संतोष कुमार
सूचना का अधिकार कानून भले ही संसद द्वारा मिला हो पर इसका जन्म जन आदोलनों से हुआ। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 अपने मूर्त रूप में आते ही जहां हर विपक्ष के लिए महबूबा हो गई तो तो हर सरकार की आंखों की किरकिरी बनी रही है। स्वतन्त्र भारत मे आम जनता को वोट देने के अधिकार के अलावा सूचना का अधिकार पहला ऐसा कानून है जो सरकारी व्यवस्था में जिम्मेदारी और जबाबदेही तय करने वाली चाभी सीधी तौर पर आम जनता के हाथ में देता है जो किसी प्रजातांत्रिक व्यवस्था की बुनियादी शर्ते हैं।
इस कानून ने सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े निःसहाय और कमजोर वर्ग को भी जानने का वो अधिकार दे गया जो संसद में बैठे सांसदों को है। यही कारण रहा कि सूचना के अधिकार को कानून के रूप मूर्त लेते ही बिना कोई सरकारी प्रचार-प्रसार के गांव-कस्बों तक पहुंचने में वक्त नहीं लगा। इसमें स्थानीय स्तर पर मीडिया कर्मियों की खास भूमिका रही। इस कानून ने समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े निःसहाय को भी ताकत दी। क्योंकि इस कानून के माध्यम से प्रखंड से लेकर सचिवालय और मंत्रालय तक की फाइलें बाहर आने लगी जो व्यापक स्तर पर हुए भ्रष्टाचार परत-दर-परत खोलने के लिए काफी थी। जो कभी ऑफिस सेक्रेट एक्ट की दुहाई देकर कभी उसका साक्ष्य बाहर ही नहीं आ पाता था।
इस कानून ने पंचायत स्तर पर मनरेगा से लेकर मंत्रालय स्तर पर कामनवेल्थ खेल जैसे घोटाला को सामने लाया। आम जनता भी गड़बड़ियों को प्रकाश में लाने के लिए सक्रिय नागरिक की भूमिका निभाई। यहां तक की सरकारी विभाग में काम करने वाले ईमानदार कर्मचारी और अधिकारियों ने गड़बड़ियों को उजागर करने के लिए इसे असरदार अस्त्र के तौर पर इस्तेमाल किया है। असज भी भ्रष्ट कर्मियों को बेचैन करने के लिए काफ़ी है।
आरटीआई कैम्पेन के दौरान राशन डीलर से कार्डधारियों का रिकॉड निकलने पर एक आदमी के नाम पर 901 राशन कार्ड होने का आश्चर्यजनक मामला सामने आया था जो बिना इस कानून के बाहर आना संभव नहीं था। क्योंकि भ्रष्ट व्यवस्था में बिना न्यायालय के आदेश के इस तरह की गड़बड़ियों को कोई भी बाहर आने नही देता और यह कोई इकलौता मामला भी नहीं है। इस कानून के माध्यम से कमोबेश भारत के हर हिस्सों में इस तरह के मामले सामने आये है जो आज भी जारी है।
इस कानून को लाने वाली सरकार का भी बाद में इस कानून को लेकर उत्साहजनक रवैया नहीं रहा क्योंकि इस कानून आने के बाद हीं इसमें संशोधन कर इसे कमजोर करने की कोशिश की गई थी जो भारी जनदवाब के वजह से संभव नहीं हो पाया था। ऐसा भी नहीं कि सूचना का अधिकार जैसा कानून सिर्फ भारत में हीं नहीं बल्कि दुनिया के करीब सौ देशों में इस तरह का कानून है।
बिहार में आरटीआई आवेदन फोन के माध्यम से भी
बिहार भारत का पहला और आखरी ऐसा राज्य है जो सूचना के अधिकार को जनता को सुगमता से इस्तेमाल करने के लिए 'जानकारी' कॉल सेंटर 29 जनवरी 2007 को स्थापित किया। जो फोन के माध्यम से आरटीआई आवेदन देकर सरकार से जानकारी लेने की सुविधा देता है। बिहार में बीएसएनएल के किसी फोन से 155311 पर कॉल कर आरटीआई आवेदन किया जा सकता है। आवेदन शुल्क का 10 रुपया फोन के बैलेंस से कट जाता है। 155310 पर डायल कर इसके बारे में सामान्य जानकारी ली जा सकती है।
