ग्राउंड रिपोर्ट: क्यों पूजी जाती हैं राजस्थान की देवबणियां?

राजस्थान के पवित्र वन माने जाने वाले ओरणों अथवा देवबणियों को पुनर्जीवित कर आजीविका और पारिस्थितिकी से जुड़े कई लाभ हासिल किए जा रहे हैं
अलवर की चूड़सिद्ध अदावड़ देवबणी में पिछले 15 वर्षों के दौरान 3,420 पेड़ लगाए गए हैं, 3 छोटे चेकडैम का निर्माण हुआ है, 5 हेक्टेयर में घास का बीजारोपण और इतने ही क्षेत्र में ट्रेंचिंग बनाई गई हैं। पिछले एक महीने से पानी का भंडारण करने के लिए यहां चेकडैम का निर्माण किया जा रहा है
अलवर की चूड़सिद्ध अदावड़ देवबणी में पिछले 15 वर्षों के दौरान 3,420 पेड़ लगाए गए हैं, 3 छोटे चेकडैम का निर्माण हुआ है, 5 हेक्टेयर में घास का बीजारोपण और इतने ही क्षेत्र में ट्रेंचिंग बनाई गई हैं। पिछले एक महीने से पानी का भंडारण करने के लिए यहां चेकडैम का निर्माण किया जा रहा है
Published on

“यह ऐसा बौरा (देने वाला) है जो केवल देना जानता है, इसने कभी लेना नहीं सीखा।” राजस्थान के अलवर जिले के सिरावास गांव में रहने वाले 55 साल के पप्पू गिरधारी चूड़सिद्ध अदावड़ की देवबणी का महत्व एक वाक्य में कुछ इस तरह समझाते हैं।

उनके लिए गांव से दो किलोमीटर दूर यह पवित्र देवबणी देवता का स्थान होने के साथ-साथ उनकी 40 भैसों और 90 बकरियों का चारागाह भी है। पिछले 15 वर्षों से भीषण गर्मियों वाले महीनों- मई और जून को छोड़कर वह पूरे साल यहां अपने पशुओं को चराने आ रहे हैं। करीब 1,000 लोगों की आबादी वाले उनके पशुपालक गांव के लिए 150 हेक्टेयर में फैली यह देवबणी जीवनरेखा से कम नहीं है।

सिरावास गांव के 2,000 से अधिक पशु (मुख्यत भैंस और बकरियां) चारे के लिए इस देवबणी पर निर्भर हैं। राजस्थान में देवबणी अथवा ओरण वे सामुदायिक जंगल हैं जो किसी देवता के नाम पर समुदाय द्वारा संरक्षित हैं। चूड़सिद्ध ऐसे ही देवता हैं जिनके नाम पर अलवर जिले के अलग-अलग गांवों में 12 देवबणी हैं। सिरावास की देवबणी भी इनमें से एक है।

सिरावास के एक अन्य पशुपालक रामफल भी पप्पू गिरधारी की तरह पिछले 7 साल से अपनी 50-55 बकरियां देवबणी में चरा रहे हैं और इस दौरान उन्हें कभी चारे की दिक्कत नहीं आई। चारे की उपलब्धता की वजह से उन्होंने बकरियों के साथ होने वाला मौसमी पलायन बंद कर दिया है। पप्पू गिरदारी और रामफल गुर्जर समुदाय से हैं और उनकी आजीविका पूरी तरह बकरियों और भैंसों पर टिकी है।

पप्पू को भैंसों से करीब 100 लीटर दूध रोजाना प्राप्त होता है जिसे वह अलवर में बेचकर अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। दूध बेचकर उन्हें प्रतिदिन करीब 5,000-6,000 रुपए की आमदनी होती है। बकरियां पप्पू और उनके जैसे अन्य ग्रामीणों के लिए एटीएम का काम करती हैं, जो जरूरत पड़ने पर किसी भी वक्त बेची जा सकती हैं।

