे के माता-पिता के सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए यह बिना शर्त है। रिपोर्ट के अनुसार, 1980 के दशक में जन्म लेने वाले 50 प्रतिशत बच्चे अपने माता-पिता से अधिक शिक्षित हैं। 1960 के दशक से यह अलग नहीं है। आकलन में कहा गया है कि अगर विश्व बच्चों, खासकर वंचित तबके के बच्चों में निवेश का तरीका नहीं बदलेगा तो यह मानना मुश्किल है कि आज से 10 साल बाद भी हालात बेहतर होंगे। 2030 तक गरीबी को खत्म करना तब और बड़ी चुनौती होगी। तो क्या भारत के लिए यह खतरे की घंटी है? असल में जरूरी कदम उठाने के लिए यह आपातकालीन स्थिति है। साथ ही गरीबी को देखने के चश्मे को भी बदलने की जरूरत है।

गरीबों का सामाजिक स्तर उठाने के लिए बिना शर्त काम करने की जरूरत है।

भारत की गरीब आबादी में करीब 80 प्रतिशत सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय शामिल हैं। बच्चों की भी इतनी ही आबादी इन समुदायों से आती है। भारत में आधे बच्चे गरीब हैं या गरीब परिवारों में पैदा हुए हैं। हम गरीबी को परंपरागत बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। यही वजह है कि गरीब परिवार के बच्चों के भी गरीब ही रहने की प्रबल संभावना है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ शैक्षणिक स्तर का ही इस पर असर है। विश्व बैंक की रिपोर्ट में भी बच्चों के कम विकास और समग्र स्वास्थ्य के स्तर को माता-पिता के सामाजिक स्तर से जोड़ा गया है।

गरीबी को हमेशा के लिए राजनीति का खिलौना बनाने से रोकने के लिए तुरंत आह्वान की जरूरत है। गांधी के नारे के बाद भले ही हमने आंकड़ों में गरीबी कम कर दी हो लेकिन समाज के निचले पायदान पर खड़े लोगों को लाभ नहीं पहुंचा। इस वक्त जाति आधारित राजनीति के बजाय जाति आधारित आर्थिक कार्यक्रमों को बनाने की जरूरत है। यह एक बड़ा राष्ट्रीय एजेंडा होना चाहिए। ऐसा इसलिए भी क्योंकि विकास के बारे में बोलना धर्म निरपेक्ष गतिविधि है लेकिन गरीबी के बारे में नहीं। 

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