इस अग्रणी कदम के लिए 2007 में बिहार को ई-गवर्नेंस प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया। 'जानकारी' कॉल सेंटर तो बिहार आज भी कम करता है पर पिछले 12 वर्षों में इसे बीएसएनएल के अलावा अन्य मोबाईल नेटवर्क से नहीं जोड़ने के पीछे की मनसा को समझना मुश्किल नहीं।
बाद के वर्षों में सरकार का इस कानून को लेकर हतोत्साहित करने वाला रवैया रहा सरकार एक नोटिस के माध्यम से आवेदनकर्ता को अपना आवेदन सीमित शब्दों के अलावा एक बिंदु पर सवाल पुछने तक सीमित करने की कोशिश की।
भारत में सौ से ज्यादा तो बल्कि सिर्फ बिहार में हीं दस से अधिक आरटीआई एक्टिविस्टों की हत्याएं हो चुकी है। इस मायने में यह पहला कानून है 'जिसमें कानून का विरोध नहीं बल्कि उपयोग करने वालों को जान तक कि कुर्बानी देनी पड़ रही है।'
2007 में बिहार के कुछ सामाजिक संगठनों ने आरटीआई पखवाड़ा का आयोजन किया था। जिसमे मैं दिल्ली से बिहार के कई जिलों में जाकर इस कानून के बारीकियों एवं इस्तेमाल का तरीका बताता था। मुंगेर में जब जन सभा को संबोधित करने के बाद आरटीआई आवेदन करने का प्रयास किया तो मालूम हुआ कि 10 रुपये का पोस्टल ऑडर डाकघर दे ही नही रहा (जिला प्रशासन के दबाब में) ताकि मैं लोगों के साथ आरटीआई आवेदन हीं नही कर सकूं। इसी तरह के कार्यक्रम के लिए बांका में जाने के बाद तो वहां के एक अधिकारी ने रिवॉल्वर तक निकल लिया था। भारत के विभिन्न हिस्सों से इन्हीं सब तरह की घटनाओं के बाद विसिल ब्लोअर एक्ट की मांग होती रही है।
सभी सरकारी कर्मी संपत्ति का ब्यौरा देने को बाध्य
उस ऐतिहासिक फैसले और संघर्ष का साक्षी मैं रहा हूँ जो सभी सरकारी कर्मियों को अपने चल एवं अचल सम्पत्ति का ब्यौरा देने को बाध्य करता हैं। यह मामला 2006 का था जसमे डॉ कस्तूभा उपाध्याय ने एक आईएएस नोएडा में लिए सम्पति का ब्यौरा डीओपीटी से मांगा जिसे प्रथम अपील में जाने के बाद आरटीआई के धारा 8(1)(j) की दुहाई देकर कोई भी सूचना देने से मना कर दिया गया। फिर यह मामला 2007 केंद्रीय सूचना आयोग(अपील न. CIC/WB/A/2007/00189) पहुंचा जिसकी सुनवाई 2008 में तत्कालीन मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला की कोर्ट में हुई।
इस सुनवाई में डीओपीटी के डायरेक्टर के विरूद्ध आवेदक के तरफ से विषय को रखने के लिए स्वयं उपस्थित हुआ था। सुनवाई में मेरे उस तर्क को उद्धरित करते हुए आयोग ने अपने फैसले में लिखा कि "जब कोई एमएलए या एमपी जब सीमित समय के लिए चुना जाता और उसके जीवनयापन मुख्य स्रोत वेतन नहीं होता। फिर भी नॉमिनेशन फ़ाइल करते वक्त हीं अपने चल और अचल सम्पति का ब्यौरा आफ़िडिफिट के माध्यम से देना अनिवार्य होता है जो चुनाव आयोग के माध्यम से पब्लिक डोमेन में जाता है। एक सरकारी मुलाजिम जो पूरी जिंदगी नौकरी करता है जिसका आमदनी का मुख्य स्रोत तनख्वाह है तो उसके सम्पति का ब्यौरा आम जनता को क्यों नहीं दिया जा सकता।
उसके बाद इस आदेश के आधार पर सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों से भी सम्पति का ब्यौरा मांगा गया जो मीडिया की खूब सुर्खियां बनी थी। और अंततः माननीय सुप्रीम कोर्ट ने न्यायधीशों के सम्पति का ब्यौरा वेबसाइट पर देने का निर्णय लिया। बाद में कई राज्य सरकारों ने अपने कर्मियों के संपत्ति का ब्यौरा वेबसाइट के माध्यम से पब्लिक डोमेन में देने के लिए आदेश जारी की जिसे अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर बताने की कोशिश की पर उनकी महज एक विवशता भर थी।