पप्पू मानते हैं कि देवबणी में चारे की कमी नहीं है लेकिन पानी के ठहराव की समस्या देखी जा रही है, इसलिए अब पानी को संजोने के लिए यहां एक बड़ा चेकडैम बनाया जा रहा है। यह पानी देवबणी में मौजूद गूलर के पेड़ों की जड़ों से साल भर रिसता रहता है और भंडारण की उचित व्यवस्था न होने के कारण बहकर 15 किलोमीटर दूर सिलीसेढ़ झील में चला जाता है।

इस पानी को रोकने के लिए पिछले एक महीने से देवबणी के सबसे निचले हिस्से में चेकडैम की मोटी और ऊंची दीवार का निर्माण कार्य चल रहा है। इसके निर्माण पर होने वाला खर्च पिछले तीन दशकों से ओरणों को पुनर्जीवित करने में जुटे कृषि एवं पारिस्थितिकी विकास संगठन (कृपाविस) और स्थानीय समुदाय मिलकर उठा रहे हैं।

तैयार होने के बाद यह चेकडैम लाखों लीटर पानी को देवबणी में ही रोक देगा। ग्रामीणों को उम्मीद है कि यह पानी अरावली में बसे जंगली जानवरों के साथ ही पालतू मवेशियों की प्यास बुझाने के काम आएगा, जलस्तर में वृद्धि करेगा और खेती में किसानों की भी मदद करेगा।

चेकडैम का निर्माण देवबणी में पिछले 15 वर्षों में हुए उन कार्यों का विस्तार है जिन्होंने इसे पुनर्जीवित करने में अहम भूमिका निभाई है। इन वर्षों में यहां 3,420 पेड़ लगाए गए हैं, 3 छोटे चेकडैम का निर्माण हुआ है, 5 हेक्टेयर में घास का बीजारोपण और इतने ही क्षेत्र में ट्रेंचिंग (नमी और पानी के रिचार्ज के लिए खोदे जाने वाले संकरे गड्ढे) बनाई गई हैं। लगाए गए पेड़ों में मुख्य रूप से स्थानीय प्रजाति के पेड़ जैसे खजूर, ढोक, कीकर, नीम, गूलर, शीशम, पीपल, कैर और चापुन शामिल हैं।

पप्पू गिरधारी मानते हैं कि पिछले 15 वर्षों में हुए संरक्षण के काम की बदौलत ही यह देवबणी जंगल और चारागाह में तब्दील हो पाई है। डेढ़ दशक पहले यहां न पेड़-पौधे बचे थे और न जानवरों के लिए घास थी। उस स्थिति में उन्हें अपने पशुओं को लेकर पलायन उनकी मजबूरी थी लेकिन देवबणी के पुनर्जीवित होने के बाद पलायन की अवधि सीमित हो गई है। उन्हें उम्मीद है कि चेकडैम बनने से आने वाले दिनों में पानी की उपलब्धता साल भर बनी रहेगी। इससे उनके जैसे सैकड़ों पशुपालकों को लाभ मिलेगा।

चूड़सिद्ध अदावड़ देवबणी चारे के अलावा वनोपज के रूप में भी समुदाय की आजीविका मजबूत कर रही है। यहां मिलने वाले खजूर के पेड़ से फल के अलावा झाडू बनाने के लिए पत्ते समुदाय को मिल रहे हैं। कैर और बेर भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। जैव विविधता से भरपूर इस देवबणी में मोर, पहाड़ी चिड़िया, कबूतर और इंडियन रॉबिन बड़ी संख्या में हैं। इसके छोटे-छोटे गड्ढों में हर वक्त भरा रहने वाला पानी आसपास के किसान सिंचाई में उपयोग कर रहे हैं। कुछ किसान तो आधे से एक किलोमीटर दूर तक पानी को पाइप के माध्यम से ले जा रहे हैं।

 कालीखोल गांव की देवबणी को संरक्षित करने वाली महिला मंडल की सदस्य
कालीखोल गांव की देवबणी को संरक्षित करने वाली महिला मंडल की सदस्य

