दिलचस्प रूप से वैधानिक ट्रिब्यूनल के अध्यक्षों और सदस्यों के वेतन को राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन को अपग्रेड करने वाले कानून पर अपनी सहमति देने से पहले ही अपग्रेड कर दिया गया था। यह कानून जनवरी 2018 में वैधानिक ट्रिब्यूनल के वेतन में वृद्धि के छह महीने बाद राजपत्रित किया गया था। ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन को अपग्रेड करने से पहले उपर्युक्त वैधानिक ट्रिब्यूनल का वेतन बढ़ाने से कोई समस्या नहीं थी, जबकि उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय संवैधानिक संस्थाएं है। इसलिए केंद्र सरकार आरटीआई कानून में संशोधन के लिए जो तर्क दे रही है, वह गलत हैं। सरकार का तर्क है कि सूचना आयुक्त वैधानिक प्राधिकरण है और इसे चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था की तरह नहीं माना जा सकता।
इससे पहले, केंद्र सरकार ने विभिन्न ट्रिब्यूनल के सदस्यों का दर्जा, वेतन और भत्तों को सुसंगत बनाने की मांग की थी, जिसके तहत उनके अध्यक्षों का वेतन चुनाव/ सूचना आयुक्तों और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समतुल्य सदस्यों के बराबर किया गया था।
भारत के विधि आयोग ने 2017 में ट्रिब्यूनल के वैधानिक ढांचों के आकलन पर अपनी 272वीं रिपोर्ट में कई वैधानिक ट्रिब्यूनल के वेतन और भत्ते को सुसंगत बनाने के लिए कहा था। विधि आयोग की सिफारिशों की भावना सूचना आयोगों पर भी समान रूप से लागू होती है और उनके साथ अलग तरीके से व्यवहार करने का कोई कारण नहीं है। यहां यह नोट करना प्रासंगिक है कि चुनाव/सूचना आयुक्तों का वेतन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के समान है। आरटीआई अधिनियम 2005 की धारा 13 (5) में स्पष्ट रूप से वेतन संरचना और सीआईसी की शर्तों को निर्धारित किया गया है।
सूचना का अधिकार अधिनियम की धारा 13 की उपधारा (5) में प्रावधान है कि मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और अन्य नियम और शर्तें मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के समान ही होंगी।
चूंकि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों के वेतन, भत्ते, अन्य नियम और शर्तें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर हैं, इसलिए मुख्य सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समकक्ष हो जाते हैं। उनके वेतन, भत्ते, सेवा के अन्य नियमों और शर्तों के संदर्भ में भी यह लागू होता है। सूचना आयुक्तों की वास्तविक ताकत और स्वतंत्रता इन प्रावधानों से ही मिलती है। इस ताकत को हटाने से सूचना आयुक्त कमजोर हो जाएंगे और वरिष्ठ नौकरशाहों के अधीन हो जाएंगे।
संशोधन असंवैधानिक
आरटीआई में संशोधन इसलिए असंवैधानिक है क्योंकि यह राज्यों के संप्रभु प्राधिकरण का अतिक्रमण करता है। सूचना आयुक्तों का दर्जा तय करने के संदर्भ में केंद्र न केवल विधायिका से बल्कि राज्यों से भी अधिकार छीन रहा है। संशोधन के बाद राज्य सूचना आयुक्तों के नियम और दर्जा केंद्र द्वारा निर्धारित होंगे। यह संघीय ढांचे के सिद्धांत के खिलाफ है, जो संविधान की मूल संरचना है और जिसे संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता।
अभी तक, सीआईसी के पास कैबिनेट सचिव या रक्षा सचिव या गृह सचिव या किसी अन्य प्रमुख सचिव को सूचना देने का आदेश देने का अधिकार था। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति शर्तों को तय करने के लिए विधायिका से शक्ति प्राप्त करने के बाद, केंद्रीय कार्यपालिका सूचना आयुक्तों को इस तरह का दर्जा दे सकती है, जिससे कोई सूचना आयुक्त केंद्र और राज्यों के बाबुओं को निर्देशित नहीं कर पाएं।
इसी तरह, अधिनियम की धारा 16 की उप-धारा (5) में यह प्रावधान है कि राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त और राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और अन्य नियम व सेवा शर्तें चुनाव आयुक्त और राज्य के प्रमुख सचिव की तरह ही होंगे। अब यह भी बदल जाएगा और केंद्र द्वारा थोपी गई शर्तों के अनुसार, ये सब निर्धारित किया जाएगा। इसमें राज्य की कोई भूमिका नहीं होगी।
सवाल यह है कि जब विभिन्न ट्रिब्यूनल के सदस्यों के वेतन ढांचे का सामंजस्य हो गया है, तो सरकार सूचना आयोग और चुनाव आयोग के बीच के सामंजस्य को क्यों तोड़ना चाहती है। सूचना आयुक्तों का दर्जा कम करने के कारण क्या है? सरकार सूचना आयोग को आखिर क्या दर्जा देना चाहती है?
