कुमरम सोम बाई- “क्या हम सूरज मांग रहे थे?

कुमरम सोम बाई- “क्या हम सूरज मांग रहे थे?

यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि कुमरम भीम की ही तरह उनकी पत्नी सोम बाई भी एक वीरांगना थी जो जनजातीय अन्दोलोनों के इतिहास में एक अहम स्थान रखती है
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इतिहास लेखन की एक समस्या रही है कि यह हासिये के समुदायों के प्रति अक्सर अनुदार रहा है। इसने जनजातियों, दलितों, महिलाओं और अन्य कमजोर वर्गों के योगदानों का अपने लेखन में स्थान देना जरुरी नहीं समझा। संभवतः इसलिए रंजीत गुहा जैसे इतिहासकारों को इतिहास लेखन के लिए ‘सबल्टर्न एप्रोच’ को समाजविज्ञान में एक अलग विधा के रूप में प्रस्तुत करना पड़ा।

‘सबल्टर्न एप्रोच’ से देखें तो कुमरम भीम और उनकी पत्नी सोम बाई का उदाहरण महत्वपूर्ण है। कुमरम भीम पर बनी फिल्म आरआरआर से पहले भारत के एक बड़े हिस्से के वे लोग जो इतिहास के जानकार होने का दावा करते थे वे भी कुमरम भीम के नाम से अपरिचित थे।

गोंड जनजाति से सम्बन्ध रखने वाले कुमरम भीम तेलंगाना के जनसंघर्षों का एक गाथाई नाम है। उसने तत्कालीन निज़ाम की सत्ता और ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जो संघर्ष किया वह बेमिसाल है, लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि कुमरम भीम की ही तरह उनकी पत्नी सोम बाई भी एक वीरांगना थी जो जनजातीय अन्दोलोनों के इतिहास में एक अहम् स्थान रखती है।

दुर्भाग्य से उनके बारे में अभी भी पर्याप्त शोध सामग्री का अभाव है जिस कारण सोम बाई के बारे में बहुत अधिक लिख पाना कठिन है। पर जो कुछ भी थोड़े शोध साहित्य उपलब्ध हैं उसके आधार पर कहा जा सकता है कि जनजातीय महिलाओ के संघर्षों के इतिहास में सोम बाई का नाम अग्रणी है।

जनजातियों की समस्या को अगर देखें तो यह मूलतः आर्थिक है न कि सामाजिक। इसका संघर्ष जल, जंगल और जमीन पर अपने अधिकारों को लेकर अधिक है। और इस कारण इसके अधिकांश आन्दोलन राज-सत्ता के विरुद्ध मुखर रहे हैं, चाहे वह ब्रिटिश सत्ता रही हो, या फिर निज़ाम की सत्ता, या फिर स्वतन्त्र भारत की लोकतान्त्रिक सत्ता। कुमरम भीम और सोम बाई इन्ही संघर्षों के एक बड़े प्रतीक का नाम है।

तेलंगाना के अदिलाबाद जिले में इन दोनों के नेतृत्व ने तत्कालीन निज़ाम की सत्ता और ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी थी। निज़ाम ने उनकी जमीनों पर अपना कब्ज़ा करने के लिए इनके ऊपर युद्ध थोप दिया। कुमरम भीम ने वीरता से संघर्ष को संचालित किया था।

इन लड़ाइयों के दौरान निज़ाम ने उनकी बस्तियों को आग के हवाले कर दिया, और फिर गोंडों के उपर अनगिनत क़ानूनी मुक़दमे भी किये। फिर भी कुमरम भीम और सोम बाई ने अपने लोगों को एकजुट करना जारी रखा और लगभग साठ एकड़ की जमीन पर मिलकर खेती करना प्रारंभ किया, साथ ही उन्होंने जोडनघाट और पाटनपुर जैसे गाँवों को भी बसाया ताकि गोंड समुदाय वहां रहकर जंगल के संसाधनों से अपना जीवन-यापन कर सकें।

कई बार निज़ाम की पुलिस को इन गांवों में बलपूर्वक प्रवेश करने के दौरान गोंडों का जबरदस्त विरोध झेलना पड़ता था और ऐसे भी मामले हुए जब निजाम की सेना की गोंडों के द्वारा जबरदस्त पिटाई भी की गई।

लेकिन, दुर्भाग्य से एक समय जब कुमरम भीम को निज़ाम की पुलिस के द्वारा पकड़ लिया गया और उसे बड़ी बेरहमी से मार डाला गया तब नेतृत्व का सारा बोझ सोम बाई ने अपने कंधे पर ले लिया और उसने गोंडों को अपने अधिकारों के लिए प्रेरित करना जारी रखा।

गोंडों के लिए सोम बाई का स्थान वही था जो कुमरम भीम का था। एक पत्रकार को दिए अपने एक साक्षात्कार में सोम बाई ने बताया था- “जिस दिन मेरे पति को जोडनघाट के जंगल में गोली मारी गई, उसी दिन निज़ाम ने हमारी जमीने हड़प ली। जंगल तेजी से काटे गए और इसके अन्य संसाधनों को भी तेजी से लूटा गया। जब हमने दलिया के लिए मुट्ठी भर अनाज मांगे तो क्या यह अपराध था? क्या हम सूरज मांग रहे थे?”

सोम बाई ने लड़ाइयों के दौरान ही एक बच्चे को जन्म दिया था जिसे वह युद्ध के दौरान अपने पीछे कमर में बांध लिया करती थी। घरेलु कार्यों को करते हुए उसने सशस्त्र संघर्षों में भी तीर-धनुष से अपनी वीरता दिखाई।

सोम बाई ने निज़ाम के बाद की लोकतांत्रिक सत्ता के प्रति भी अपना रोष प्रकट करते हुए कहा था कि वर्तमान लोकतांत्रिक सत्ता से कुछ मामलों में निज़ाम की सत्ता बेहतर थी जिसने कुमरम भीम के साथ संघर्षों के उपरांत बारह गाँवों पर गोंडों के अधिकार को मान्यता दे दी थी। निश्चय ही यह बात उन्होंने समकालीन लोकतांत्रिक सत्ता की विसंगतियों से क्षुब्ध होकर कही होगी।

सोम बाई और कुमरम भीम सच में सूरज नहीं मांग रहे थे, वे तो बस जंगल पर अपने सैकड़ों वर्ष पुराने अधिकारों को मांग रहे थे। आज तेलंगाना संघर्ष के दशकों बीत गए, उनके आंदोलनों को भी मिटाया जा चुका है, लेकिन जनजातियों की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं दिखता।

जंगल से उजाड़कर उन्हें शहरों की भीड़ में गुम कर देने वाली नीतियाँ एक तरह से उनका सांस्कृतिक संहार कर रही हैं। खनन की सभ्यता लगातार जीवन के विविध अस्तित्व को मिटाती जा रही है। न जाने इस हिंसक सभ्यता के विरोध में और कितने सोम बाई और कुमरम भीम होंगे जिनकी आवाजें बुलडोजर से मिटा दी गई होंगी।

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