सिरावास की देवबणी सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक केंद्र भी है, जहां गांव की बैठकें, मेले और अन्य सामाजिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। अप्रैल में लगने वाला मेला हजारों लोगों को आकर्षित करता है। समुदाय और धार्मिक कार्यक्रमों में यहां आने वाले लोग अनाज, आर्थिक और श्रमदान के रूप में मासिक व वार्षिक योगदान देते हैं, जिससे देवबणी के संरक्षक यानी मंदिर के पुजारी की आजीविका चलती है और उसका रखरखाव होता है।

देवस्थान होने के कारण यहां पेड़ों को काटने की सख्त मनाही है। देवबणी के मंदिर में दिन-रात रहकर उस पर नजर रखने वाले पुजारी हरिओम दास डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि 12-15 गांवों की आस्था इस देवबणी से जुड़ी हुई है और इसी आस्था ने इसे पुनर्जीवित और बचाए रखने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है।

अलवर जिले की कुछ देवबणियों में ही ऐसी व्यवस्थाएं है जो इन्हें बचाए रखने में बेहद कारगर सिद्ध हो रही हैं। उदाहरण के लिए रोगड़ा गांव की करीब 88 हेक्टेयर में फैली देवनारायण देवबणी को भी ग्रामीणों द्वारा बनाई गई समिति प्रबंधित करती है। रोगड़ा निवासी व समिति के सदस्य शीशराम गुर्जर डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि ओरण समिति गांव से चंदा इकट्ठा करती है। इसके अलावा यहां होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में दानदाता दिल खोलकर देवनारायण मंदिर और देवबणी के लिए दान देते हैं। समिति हर महीने होने वाली बैठक में तय करती है कि मंदिर और देवबणी के लिए आए पैसों को कहां खर्च करना है। समिति हर बैठक में खर्च का हिसाब भी देती है।

देवनारायण देवबणी में भी पानी को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए चेकडैम जैसी संरचना बनाई जा रही है। यह संरचना यहां पहले से बनाए गए एक बड़े तालाब के ओवरफ्लो पानी को रोकने में मददगार साबित होगी। पानी रोकने के लिए यहां एक बड़े तालाब को गहरा करने के अलावा 2 चेकडैम और पक्षियों के लिए चुग्गास्थल का भी निर्माण हुआ है। साथ ही, पिछले 15 वर्षों के दौरान स्थानीय प्रजाति के करीब 4,000 पेड़ लगाए गए हैं।

अलवर जिले की एक अन्य 175 हेक्टेयर में फैली कालीखोल गांव की चूड़सिद्ध देवबणी को भी इसी तरह संरक्षित किया गया है। गांव की लक्ष्मी महिला मंडल की अध्यक्ष 55 साल की चम्मो देवी डाउन टू अर्थ को बताती हैं कि हाल ही में गांव की 20 महिलाओं ने एक महीने तक श्रमदान करके नया जोहड़ा (तालाब) भी बनाया है। यह पशुओं के काम आएगा और पूरा भरने पर इसमें 8-9 महीने तक पानी रुकेगा। इससे फसलों के साथ जलस्तर में सुधार होगा।

चम्मो देवी बताती हैं कि गांव की अलग-अलग ढाणियों में कुल तीन महिला मंडल हैं जो देवबणी को संरक्षित और प्रबंधित कर रहे हैं। हर महीने की 10 तारीख को होने वाली महिला मंडल की बैठक में निर्णय लिया जाता है कि देवबणी में जल संरक्षण के क्या काम करने हैं और कहां पौधारोपण की जरूरत है। अक्टूबर से मार्च के बीच छह महीने तक उन्हें देवबणी से पशुओं के लिए चारा मिलता है। कालीखोल गांव के अधिकांश किसान छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं। खेती के साथ-साथ उनकी आजीविका मुख्यत: पशुपालन पर आश्रित है।