आरटीआई अधिनियम की धारा 27 राज्य सरकार को सूचना आयोग के कर्मचारियों और कर्मचारियों के वेतन, भत्ते और सेवा शर्तों से संबंधित नियम बनाने की शक्ति प्रदान करती है। इसके अनुसार, सरकार, सरकारी राजपत्र में अधिसूचना जारी करके, इस अधिनियम के प्रावधानों को पूरा करने के लिए नियम बना सकती है।
राज्यों के पास मूल आरटीआई अधिनियम, 2005 के अनुसार नियम बनाने का अधिकार है। कार्मिक मंत्री का यह कहना कि राज्य के पास नियम बनाने की कोई शक्ति नहीं है, तथ्यात्मक रूप से गलत है और संवैधानिक व्यवस्था के तहत राज्य में निहित शक्ति पर अधिकार करना उचित नहीं है।
आरटीआई संशोधन विधेयक के माध्यम से, केंद्र सरकार राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और कार्यकाल को निर्धारित करने वाले नियम बनाने की शक्ति पर नियंत्रण चाहती है।
यह संशोधन सार्वजनिक रिकॉर्ड तक पहुंच प्रदान करने वाले मौजूदा तंत्र को नुकसान पहुंचाता है। राज्य सूचना आयोग आरटीआई अधिनियम के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण भी हैं और ये वर्तमान में संबंधित राज्य सरकारों द्वारा धारा 2 (1) (ए) के आधार पर आरटीआई नियमों को लागू कर रहे हैं। धारा 27 के तहत राज्य सरकारों को नियम बनाने की शक्ति है। चूंकि राज्य सूचना आयोग आरटीआई की धारा 15 के तहत उपयुक्त राज्य सरकारों द्वारा गठित की जाती है, इसलिए राज्य सरकारें धारा 27 में सूचीबद्ध फीस और अन्य मामलों से संबंधित आरटीआई नियम बनाती हैं।
आरटीआई कानून 2005 की धारा 15-18 राज्य सूचना आयोगों की स्थापना और सूचना आयुक्तों को हटाने का प्रावधान देती है, जो अधिनियम के संघीय ढांचे का मुख्य स्रोत है। ये धाराएं केंद्र और राज्य के बीच शक्तियों का वितरण करती हैं। इस कानूनी स्थिति को मान्यता देते हुए, आरटीआई अधिनियम राज्य के सभी तीन अंगों के प्रमुखों को सक्षम प्राधिकार के रूप में नियम बनाने की शक्ति देता है। यानी, केंद्र सरकार जो नियम बनाती है वह केवल सरकार की कार्यकारी शाखा, केंद्र शासित प्रदेशों और ऐसे अन्य निकायों पर लागू होते हैं। लोकसभा और विधानसभा के स्पीकर, राज्यसभा और विधान परिषद के सभापति, भारत के मुख्य न्यायाधीश और संबंधित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों को अपने अधिकार क्षेत्र में आरटीआई अधिनियम को लागू करने के लिए नियम बनाने की शक्ति मिली हुई है। केंद्र सरकार के आरटीआई नियमों को सब जगह लागू नहीं किया जा सकता। “उपयुक्त सरकार” और “सक्षम प्राधिकारी” को आरटीआई अधिनियम की धारा 27 और 28 के तहत पारिभाषित किया गया है, जिन्हें नियम बनाने की शक्ति है। यह न केवल राज्य के तीन अंगों के बीच शक्तियों के विभाजन का सम्मान करती है, बल्कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का अर्ध-संघीय वितरण भी करती है। संशोधन इस सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था को भंग करते हैं।
कानून में संशोधन आरटीआई अधिनियम और भारत के संघीय ढांचे के लिए एक झटका है। यह संशोधन राज्य सूचना आयोग में दिए जाने वाले वेतन के लिए दो व्यवस्थाएं तय करेगा। एक आरटीआई अधिनियम की धारा 27 (2) के तहत राज्य सूचना आयोग के कर्मचारियों के लिए राज्य सरकारों द्वारा तय किया जाने वाला वेतन और दूसरा राज्य सूचना आयुक्तों के लिए केंद्र सरकार द्वारा तय किया जाने वाला वेतन। इसके अलावा, राज्यों में सूचना आयुक्तों के वेतन का भुगतान संबंधित राज्य के समेकित कोष से किया जाता है, जिस पर केंद्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इस प्रकार, आरटीआई संशोधन विधेयक के जरिए केंद्र सरकार राज्य के वित्तीय और कार्यकारी शक्तियों पर नियंत्रण हासिल करने की कोशिश करती है।
आरटीआई संशोधन के लिए मंत्री की तरफ से दिए गए बयान का कोई औचित्य नहीं है। अभी का बयान एनडीए-I के दौरान उठाए गए ऐसे ही मुद्दे पर सरकार के रुख का विरोधाभासी है। केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम की धारा 5 (7) के तहत केंद्रीय सतर्कता आयुक्त का वेतन-भत्ता संविधान के अनुच्छेद 315 के तहत स्थापित संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष द्वारा लिए जाने वाले वेतन-भत्ते के बराबर है। सीवीसी के दो सतर्कता आयुक्त, यूपीएससी के सदस्यों के बराबर वेतन और भत्ते के हकदार हैं। 2017 में एनडीए-I ने 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों को माना और यूपीएससीके सदस्यों का वेतन हाई कोर्ट के न्यायाधीश के बराबर कर दिया गया।यदि सीवीसी, जो संवैधानिक संस्था नहीं है, को यूपीएससी जैसी संवैधानिक संस्था के समान दर्जा दिया जा सकता है, तो यही सिद्धांत आरटीआई अधिनियम के तहत अधिसूचित सूचना आयोगों पर लागू क्यों नहीं किया जा सकता?
जारी...