हमें चाहिए समावेशी राजनीति
हम जानते हैं कि आज हम दोराहे पर खड़े हैं। अस्थिर विकास का मतलब है कि हम जलवायु आपदा और असमान विकास की ओर तेजी से बढ़ रहे हैं और जिसका मतलब है- गरीबी का बढ़ना, लोगों का तेजी से हाशिये पर पहुंचना और उनके गुस्से का बढ़ना।
भारत में हमारी सीख यह है कि जो विकास किफायती नहीं है, दूसरे शब्दों में जो विकास न्यायसंगत नहीं है, वह दीर्घकालिक नहीं हो सकता। इस तरह से यही अब, भविष्य का एजेंडा हैं।
दिल्ली के जहरीले वायु प्रदूषण के बारे में सोचिए। ऐसा नहीं है कि इसे कम करने के उपाय नहीं किये जा रहे हैं। कोयले के सारे संयंत्र बंद कर दिये गये हैं, पेट्रोलयिम कोक, संयोग से वे जिन्हें अमेरिका निर्यात करता है क्योंकि यह स्थानीय उपयोग के लिए जहरीला है, के आयात पर रोक लगा दी गई है और हम सबसे साफ ईंधन और वाहन तकनीक की ओर बढ़ रहे हैं।
फिर भी, एक के बाद एक इन कोशिशों के बावजूद हम प्रदूषण के संकट से निपटने में पीछे हैं। मेरे सहयोगियों ने अनुमान लगाया है कि पिछले तीन सालों में, उनसे पहले के तीन सालों की तुलना में वायु प्रदूषण 25 फीसदी कम हुआ है, लेकिन इसे 65 फीसदी तक कम करने की जरूरत है क्योंकि तभी हम साफ हवा में सांस ले सकेंगे।
इसकी वजह भी स्पष्ट है, आज दिल्ली के लगभग बीस फीसदी लोग कार से ऑफिस जाते हैं। मोटे तौर पर 25 फीसदी लोगों के पास कार है जबकि ये 25 फीसदी कार वाले लोग सड़कों का 90 फीसदी हिस्सा घेरते हैं।
सवाल यह है कि जब केवल 20 फीसदी लोगों की मांग से इतनी भीड़ और प्रदूषण बढ़ता है तो फिर शहर में कहां और कैसे सबके लिए सड़क और हवा पाने की जगह निकल सकती है।
यही वह बिंदु है, जहां गरीब का पर्यावरणवाद प्रवेश करता है। तथ्य यह है कि अगर अमीर को सांस लेने के लिए साफ हवा चाहिए तो हमें सबके लिए गतिशीलता पर फिर से काम करने की जरूरत है।
हम बस कुछ बसों, ट्रामों या मेट्रो को लाने के बारे में नहीं सोच सकते, हमें गतिशीलता को इस तरह से परिवर्तित करने की जरूरत है, जिससे यह गरीब और अमीर दोनों के लिए काम करे। इसका मतलब है- सामर्थ्य, सुविधा और सुरक्षा को एक साथ जोड़ना।
ऐसा ही मामला ऊर्जा के साथ भी है। हमारी दुनिया में अभी भी तमाम लोग खाना पकाने के लिए जैव ईंधन का इस्तेमाल करते हैं क्योंकि वे गरीब हैं।
इनसे निकलने वाले वायु प्रदूषक, जो गरीब को तो मारते ही हैं, अमीरों के लिए भी नुकसानदायी हैं क्योंकि वे भी इसी हवा में सांस लेते हैं। इसलिए अगर हम साफ हवा चाहते हैं, तो हमारे अमीरों को प्रदूषण फैलाने वाली अपनी गाड़ियों से तो निकालना होगा ही, लेकिन इसके साथ ही यह भी सुनिश्चित करना होगा कि गरीब लोगों को खराब ईंधन का इस्तेमाल करने की बजाय दूसरे विकल्प मिलें। साफ हवा के लिए उनका ऊर्जा के अन्य विकल्पों की ओर जाना बहुत जरूरी है। इसीलिए बिना समावेशी विकास के हम निरंतरता नहीं पा सकते।
यह बहुत बड़ा मौका है। अगर हम बदलावों के प्रयासों को फिर से गढ़ते हैं तो हमें गरीब महिलाओं की जरूरतों को ध्यान में रखना होगा, उन्हें उनकी सामर्थ्य वाले विकल्प देने होंगे, जिससे वे गैर-जीवाश्म वाले गंदे ईंधन से गैर-जीवाश्म वाले साफ ईंधन की तरफ बढ़ सकें।