चरणबद्ध पुनर्जीवन

कृपाविस ने देवबणियों के पुनरोद्धार के लिए तीन चरणों वाला एक मॉडल विकसित किया है। पहले चरण में जागरुकता एवं सूक्ष्म नियोजन तैयार होता है। इसमें ओरण या देवबणी वाले वालों में संपर्क कर नियमित बैठकें आयोजित होती हैं। संगठन द्वारा तैयार आठ पृष्ठ के फार्म में ग्रामीणों से करीब 40 सवाल पूछकर सर्वेक्षण किया जाता है। इसमें ओरणों के संरक्षण और प्रबंधन हेतु जागरुकता और ग्रामीणों को संगठित करने का प्रयास किया जाता है। इसके बाद ग्रामीणों को चार दिवसीय प्रशिक्षण दिया जाता है जिसमें संरक्षण की सूक्ष्म योजना बनती है।

दूसरे चरण में देवबणी में भू संरक्षण जैसे मिट्टी का कटाव रोकने व नमी बनाने के लिए टक, चेकडैम, ट्रेंचिंग, कंटूर आदि का निर्माण शुरू होता है। इसके साथ-साथ देवबणी के पारंपरिक जल स्रोतों जैसे तालाब, बावड़ी, जोहड़, कुंड, झरना, कुइया, नाड़ी आदि को पुनर्जीवित करने तथा नई संरचना के निर्माण का कार्य चलता है। इसी चरण में वृक्षारोपण, बीजारोपण व स्थानीय प्रजातियों के पौधों की नर्सरी तैयार होती है। साथ ही साथ देवबणी की सुरक्षा हेतु घेराबंदी, गार्ड की व्यवस्था, बेहतर प्रबंधन के लिए ओरण समिति, महिला मंडल या ग्राम स्तरीय संगठन का गठन होता है।

तीसरे व अंतिम चरण में देवबणियों या ओरणों पर समाज तथा पंचायतों का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए नेटवर्किंग गतिविधियां होती हैं। इनमें पंचायत की बैठक कर लोगों को ओरण संरक्षण को कार्यों में भागीदारी बनाना, दूसरे गांव या समुदाय के साथ बैठक व कार्याशाला का आयोजन, स्वैच्छिक व संबंधित सरकारी संस्थानों के साथ संपर्क व समन्वय, नीति निर्धारकों, योजनाकारों प्रशासन व राजनेताओं के साथ बैठक का आयोजन मुख्य रूप से शामिल हैं।

कृपाविस के संस्थापक अमन सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि स्थानीय समुदाय के साथ होने वाली बैठकों में ओरणों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि समझने में मदद मिलती है और इन्हें पुनर्जीवित करने में स्थानीय ज्ञान काफी मददगार साबित होता है। वह आगे बताते हैं कि हम इसमें वैज्ञानिक और तकनीक कौशलता को इसमें जोड़ देते हैं। अमन सिंह के संगठन से राजस्थान के अलग-अलग जिलों में करीब 200 ओरणों को अब तक पुनर्जीवित किया है।

रोगड़ा गांव की करीब 88 हेक्टेयर में फैली देवनारायण देवबणी को ग्रामीणों द्वारा बनाई गई समिति प्रबंधित करती है। यहां होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में दानदाता दिल खोलकर देवनारायण मंदिर और देवबणी के लिए दान देते हैं, जिससे इसके प्रबंधन में मदद मिलती है
रोगड़ा गांव की करीब 88 हेक्टेयर में फैली देवनारायण देवबणी को ग्रामीणों द्वारा बनाई गई समिति प्रबंधित करती है। यहां होने वाले धार्मिक अनुष्ठानों में दानदाता दिल खोलकर देवनारायण मंदिर और देवबणी के लिए दान देते हैं, जिससे इसके प्रबंधन में मदद मिलती है

