सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: पहले दशक की सफलता ही दुश्मन बनी
गांवों, मीडिया और सिविल सोसायटी से मिले जबरदस्त समर्थन ने ही सूचना के अधिकार आंदोलन को मजबूती दी, जिसने केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित किया और आरटीआई एक्ट लागू हुआ। लेकिन नब्बे के दशक में राजस्थान के गांवों के विकास कार्यों में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं ने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि 20 साल बाद उनकी साहस से भरी कोशिशें लगभग व्यर्थ ही साबित होंगी।
सूचना आयोगों की स्थिति पर हालिया रिपोर्ट आरटीआई कार्यकर्ताओं, सिविल सोसायटी और सरकार से सूचना मांगने वाले आम आदमी सबके लिए बेहद निराशाजनक है। 7 राज्य सूचना आयोग (एसआईसी) निष्क्रिय पाए गए और 3 तो पूरी तरह बंद मिले। केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) भी मुश्किल से काम कर रहा था, क्योंकि वहां भी 11 की जगह सिर्फ तीन आयुक्त ही तैनात थे। एक तरफ देशभर में 4 लाख से अधिक अपीलें और शिकायतें लंबित पाई गईं, दूसरी तरफ राज्य सूचना आयोगों में पद खाली पड़े मिले। महाराष्ट्र में ही एक लाख से अधिक मामले लंबित पाए गए, उसके बाद कर्नाटक में 50,000 और तमिलनाडु में 41,000 मामले लंबित हैं। आयोगों का खराब कामकाज आरटीआई एक्ट की नींव को ही कमजोर कर देता है।
कई राज्यों में लोगों को अपनी अपीलों की सुनवाई के लिए सालों तक इंतजार करना पड़ रहा है। छत्तीसगढ़ एसआईसी को किसी मामले का निपटारा करने में 5 साल 2 महीने और बिहार को साढ़े 4 साल लगेंगे। अपीलों की सुनवाई में लग रहा इतना लंबा वक्त चिंताजनक है। कई आयोगों में नियमित तौर पर सुनवाई नहीं होती और कुछ तो वार्षिक रिपोर्ट तक अपलोड करने से इनकार कर देते हैं, जिससे पारदर्शिता कमजोर होती है।
सतर्क नागरिक संगठन की ओर से तैयार “सूचना आयोगों का रिपोर्ट कार्ड 2023-24” देश में आरटीआई एक्ट की कार्यप्रणाली पर किसी गंभीर आरोप-पत्र से कम नहीं है। आरटीआई एक्ट के संचालन में यह लापरवाही सरकार के शीर्ष स्तर से शुरू होती है। आयोगों में लंबे समय तक पदों को खाली पड़े रहने देना, आरटीआई कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी की मांगों की अनदेखी करना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि सरकार ने आरटीआई को दरकिनार कर दिया है। बार-बार सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता है, ताकि सरकार को खाली पदों को भरने का आदेश दिया जा सके।
आम आदमी उम्मीद करता है कि अगर मंत्रालयों में महत्वपूर्ण मुद्दों पर सवाल टाले जाते हैं, तब आयोग उनके सूचना के अधिकार की रक्षा करेंगे। उदाहरण के लिए विदेश मंत्रालय ने अमेरिका के साथ रूस से तेल आयात को लेकर हुए पत्राचार की जानकारी देने से साफ इनकार कर दिया। सीएचआरआई के वेंकटेश नायक ने बाइडन प्रशासन से मिले उस पत्र की प्रतियां मांगी थीं, जिसमें भारत से विश्व बाजार की कीमतें स्थिर करने के लिए रूसी तेल खरीदने का आग्रह किया गया था। यह वही दावा था जो विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ट्रम्प के भारत के निर्यात पर 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाने के जवाब में किया था। लेकिन विदेश मंत्रालय ने इस बारे में कोई दस्तावेज या विवरण देने से मना कर दिया। हैरानी की बात है कि इसे कैसे छूट के दायरे में लाया जा सकता है, जबकि आरटीआई एक्ट की धारा 8 में दिए गए किसी भी कारण से यह मेल नहीं खाता। अगर सरकार ने कोई दावा किया है, तो लोगों को चिट्ठी दिखाने में नुकसान ही क्या है?
