
24 वर्षों के अथक प्रयास के बाद एचबी करिबासम्मा की मेहनत आखिरकार रंग लाई है। उनका यह संघर्ष भारत में निष्क्रिय इच्छामृत्यु यानी सम्मान के साथ मरने के अधिकार को वैध बनाने के लिए था। इसके साथ ही कर्नाटक गंभीर रूप से बीमार मरीजों को सम्मान के साथ मरने का अधिकार देने वाला भारत का पहला राज्य बन गया है।
लंबी प्रतीक्षा के बाद करिबासम्मा अब इस दिशा में उठाए जाने वाले अंतिम कदम का इंतजार कर रही हैं। गौरतलब है कि 30 जनवरी, 2025 को कर्नाटक सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया है। इसके तहत असाध्य रूप से बीमार मरीजों को सम्मानपूर्वक मरने का अधिकार दिया जाएगा।
करिबासम्मा के संघर्ष की यह यात्रा एक व्यक्तिगत त्रासदी से शुरू हुई, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। स्लिप डिस्क की वजह से वो चलने-फिरने में असमर्थ हो गई। उन्हें न केवल एक दर्दनाक स्थिति का सामना करना पड़ा, बल्कि एक ऐसी कानूनी व्यवस्था का भी सामना करना पड़ा जिसने उन्हें अपनी शर्तों पर अपनी पीड़ा समाप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया। उसका संघर्ष तब और भी जटिल हो गया जब हाल ही में उन्हें अपने शरीर में पलते ओवेरियन (डिम्बग्रंथि) कैंसर का पता चला।
उनका यह निजी अनुभव ही था जिसने उन्हें इच्छामृत्यु पर चल रही वैश्विक चर्चा में गहराई से उतरने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने नीदरलैंड और नॉर्वे जैसे देशों को देखा जहां यह कानूनी अधिकार है। उनके शोध ने उनके दृढ़ संकल्प को और मजबूत किया। यही वजह है कि प्रतिरोध का सामना करने के बावजूद उन्होंने अपनी लड़ाई को उच्चतम स्तर तक ले जाने का फैसला किया।
2010 तक, करिबासम्मा ने अपने इच्छामृत्यु अभियान के समर्थन में 10,000 हस्ताक्षर एकत्र किए और उन्हें राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और राज्य सरकार को भेजा। उसी वर्ष, उन्होंने मरने के अधिकार के लिए सुप्रीम कोर्ट में भी याचिका भी दायर की।
अपने अधिकारों के लिए करिबासम्मा का यह संघर्ष आसान नहीं था। अपने विरोध के बारे में बात करते हुए, वे याद करती हैं, "कुछ लोगों ने मुझे परेशान किया, यह कहते हुए कि मैं देश के कानून के खिलाफ जा रही हूं, लेकिन मैं दृढ़ रहीं और लड़ती रहीं।"
हालांकि विरोध का सामना करने के बावजूद, करिबासम्मा को ऐसे लोगों से समर्थन मिला जो उनके उद्देश्य को समझते और उनसे सहानुभूति रखते थे। कई लोगों ने सेवा के नाम पर वित्तीय मदद की पेशकश की, लेकिन उन्होंने दान लेने से इनकार कर दिया।
इसके बजाय, उन्होंने अपने अभियान को जारी रखने और धन जुटाने के लिए अपना घर बेच दिया। उन्होंने कहा, "मैंने सीमा सुरक्षा बल के लिए छह लाख रुपए अलग रखे हैं और 10 लाख तक का योगदान देने की योजना बना रही हूं।"
घर बेचने और सरकार का विरोध करने के फैसले ने उनके परिवार में दरार पैदा कर दी। उन्होंने कहा, "घर बेचने और सरकार का विरोध करने के कारण वे मेरे खिलाफ थे, उन्हें डर था कि अगर मुझे जेल हो गई तो इससे बदनामी होगी। वे मुझे कहीं जाने नहीं देते थे, इसलिए मैंने अपना परिवार छोड़ दिया और आश्रम से अपनी लड़ाई जारी रखी।" बता दें करिबासम्मा अब अपने पति के साथ बेंगलुरु के एक वृद्धाश्रम में रहती हैं।
अंतिम फैसला आने का है इन्तजार
जो एक व्यक्तिगत संघर्ष के रूप में शुरू हुआ था, वह जल्द ही भारत भर में बुज़ुर्गों और असाध्य रूप से बीमार लोगों के लिए एक अभियान बन गया। करिबासम्मा का मानना है कि बहुत से लोग बीमारी का दर्द चुपचाप सहते रहते हैं क्योंकि वे लम्बे इलाज और देखभाल का खर्च नहीं उठा सकते।
उनका कहना है, "मैं 70 या 80 साल से ज्यादा उम्र के लोगों और लाइलाज बीमारियों से पीड़ित उन मरीजों के लिए लड़ रही हूं, जिनका साथ देने वाला कोई नहीं है।" असहनीय पीड़ा सहने को मजबूर बुजुर्गों की दुर्दशा को प्रत्यक्ष रूप से देखने के बाद, वे निष्क्रिय इच्छामृत्यु को कानूनी अधिकार बनाने के लिए और भी दृढ़ हो गईं।
कर्नाटक में अब सम्मान के साथ मरने के अधिकार को मान्यता मिल गई है। इसके साथ ही करिबासम्मा दो दशक से भी ज्यादा लम्बे समय के बाद अपने लक्ष्य को हासिल करने के और करीब पहुंच गई हैं। हालांकि, उन्हें अभी भी इस बात का अंतिम फैसला आने का इंतजार है कि वे अपने अधिकार का इस्तेमाल कब कर सकती हैं।
कर्नाटक भारत का पहला राज्य है जिसने आधिकारिक तौर पर सहायता प्राप्त इच्छामृत्यु की अनुमति दी है।
कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री दिनेश गुंडू राव ने डाउन टू अर्थ को बताया, “यह बेहद मार्मिक स्थिति है जब किसी व्यक्ति को चिकित्सा साधनों की मदद से मृत्यु की नींद सुलाना पड़ता है। हालांकि, अगर कोई व्यक्ति ऐसा करना चाहता है, तो उसके पास कोई ठोस कारण होना चाहिए। एक सभ्य समाज के रूप में, हम इसकी सिर्फ अनुरोध पर अनुमति नहीं दे सकते।“
राव ने इस बात पर जोर दिया कि उचित चिकित्सा या अन्य सहायता के साथ किसी व्यक्ति को जीवित रखने के अन्य तरीके भी हैं। "इच्छामृत्यु प्रदान करना एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें चिकित्सा प्रणाली के साथ-साथ कई एजेंसियां शामिल होती हैं। अभी, मुझे नहीं पता कि करिबासम्मा के मामले पर विचार किया जाएगा या उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा। हमारा प्रयास उन्हें इस इच्छामृत्यु के विकल्प का चुनाव करने से रोकना है। साथ ही उन्हें आत्मविश्वास हासिल करने और अपना जीवन पूरी तरह से जीने में के लिए राजी करना है।"
इस बीच, करिबासम्मा अपने संकल्प पर अडिग हैं। उन्होंने जोर देकर कहा, "मुझे अभी तक कोई तारीख नहीं दी गई है।" तब तक, वह दृढ़ हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि उनके संघर्ष ने दूसरों के लिए अपने जीवन के बारे में सुविचारित और सम्मानजनक निर्णय लेने का मार्ग प्रशस्त किया है।