
हिमाचल प्रदेश के विभिन्न जिलों के 20 से अधिक सामुदायिक संगठन और ग्राम सभाओं ने हाल ही में आए उच्च न्यायालय के बेदखली आदेशों के संदर्भ में राज्य सरकार और जनजातीय विकास विभाग से अपील की है कि वे वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) 2006 को प्रभावी ढंग से लागू करें और वन आश्रितों की रक्षा के लिए तत्काल और जवाबदेह कदम उठाएं।
संगठनों द्वारा अतिरिक्त मुख्य सचिव (जनजातीय विकास), जनजातीय विकास मंत्री जगत सिंह नेगी, भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय के सचिव और राज्य मुख्य सचिव को सौंपे गए ज्ञापन में कहा गया है कि एफआरए एक केंद्रीय संवैधानिक कानून है, जो राज्य कानूनों पर प्राथमिकता रखता है।
किन्नौर जिला वन अधिकार संघर्ष समिति के जिया लाल नेगी ने चेतावनी दी कि यदि कानून की सुरक्षा के बावजूद दावेदारों को बेदखल किया गया तो इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकार और उसकी नोडल एजेंसी की होगी।
ज्ञापन में उल्लेख है कि एफआरए की धारा 4(5) स्पष्ट रूप से कहती है कि जब तक दावों का पूर्ण सत्यापन नहीं हो जाता, तब तक किसी भी दावेदार को बेदखल नहीं किया जा सकता। संगठनों ने यह भी याद दिलाया कि जनजातीय कार्य मंत्रालय की आधिकारिक गाइडलाइन में भी यह प्रावधान है।
हिमालय नीति अभियान के गुमान सिंह ने कहा, “कानून साफ है, सरकार को एफआरए की प्राथमिकता को अदालत में मजबूती से रखना चाहिए। अगर वह असफल रही, तो हजारों लोगों की बेदखली की जिम्मेदारी सरकार पर होगी।”
हिमधरा पर्यावरण समूह के प्रकाश भंडारी ने जोड़ा कि यह जवाबदेही केवल नैतिक नहीं बल्कि कानूनी भी है।
संगठनों ने तीन प्रमुख मांगें रखीं:
अदालत में एफआरए का बचाव — उच्च न्यायालय और आवश्यकता पड़ने पर सर्वोच्च न्यायालय में बेदखली मामलों में एफआरए की प्राथमिकता स्थापित की जाए।
बेदखली से सुरक्षा — सभी दावेदारों को तब तक बेदखली से बचाया जाए जब तक उनके दावे निपट नहीं जाते।
तेज क्रियान्वयन — सभी विभागों को बाध्यकारी निर्देश जारी किए जाएं कि वे एफआरए को उसकी सही भावना में लागू करें।
लाहौल वन अधिकार मंच के जगदीश कटोच ने कहा, “सरकार कह रही है कि FRA का क्रियान्वयन ‘फुल स्विंग’ में है, लेकिन जमीन पर दावेदार बेदखली के खतरे में हैं। जवाबदेही का असली मतलब है कि सरकार कमजोर समुदायों के अधिकारों की रक्षा करे।”
ज्ञापन को हिमलोक जाग्रति मंच, स्पीति सिविल सोसाइटी, सेव लाहौल स्पीति सोसाइटी और कई अन्य संगठनों का समर्थन मिला है।