सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: क्या खत्म होने की राह पर है आरटीआई?
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

सूचना का अधिकार कानून के 20 साल: क्या खत्म होने की राह पर है आरटीआई?

इस कानून को सबसे बड़ी चोट सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से लगी जो “गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम केंद्रीय सूचना आयुक्त एवं अन्य (2012)” था
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लोकतंत्र का मूल “जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन” सिद्धांत पर आधारित है। इसी सिद्धांत पर सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) भी बनाया गया जो कहता है कि सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएं नागरिकों के लिए हैं। सरकार इन सूचनाओं की संरक्षक भर है। नागरिक प्रतिनिधियों को चुनकर उन्हें वैधता प्रदान करते हैं और प्रतिनिधि नौकरशाही को वैधता देते हैं। इसलिए आरटीआई के तहत डिफॉल्ट स्थिति यही है कि सारी सूचनाएं नागरिकों से साझा की जाएं। नागरिकों ने इसे बड़े उत्साह से अपनाया क्योंकि इसने उन्हें सरकार की निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करने का अधिकार दिया।

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कानून की धारा 8(1) में 10 विशेष अपवाद सूचीबद्ध हैं। यदि मांगी गई सूचना इनमें से किसी श्रेणी में नहीं आती तो उसे उपलब्ध कराना अनिवार्य है। 20 साल बाद यह “सनशाइन लॉ” अब “सनसेट मोड” में जाता प्रतीत हो रहा है। इसके पतन के कई कारण हैं, जैसे खराब सूचना आयुक्तों की नियुक्ति और अपीलों का निस्तारण करने में अत्यधिक देरी।

इसे सबसे बड़ी चोट सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से लगी जो “गिरीश रामचंद्र देशपांडे बनाम केंद्रीय सूचना आयुक्त एवं अन्य (2012) था।” गिरीश देशपांडे ने एक लोक सेवक को मिले मेमो, कारण बताओ नोटिस और दंड संबंधी सूचनाएं मांगी थीं। उन्होंने उस लोक सेवक की संपत्ति और मिले उपहारों का विवरण भी मांगा था। अदालत ने कहा कि यह जानकारी नहीं दी जा सकती क्योंकि यह धारा 8(1)(जे) के अंतर्गत “व्यक्तिगत सूचना” है।

यह धारा कहती है, “ऐसी सूचना जिससे किसी व्यक्ति की प्राइवेसी (निजता) का अनावश्यक उल्लंघन हो और जिसका किसी सार्वजनिक गतिविधि या हित से कोई संबंध न हो, उसे नहीं दिया जाएगा। किंतु यदि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी/राज्य लोक सूचना अधिकारी/अपील प्राधिकारी संतुष्ट हों कि व्यापक जनहित में ऐसी सूचना देना आवश्यक है तो दी जा सकती है। यह भी प्रावधान है कि संसद या राज्य विधानमंडल को जो सूचना रोकी नहीं जा सकती, वह किसी व्यक्ति से भी नहीं रोकी जाएगी।”

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अदालत ने कहा कि हम केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) और निचली अदालतों की इस राय से सहमत हैं कि याचिकाकर्ता द्वारा मांगी गई सूचनाएं, जैसे कि तृतीय प्रतिवादी को जारी किए गए सभी मेमो की प्रतियां, कारण बताओ नोटिस और फटकार/दंड के आदेश आदि धारा 8(1) के खंड (जे) में परिभाषित “व्यक्तिगत सूचना” की श्रेणी में आती हैं। किसी संगठन में एक कर्मचारी/अधिकारी का प्रदर्शन मुख्यतः कर्मचारी और नियोक्ता के बीच का मामला होता है और सामान्यत: ये पहलू सेवा नियमों के अंतर्गत आते हैं, जो व्यक्तिगत सूचना की परिभाषा में आते हैं।

ऐसी सूचना का प्रकटीकरण किसी सार्वजनिक गतिविधि या जनहित से संबंधित नहीं है। इसके विपरीत, इसका खुलासा उस व्यक्ति की प्राइवेसी में अनावश्यक दखल होगा। हां, किसी विशेष मामले में यदि केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी, राज्य लोक सूचना अधिकारी या अपीलीय प्राधिकारी संतुष्ट हों कि व्यापक जनहित इस प्रकार की सूचना के प्रकटीकरण को न्यायोचित ठहराता है, तो उपयुक्त आदेश पारित किए जा सकते हैं। किंतु याचिकाकर्ता इन विवरणों को अधिकार स्वरूप नहीं मांग सकता।”

अदालत द्वारा यह निर्धारित ही नहीं किया गया कि सूचना सार्वजनिक गतिविधि का हिस्सा थी या प्राइवेसी पर अनुचित अतिक्रमण। अदालत ने माना कि ये मामले नियोक्ता और कर्मचारी के बीच के हैं, जबकि यह ध्यान ही नहीं दिया कि वास्तविक नियोक्ता तो नागरिक हैं।

उतना ही महत्वपूर्ण यह भी था कि अदालत ने उस प्रावधान पर विचार ही नहीं किया और यह घोषित नहीं किया कि ऐसी सूचना संसद से भी रोकी जाएगी। जब अदालत ने धारा का उल्लेख किया तो उसने उस प्रावधान का जिक्र तक नहीं किया। परिणामस्वरूप, कई प्राधिकरणों ने इस निर्णय का उपयोग सूचना नकारने के लिए करना शुरू कर दिया।

