धनगर समुदाय ने अपनी भेड़-बकरियों के लिए सिमटते क्षेत्रों की बढ़ती चिंताओं के बीच अपनी पारंपरिक चरागाह भूमि को दोबारा हासिल करने के प्रयास तेज कर दिए हैं। गौरतलब है कि धनगर, महाराष्ट्र का एक चरवाहा और खानाबदोश आदिवासी समुदाय है।
20 अगस्त, 2024 को धनगर समुदाय से जुड़े यह लोग अपनी भेड़-बकरियों के लिए समर्पित चरागाह गलियारों की मांग करते हुए बुलढाणा के खामगांव सब डिवीजन कार्यालय में एकत्र हुए।
धनगर समुदाय, प्रवासी चरवाहे के रूप में अपने तौर-तरीकों के लिए काफी मशहूर हैं। परंपरागत रूप से यह समुदाय अपने मवेशियों के भरण-पोषण के लिए लंबी दूरी की यात्रा करते हैं। हालांकि आम तौर पर ये लोग मानसून के दौरान अपने मूल क्षेत्रों और घरों को लौट आते हैं। लेकिन सिमटते चरागाहों की वजह से उनके लिए ऐसा करना मुशिकल होता जा रहा है।
समुदाय ने पहली बार 2022 में अपनी चिंताओं से सरकार को अवगत कराया था। इसके लिए उन्होंने राज्य सरकार को बाकायदा 20,000 पोस्टकार्ड भेजे थे। इसमें उन्होंने पारंपरिक चरागाहों की तत्काल बहाली की आवश्यकता पर प्रकाश डाला था।
हालांकि उनके इन प्रयासों के बावजूद, बहुत कुछ नहीं बदला है, जिसके चलते हाल ही में उप-विभाग कार्यालय में विरोध प्रदर्शन हुआ। बता दें कि यह विरोध प्रदर्शन ऐसे समय में हुआ है जब 2024 के अंत में राज्य में विधान सभा चुनाव होने वाले हैं।
बुलढाणा जिले के सौरभ हटकर का इस बारे में कहना है कि, “पिछले कुछ दशकों में उनके जिले के करीब 70 फीसदी चरागाह क्षेत्र सिकुड़ गए हैं।“ गौरतलब है कि सौरभ मेंढपाल पुत्र सेना (जिसका अर्थ है "चरवाहों के बेटों की सेना") के नेता हैं। उनका आरोप है कि इस भूमि का अधिकांश हिस्सा भारतीय वन अधिनियम, 1927 के तहत संरक्षित जंगलों, खेतों, विकास परियोजनाओं और अन्य कारणों की वजह से खो गया है।
हटकर ने उदाहरण देते हुए कहा कि, 1996 में राज्य सरकार द्वारा ज्ञानगंगा वन्यजीव अभयारण्य घोषित किए जाने के बाद चरागाह की अधिकांश भूमि खत्म हो गई। यह मेरे पैतृक गांव नांद्री के पड़ोस में है। तब से पारंपरिक स्थानों पर चराई के मुद्दे पर चरवाहों और वन विभाग के अधिकारियों के बीच कई बार संघर्ष हो चुके हैं।
धनगर समुदाय सरकार ने सरकार के सामने रखी हैं क्या कुछ मांगें
महाराष्ट्र में, धनगर समुदाय मुख्य रूप से विदर्भ के बुलढाणा, लातूर, अमरावती और यवतमाल में केंद्रित है। इसके साथ ही सांगली, सतारा, नासिक और पुणे के उत्तरी क्षेत्रों में भी इनकी आबादी मौजूद है। हटकर ने बताया कि यह समुदाय पहले 300 किलोमीटर तक की यात्रा करता था, लेकिन अब वे 100 किलोमीटर के दायरे में सीमित रह गए हैं।
उन्होंने जानकारी दी है कि, "विदर्भ में, ये लोग बुलढाणा से अमरावती और अकोला तक यात्रा करते हैं। वहीं इनमें से कुछ तो चंद्रपुर तक भी जाते हैं। पश्चिम में, वे कोंकण क्षेत्र की ओर बढ़ते हैं।"
हटकर ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) को बताया कि इन रास्तों का उपयोग पारम्परिक रूप से समुदाय द्वारा पीढ़ियों से किया जाता रहा है। लेकिन अब, वन विभाग के प्रतिबंधों, कृषि और विकास ने हमारे चरागाह क्षेत्रों को सीमित कर दिया है। हमारे आंदोलनों को वन भूमि पर अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है, और चरवाहों को अक्सर कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ता है।"
उनका तर्क है कि भेड़-बकरियों के चरने से जंगल को कोई नुकसान नहीं होता, भले ही वन अधिकारी कुछ भी दावा करें। समुदाय के नेता ने कहा, "वास्तव में, जानवर मिट्टी को अधिक उपजाऊ और मूल्यवान बनाते हैं। यह सदियों से होता आ रहा है और इसका कभी भी जंगलों पर नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा।"
हटकर ने डीटीई को बताया कि इन बदलावों के बारे में समुदाय से सलाह नहीं ली गई और उनकी मांगों को सालों से अनदेखा किया जा रहा है। उनका आगे कहना है कि, "वन अधिकारियों के साथ कई बैठकें इस मुद्दे को हल करने में विफल रही हैं। अधिकारी, हमारी भेड़-बकरियों को बिना किसी गतिविधि के चराने की सलाह देते हैं। यह कदम सीधे तौर पर हमारी जीविका और सांस्कृतिक विरासत को प्रभावित करेगा, जिसका पालन पीढ़ियों से किया जा रहा है।"
ऐसे में इस समस्या के समाधान के लिए, समुदाय वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत निर्दिष्ट चरागाह गलियारों की मांग कर रहा है। हटकर का कहना है कि, "हम यह भी चाहते हैं कि भारतीय वन अधिनियम के तहत चराई पर लगाए प्रतिबंध हटा दिए जाएं और वन विभाग द्वारा चरवाहों के खिलाफ दर्ज सभी मामले वापस ले लिए जाएं।"
समुदाय ने यह भी मांग की है कि चरागाह भूमि पर बाड़ लगाने का काम तुरंत रोक दिया जाए और सरकार संरक्षण और वनरोपण का नियंत्रण अपने हाथ में ले और ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए।
उनकी अन्य मांगों में राज्य भर में भेड़ और बकरियों के लिए एक समर्पित पशु चिकित्सा क्लिनिक की स्थापना करना। साथ ही चरम मौसमी घटनाओं और अन्य अप्राकृतिक कारणों से मरने वाले मवेशियों के लिए मुआवजा उनकी मांगों में शामिल है।