बदहाली का दौर

अमन सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने दिसंबर 2024 में ऐतिहासिक निर्णय देते हुए ओरणों को सामुदायिक वन मानते हुए उन्हें संरक्षित करने का आदेश दिया था। याचिकाकर्ता और तीन दशकों से ओरणों के संरक्षण में जुटे अमन सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि पचास के दशक से पहले ओरणों की हालत ठीक थी। लेकिन इसके बाद आई प्रगतिशील नीतियों से तथाकथित भूमि सुधार का बहुत सा काम शुरू हुआ। उसके बाद बहुत सी समस्याएं ओरणों में दिखाई देने लगीं, जैसे समुदाय द्वारा संरक्षित इन जंगलों को नई श्रेणी में डाल दिया, जिसे राजस्व श्रेणी कहते हैं। इस श्रेणी में जाने का मतलब है राजस्व विभाग की संपत्ति होना। इसका यह भी मतलब है कि राजस्व विभाग जब और जिस उद्देश्य से चाहेगा, उसे अलॉट कर देगा। इसी कारण ओरण की बहुत-सी जमीनें कृषि, खनन, फैक्ट्री, सड़क आदि विकास गतिविधियों के लिए अलॉट की जाने लगीं। बहुत सी जमीनें सौर व पवन ऊर्जा की परियोजनाओं को भी दी गई। इससे ओरणों पर एक साथ कई तरह के हमले शुरू हो गए। हाल में बने दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेस के लिए बहुत सी देवबणियों का नष्ट होना इसका ताजा उदाहरण है। अमन सिंह ने अपने सर्वेक्षण के दौरान पाया कि बहुत से लोगों ने नजदीकी देवबणियों में बोरवेल कर लिए हैं क्योंकि उनके खेतों में पानी के स्रोत सूख गए थे। यह भी एक तरह का अतिक्रमण ही है। तेजी से ओरणों पर बढ़ते संकट को देखते हुए सामुदायिक सहयोग से इन्हें संरक्षित करने की जरूरत महसूस हुई। यह लोगों की सहभागिता और उनमें आत्मविश्वास लाए बिना संभव नहीं था।

राजस्थान में करीब 25,000 ओरण हैं और 6 लाख हेक्टेयर क्षेत्र इनके दायरे में है। अमन सिंह साफ तौर पर मानते हैं कि कृपाविस जैसी संस्था द्वारा सभी ओरणों को संरक्षित करने में शताब्दियां लगेंगी। इसलिए यह काम पॉलिसी स्तर पर बदलाव से ही संभव है। संरक्षण और पॉलिसी में बदलाव की बात को मजबूती से रखने के लिए डॉक्युमेंटेशन जरूरी है। इसके लिए समानांतर रूप से ओरणों की जीआईएस मैपिंग का काम चला। पटवारियों से देवबणियों के खसरा नंबर हासिल कर लोगों की मदद से नक्शे बनवाए गए। सर्वे और नक्शे के काम के दौरान ओरणों पर कई तरह के अतिक्रमण पता चले। अमन सिंह के मुताबिक, सर्वे से ओरणों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ ही उनमें पाई जाने वाली जैव विविधता की जानकारी जुटाई जाती है। फिर यह समुदाय के साथ होने वाली बैठकों में साझा की जाती है। इसके बाद ही उनके सहयोग से संरक्षण के लिए दखल शुरू होता है। संरक्षण के लिए ऊपर से नीचे की ओर वाली वाटरशेड अवधारणा अपनाई जाती है।

पॉलिसी स्तर में बदलाव के प्रयासों का नतीजा यह निकला कि जब 2010 में राजस्थान में पहली वन नीति बनी, तब वन विभाग को देवबणियों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। जब अमन सिंह ने अधिकारियों से बातचीत की और अपनी चिंताओं से अवगत कराया तो उन्होंने एक अलग खंड नीति में रखा। लेकिन 2020 में बनी वन नीति में ओरणों वाला खंड हटा दिया गया। वह आगे कहते हैं कि हमने सरकार की मंशा पर सवाल उठाते और ओरणों को डीम्ड फॉरेस्ट में लाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया। न्यायालय ने हमारी मांगों को सही मानते हुए ओरणों के संरक्षण के लिए ऐतिहासिक निर्णय दिया।

अमन सिंह के अनुसार, “राजस्थान के ओरण समुदाय की आजीविका पर महत्वपूर्ण योगदान देते हैं, साथ ही पारिस्थितिक तंत्र सेवा प्रदाता भी हैं, इसलिए बिना देरी किए इन पर ध्यान देने की जरूरत है।”

(यह स्टोरी प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स मीडिया फेलोशिप 2024 के तहत प्रकाशित की गई है)

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in