अधिकांश सूचनाएं व्यक्तियों से जुड़ी होती हैं और उन्हें “व्यक्तिगत” कहकर रोका जा सकता है। संसद ने प्रावधान बहुत सावधानी से बनाया था। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि सूचना पर रोक केवल उन्हीं सीमाओं तक रहे जिन्हें अनुच्छेद 19(2) अनुमति देता है।

अनुच्छेद 19(2), अनुच्छेद 19(1)(ए) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) पर उचित प्रतिबंधों की अनुमति केवल उन्हीं मामलों में देता है जब सूचना भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी मित्र राष्ट्रों से संबंध, लोक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, न्यायालय की अवमानना, मानहानि, अपराध हेतु उकसाना या संसद की संप्रभुता और अखंडता से संबंधित हो। प्राइवेसी से संबंधित शब्द केवल “शालीनता” और “नैतिकता” हैं।

संसद ने यह मानकर कि प्राइवेसी को परिभाषित करना कठिन है, प्रावधान में सरल कसौटी दी। यह कसौटी है यदि किसी सूचना का खुलासा शालीनता या नैतिकता का उल्लंघन करता है, तो उसे संसद को भी न दिया जाए। संयोग से पुट्टस्वामी निर्णय जिसमें प्राइवेसी को मौलिक अधिकार घोषित किया गया, ने यह नहीं बताया कि प्राइवेसी की पहचान कैसे की जाए। इसमें कहा गया था, “अंततः प्राइवेसी का मौलिक अधिकार जिसके कई विकसित होते पहलू हैं, केवल मामले-दर-मामले आधार पर विकसित किया जा सकता है।”

गिरीश देशपांडे निर्णय ने सूचना के इनकार को वैध ठहरा दिया यदि उसका संबंध किसी व्यक्ति से जोड़ा जा सके। अब पूरे देश में विधायक निधि व्यय, अधिकारियों की छुट्टियां, जाति प्रमाणपत्र, फाइल टिप्पणियां, शैक्षिक डिग्रियां, सब्सिडी पाने वालों की सूची और बहुत सी अन्य सूचनाएं नकार दी जा रही हैं।

कई लोक सूचना अधिकारी सिर्फ इसलिए सूचना नहीं देते क्योंकि उसमें किसी व्यक्ति का नाम है और इसे व्यक्तिगत सूचना कहकर नकार दिया जा रहा है। एक आरटीआई में मैंने पूछा था कि कितने आईएएस अधिकारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट चार साल से लंबित है। कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के लोक सूचना अधिकारी ने इसे यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि यह “व्यक्तिगत सूचना” है! गिरीश देशपांडे निर्णय को कई सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के फैसलों में मिसाल के रूप में उद्धृत किया गया।

यह ध्यान देने योग्य है कि एडीआर–पीयूसीएल निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि नागरिकों को उन व्यक्तियों की संपत्ति जानने का अधिकार है जो लोक सेवक (जनप्रतिनिधि) बनना चाहते हैं, जबकि गिरीश देशपांडे निर्णय ने कहा कि नागरिकों को उन लोक सेवकों की संपत्ति जानने का अधिकार नहीं है जो पहले से पद पर हैं! कई प्राधिकरण अब नागरिकों से मांग करते हैं कि वे सूचना के प्रकटीकरण में “जनहित” साबित करें। वे यह नहीं समझते कि यह तो मौलिक अधिकार है। हालांकि, अनेक अधिकारी और आयुक्त ऐसी सूचनाएं देते रहे अगर वह संसद द्वारा तय किए गए अपवादों में नहीं आतीं।

सरकार ने गिरीश देशपांडे निर्णय की खामी को समझते हुए डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन (डीपीडीपी) कानून का उपयोग करके आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(जे) में संशोधन किया।

इससे धारा के 87 शब्दों की लंबाई घटाकर केवल छह शब्दों- “इन्फॉर्मेशन विच रिलेट्स टु पर्सनल इन्फॉर्मेशन” तक सीमित कर दी गई है। यह बड़ा परिवर्तन है क्योंकि अब अधिकांश सूचनाओं को आसानी से रोका जा सकता है। यह इस बात का अप्रत्यक्ष स्वीकार भी है कि मौजूदा कानून के अनुसार सभी व्यक्तिगत सूचनाएं अपवाद में नहीं आतीं। डीपीडीपी अधिनियम में एक और हैरानी वाली बात है।

सामान्यत: “व्यक्ति” से तात्पर्य इंसान से होता है, लेकिन इसकी परिभाषा विस्तृत है और इसमें “हिंदू अविभाजित परिवार, फर्म, कंपनी, व्यक्तियों का संगठन और राज्य” सब शामिल हैं। इस प्रकार, राज्य से संबंधित सूचना भी “व्यक्तिगत” कहकर नकार दी जा सकती है।

हमने इस यात्रा की शुरुआत दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कानूनों में से एक से की थी। सक्रिय नागरिकों ने इस कानून का उपयोग व्यक्तिगत और सार्वजनिक भलाई के लिए किया और दूसरों को भी सिखाया। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नागरिकों को सशक्त बनाने और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने का उद्देश्य पूरा होगा। भारत केवल सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि सबसे अच्छा लोकतंत्र बनेगा। अब नागरिकों और मीडिया को चाहिए कि इन खतरों पर चर्चा करें और जनमत तैयार करें ताकि सूचना का अधिकार और लोकतंत्र दोनों सुरक्षित रह सकें।

(लेखक पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त हैं)

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