भूमिहीनों के लिए स्वाधीनता का अर्थ
सवाल काल्पनिक हो सकते हैं कि - क्या महात्मा गांधी का 'भूमिहीनों को किसान बनानें' का सपना अब भी भारत का अपना सपना रह गया है? क्या पांचवें-छठे दशक के समाजवादी संरचना वाले भूमि कानून अपूर्ण रहे या प्रशासनिक जड़ता नें कानूनों को भोथरा कर दिया?
क्या मौजूदा विधानों और नीतियों की नियतियां, राजनैतिक इच्छाशक्ति और अक्षम व्यवस्था के रहमोकरम पर है? और फ़िर लगभग 78 बरसों के पश्चात् तमाम वायदों और विधानों के साथ भी, स्वाधीन भारत के करोड़ों भूमिहीनों को आख़िर क्या मिला?
यक़ीनन इन तमाम अनुत्तरित सवालों का सरल उत्तर होगा कि बहुसंख्यक वंचितों के देश में भूमिहीन होना एक असमाप्त - अभिशाप है, और इन तमाम सवालों के केंद्र में सरकार और शेष समाज दोनों ही हैं।
भारत में भूमिहीनता एक जीवंत सवाल है जो बीसवीं सदी के - चौथे दशक में स्वाधीनता के अभियान से शुरू हुआ, जब देश के नेताओं ने भूमिहीनों को किसान बना देने का नैतिक आह्वान किया और फ़िर लाखों भूमिहीन अपनी जमीन की आजादी के आंदोलन में कूद पड़े।
लेकिन स्वाधीनता के बाद पांचवें दशक में औपनिवेशिक भूमि कानूनों को स्थगित करके लाये गये समाजवादी भूमि कानूनों के नियंता - वे लोग बन गये जो जमींदारी उन्मूलन के बाद नये सूबेदारों की भूमिका के साथ नयी व्यवस्था के नियामक थे।
छठे दशक आते-आते नये भारत के निर्माण के पुरोधा - देशहित और विकास के नाम पर भूमि की बढ़ती जरूरतों के तर्कों के आगे, भूमिहीनों के प्रति नैतिक प्रतिबद्धताओं पर लगभग मौन हो चुके थे।
सातवें दशक की प्राथमिकतायें लगभग दिग्भ्रमित हो चुकीं थीं जहाँ ग़रीबी उन्मूलन को, भूमि सुधारों का नया पर्यायवाची बनाकर भूमिहीनों को जर्जर योजनाओं का झुनझुना पकड़ा दिया गया।
आठवें दशक में शुरू हुये विस्थापनों के नये दौर में भूमिहीन बना दिये गये विस्थापितों पर फेंके गये मुआवज़े, भूमि अधिकारों के पुराने सवालों के नये जवाब बन गये।
नवें दशक के नव-उपनिवेशवादी नीतियों नें भूमि अधिकारों के रास्ते समतामूलक समाज के निर्माण के समाधानों को ‘बाजार होती जमीन’ की नयी अर्थव्यवस्था के तर्कों से परास्त कर दिया जहाँ भूमि, संसाधन नहीं बल्कि फलते-फूलते बाजार का साध्य बना दी गयी।
और आज इक्कीसवीं सदी के 25 बरसों के बाद केवल भूमि अधिकारों के सवाल ही दफ़न नहीं कर दिये गये वरन, 'जल, जंगल और जमीन' पर जारी दमन के सवालों को उठाने वाले लोग ही अराजक घोषित किये जा रहे हैं।
भारत में आज भी करोड़ों परिवारों के लिये दो बीघा जमीन, एक सिनेमाई सपना है, जो अर्थव्यवस्था की नयी अबूझ दुनिया में दिनों दिन धुंधली होती जा रही है। 'जल, जंगल और जमीन' के अधिकारों के उनके नारे, बाजार होते भूमि तंत्र के कोलाहल में कहीं मद्धिम होते जा रहे हैं - जहाँ भूमिहीनों को लाभार्थियों की सम्मोहक शब्दावलियों में अपघटित किया जा चुका है।
लाभार्थियों की पीढ़ी को यह बताया जा रहा है कि योजनाओं के मानसून में उन्हें हर वह सुविधायें दी जा रही है, जिसे वह अपनी नागरिकता का नया अधिकार मान सकता है। यह भूमि अधिकार नहीं, बल्कि भूमिहीनों को अप्रासंगिक कर देने का संक्रमणकाल है।
असम के तिनसुकिया जिले के आदिवासी किसान सुनयन सोनोवाल के पिता की अपनी 11 बीघा जमीन थी, जो ब्रह्मपुत्र में आये बाढ़ के दौरान हमेशा के लिये नदी में समा गयी। विगत 35 बरसों से वह और उसके जैसे लाखों लोग जिनकी भूमि बाढ़ और भूमि-कटाव के चलते समाप्त हो गयी, आज भी अपनी भूमि और न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