अधिकतर सरकारी संस्थाएं विदेश मंत्रालय की तरह ही पारदर्शिता नहीं दिखातीं। यहां तक कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) जैसी ताकतवर संस्थाएं, जिन पर राजनेता हर वक्त नजरें गड़ाए रहते हैं, वह भी खुद को आरटीआई के दायरे से बाहर रखने में कामयाब हो जाती है। जबकि सरकार से महज 10 लाख रुपए या उससे ज्यादा फंडिंग पाने वाले सभी खेल महासंघों को “पब्लिक अथॉरिटी” घोषित कर दिया जाता है।
भले ही बीसीसीआई को सरकार के पैसों की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट संघ है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (आईसीसी) की बागडोर भारत के गृह मंत्री के बेटे के पास है। अब बीसीसीआई अध्यक्ष का चुनाव होने वाला है और वहां मिलने वाले आकर्षक भत्ते और विशेषाधिकार से कई नेताओं को बेचैन कर रहे हैं। बीसीसीआई ने देशभर में अपना विशाल साम्राज्य खड़ा करने के लिए सरकार से सबसे ज्यादा लाभ उठाया है।
इसकी चुनी टीम भारत के झंडे तले ही खेलती है। लेकिन जब जनता के प्रति जवाबदेही निभाने की बात आती है तो बीसीसीआई पीछे हट जाता है। भारत का चुनाव आयोग खुद पारदर्शिता नहीं बरतता है, लेकिन वोट डालने के लिए आम मतदाता से जन्म और निवास से जुड़े दस्तावेज मांगता है। उसी आयोग से जब यह पूछा जाता है कि किन निर्वाचन क्षेत्रों में मतदाताओं पर डराए-धमकाए जाने का खतरा है या चुनाव के दौरान बैंकों से संदिग्ध लेन-देन की जो रिपोर्टें आती हैं, तो वह जानकारी देने से इनकार कर देता है।
शायद आरटीआई एक्ट की पहले दशक की सफलता ही उसकी दुश्मन बन गई। नागरिक को सत्ता से सवाल पूछने का अधिकार मिला तो कुछ निहित स्वार्थों को चोट पहुंची। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) शासन में सांसदों ने “पेशेवर आरटीआई कार्यकर्ताओं” का मुद्दा उठाया, जो सरकारी अधिकारियों के खिलाफ लगातार अभियान चलाते थे। बहुत सी छोटी-छोटी बातों पर ज्यादा सवाल आने लगे, जिससे सिस्टम पर बोझ बढ़ा। यह बात कुछ हद तक सही थी, लेकिन तब भी हालात इतने नहीं बिगड़े थे कि व्यवस्था ठप हो जाए। इससे निपटने के तरीके थे, जिसे कुछ आयुक्त सफलतापूर्वक लागू कर रहे थे।
सबसे बड़ी बात यह थी कि आरटीआई में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे कि जो संस्थाएं सरकार से अधिकतम लाभ ले रही हैं, उन्हें सार्वजनिक प्राधिकरण क्यों नहीं माना जा रहा। यही सवाल निहित स्वार्थों को सबसे ज्यादा खल रहे थे। ऐसे प्रश्नों से बीसीसीआई, सहकारी समितियां, दिल्ली जिमखाना, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी संस्थाएं निगरानी के दायरे में आ गईं। 2013 का केंद्रीय सूचना आयोग का ऐतिहासिक फैसला आया जिसमें राजनीतिक दलों को सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित कर दिया गया। इसके बाद हड़कंप मच गया। सभी दलों ने तय किया कि वे इस आदेश को मानेंगे ही नहीं। मामला अब तक रुका हुआ है और अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है।
यही ऐतिहासिक निर्णय सभी राजनीतिक दलों के आरटीआई से मोहभंग की असली वजह है। इसके बाद 2019 में संशोधन लाया गया, जिसमें केंद्रीय सूचना आयुक्तों का दर्जा घटाकर भारत सरकार के सचिव के बराबर कर दिया गया। पहले सूचना आयुक्तों के कार्यकाल की अवधि 5 साल निश्चित थी, उसे भी घटाकर तीन साल कर दिया गया। भारत जैसे देश में जहां पद की अहमियत वेतनमान से तय होती है, इस बदलाव ने सभी आयुक्तों की स्थिति बहुत नीचे कर दी। इसका असर साफ दिखने लगा, सरकारी विभागों को यह संकेत मिल गया कि आयुक्तों की ताकत पहले जैसी नहीं रही। वैसे भी उच्च अधिकारी तब तक आरटीआई के सवालों के जवाब देने की जहमत नहीं उठाते थे, जब तक गंभीर मामलों में सीधे सीआईसी या एसआईसी की ओर से पूछताछ न हो। जब आरटीआई बिल बनाया जा रहा था, तब काफी बहस के बाद यह तय किया गया था कि आयुक्तों को केंद्रीय चुनाव आयुक्तों के बराबर का दर्जा दिया जाएगा।
आरटीआई पर दूसरी बड़ी चोट तब हुई, जब सरकार ने वरिष्ठता का सिद्धांत तोड़कर सीधे अपनी पसंद के व्यक्ति को मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त करना शुरू कर दिया। इरादा साफ था कि सेवानिवृत्त नौकरशाहों को चुनकर आयोग को अपने नियंत्रण में रखा जाए। वहीं, कुछ आयुक्त अभी भी खुद को सरकारी अफसर मानकर उनकी तरह ही व्यवहार करते हैं और अक्सर सूचनाएं देने से मना कर देते हैं, इससे सरकार के हित हमेशा सुरक्षित रहते हैं। आरटीआई पर सबसे तगड़ा वार हाल ही में आए डीपीडीपी एक्ट ने किया है। इसके जरिए आरटीआई में किए गए संशोधन का इस्तेमाल अफसरों की संपत्ति, भर्ती में गड़बड़ी, फर्जी जाति या जन्म प्रमाणपत्र जैसे वैध सवालों को दबाने के लिए किया जाएगा।
पारदर्शिता के हिमायती विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि नया प्राइवेसी कानून वित्तीय घोषणाओं, सरकारी योजनाओं, सेवा रिकॉर्ड और हितों के टकराव से जुड़ी जानकारी तक पहुंच को रोकने का चोर दरवाजा बन सकता है। भारत जैसी तेजी से उभरती आर्थिक शक्ति जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता चाहती है, उसे गंभीरता से सोचना होगा कि क्या वह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जानकारी पाने के लोगों के बुनियादी अधिकार और सूचना तक स्वतंत्र पहुंच को कुचलने का जोखिम उठा सकती है।
(यशोवर्धन झा आजाद पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं। वह केंद्रीय सूचना आयुक्त, भारत सरकार में सचिव (सुरक्षा) और इंटेलिजेंस ब्यूरो में विशेष निदेशक के रूप में सेवाएं दे चुके हैं)