हालांकि इसके लिए दुनिया को ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो ऊर्जा परिवर्तन के लिए वित्तीय व्यवस्था में रियायत दे और दुनिया में सबसे गरीब व्यक्ति के लिए इस सिस्टम को बढ़ने का मौका दे। जलवायु परिवर्तन की चुनौती, दिल्ली में हमारे सामने आने वाली वायु प्रदूषण की चुनौती का दर्पण है।
1990 में मेरे सहयोगी अनिल अग्रवाल और मैं हमारे प्रकाशन ‘ असमान दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग’ में बहस करते थे कि दुनिया तब तक जलवायु परिवर्तन का मुकाबला नहीं कर सकती, जब तक कि इसके लिए निष्पक्ष और न्यायसंगत समझौता न हो। आज उसी मुद्दे पर बहस हो रही है। अगर उपाय सभी की जरूरतों के अनुकूल, न्यायसंगत नहीं होंगे तो वे उपयोगी नहीं होंगे।
यहां पर फिर से हमें गरीब के पर्यावरणवाद को समझने की जरूरत है। यह स्पष्ट है कि हमारी दुनिया में चीजें तेजी से हमारे नियंत्रण से बाहर होती जा रही हैं। हर साल, सबसे गर्म साल होता है, केवल तभी तक, जब तक कि अगला साल नहीं आ जाता। फिर एक नया रिकॉर्ड टूट जाता है।
जंगल में लगने वाली आग से लेकर, तूफानों की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता से लेकर प्रचंड शीत लहरें और झुलसा देने वाली गरमी, सब कुछ बद से बदतर होता जा रहा है। तब हम सबसे असुविधाजनक सच का सामना करते हैं।
मौजूदा दरों पर, 2030 तक दुनिया का कार्बन बजट खत्म हो जाएगा - ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए यह कितना उत्सर्जन कर सकता है। दूसरी ओर बड़ी तादाद में ऐसे लोग हैं, जिनकी बुनियादी ऊर्जा तक पहुंच नहीं है। उन्हें अपने विकास के लिए ऊर्जा की जरूरत है। इसीलिए हमें एक दूसरे के सहयोग की जरूरत है ताकि भविष्य में विकास सभी के लिए कम कार्बन वाला हो सके।
यह स्पष्ट है कि अजीब और असामान्य मौसम की बढ़़ती तीव्रता और आवृत्ति के चलते आपदाओं की संख्या भी बढ़ेगी और इससे गरीब और गरीब होते जाएंगे। गरीबी और हाशिये पर पहुंच जाने की वजह से उन्हें जीवन-यापन की तलाश में अपनी जमीन छोड़कर जाना पड़ेगा।
उनके लिए एकमात्र विकल्प होगा - विस्थापन कर शहर जाना या दूसरे देश जाना। परस्पर जुड़ी दुनिया में, जैसा कि मैंने कहा है कि यह दोहरा संकट है यानी - एक तरफ विकल्पों की कमी, जो उन्हें धक्का देती है और दूसरी तरफ चमकती रोशनी जो बेहतर भविष्य के विकल्प सुझाती है। यह स्थिति, पहले से संवेदनशील नावों द्वारा भागने वाले शरणार्थियों को विस्थापित होने के लिए देशों की सीमाओं को पार करने के लिए उकसाएगी, जिससे दुनिया और असुरक्षित, हिंसक बनेगी।
यह विध्वंसकारी बदलाव का वह चक्र है, जिससे हमें लड़ना चाहिए। हमारी वैश्विक दुनिया परस्पर जुड़ी है, एक- दूसरे पर निर्भर है और हमें इस बात कोे स्वीकारना चाहिए। दीर्घकालक विकास तब तक संभव नहीं है, जब तक कि वह न्यायसंगत न हो।
विकास को दीर्घकालक होने के लिए टिकाऊ और सभी के लिए समावेशी होना होगा। लेकिन यह सब तब तक नहीं होगा, जब तक हम स्पष्ट रूप से यह नहीं कहेंगे कि पर्यावरणीय चुनौतियां तकनीकी नहीं, बल्कि राजनीतिक हैं। लोगों की पहुंच में आने वाली, न्याय और अधिकार देने वाली राजनीति को खारिज कर हम न पर्यावरण की समस्या को सुलझा सकते हैं न वास्तविक विकास कर सकते हैं।