राज्य आपदा प्रबंधन आयोग (2024) के अनुसार असम में अब तक लगभग 3865 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र बाढ़ से पूरी तरह तबाह हो चुका है और जिस पर खेती करने वाले भूमिहीनों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी अपने अधिकारों की बाट जोह रहे हैं।
पंजाब की एक पहचान कृषि से आयी संपन्नता है तो दूसरी ओर लाखों भूमिहीन दलितों की विपन्नता भी है। फ़िरोजपुर जिले की हरमिंदर बतातीं हैं कि बरसों पहले उनका परिवार दलित समाज के लिये सुरक्षित शामलात जमीन पर खेती करता था और उन्हें यही बताया गया कि एक दिन यह भूमि उनकी अपनी होगी; लेकिन वह भूमि संपन्न किसानों को अवैध रूप से हस्तांतरित कर दी गयी।
आज पंजाब के लगभग 32 फ़ीसदी दलित जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा भूमिहीन है। हरमिंदर सहित लाखों महिला किसान अपनी जमीन की प्रतीक्षा में हैं।
बंगाल को 'भूमि सुधारों' की अपनी भूमि कही जाती है - जिसे भारत सहित पूरी दुनिया में भूमि सुधारों के सफ़ल प्रयासों के लिये जाना और माना जाता है। लेकिन असहज सत्य यह भी है, कि तमाम राजनैतिक प्रयासों के बावज़ूद लगभग 24 फ़ीसदी दलित जनसंख्या का अधिकांश हिस्सा ऑपरेशन बर्गा की परिधि से परे ही रह गया।
पुरुलिया की सुकांति देवी बताती हैं कि उनका पूरा गांव ही मजदूरी पर निर्भर है, बावज़ूद इसके उन्हें विश्वास है कि एक न एक दिन उनकी अपनी भूमि होगी और फिर उन्हें पलायन नहीं करना पड़ेगा।
मध्यप्रदेश का मंडला जिला मूलतः आदिवासी गोंडवाना राज्य का एक प्रमुख सत्ताकेंद्र था। आज उसी मंडला के मालिक आदिवासी समाज, तमाम कानूनों और वायदों के बाद भी भूमिहीन बना दिये गये।
आदिवासियों पर हुये ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने की नीयत से लाये और लागू किये गये ‘वनाधिकार कानून’ के लगभग 17 बरसों के बाद अपनें पुरखों की जमीन के उनके दावे, प्रशासन के अबूझ गलियारों में कहीं गुम हो चुके हैं। लगभग संपूर्ण आदिवासी समाज 'अतिक्रमणकर्ता' घोषित किया जा चुका है, इसलिये उनके अपने जंगल और अपनी जमीन के खारिज ख़्वाब, अर्थहीन घोषित किये जा रहे हैं।
आज भूमि सुधार जैसे शब्द, ग्रामीण विकास का साधन नहीं रह गये; बल्कि नये भूमि सुधार की पूरी अवधारणा - उस बाजार केंद्रित अर्थव्यवस्था का वांछित यथार्थ है, जो सम्पन्नता की नयी दुनिया के लिये पहली सीढ़ी है।
इस बाजार का ही यथार्थ है कि प्रति मिनट 2 हेक्टेयर अन्नदा भूमि को, कंक्रीट में बदलते नये भारत के निर्माण हेतु आहूत किया जा रहा है। जहाँ यह राजनैतिक अर्धसत्य स्थापित किया जा चुका है कि लहलहाते योजनाओं का लाभार्थी होना, भूमिहीन बने रहने से बेहतर विकल्प है। इसलिये भी कि अब, भूमि अधिकारों के अधूरे और थके हुये आंदोलनों के बजाय, योजनाओं के बाजारों में कल के सपने देखना अधिक आसान है।
आज भारत में भूमिहीनों के लिये स्वाधीनता के अर्थ, भारत की स्वाधीनता के पश्चात भूमिहीनों के सवालों से कहीं अधिक जटिल हो चुके हैं। वह पूरी व्यवस्था जिसे भूमि अधिकारों की वैधानिक असफ़लता के लिये कठघरे में खड़ा किया जा सकता था, अपनी नाकामियों का निर्लज्ज़ उपभोक्ता बन चुका है। भूमि के लिये किये गये पुराने नैतिक - राजनैतिक वायदे, नयी राजनीति के नये संसद और विधानसभाओं मे परास्त किये जा चुके हैं।
फ़िर भी भारत के करोड़ों भूमिहीनों के दो गज जमीन का सपना अब तलक ज़िंदा है - पश्चाताप तो उन अवसरों पर हैं, जिन्हें स्वाधीनता के 78 बरसों में हमनें हर रोज गंवाया है।
(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)