पहली बार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के वैज्ञानिकों ने इन आधुनिक किस्मों के गेहूं और चावल के पोषण मूल्य को जांचा है। इसके परिणाम बेहद चौंकाने वाले हैं। इस अध्ययन के आधार पर डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका की फरवरी 2024 अंक की आवरण कथा तैयार की गई। इसे किस्तवार यहां प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा: अनाज से गायब हुए पोषक तत्व, अब शरीर को पहुंचा रहे हैं नुकसान । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, क्या हरित क्रांति ने भारत की पोषण सुरक्षा को कमजोर किया, कौन से खनिज की मात्रा हुई कम । आज पढ़ें अगली कड़ी :
हरित क्रांति का लक्ष्य था एक तेजी से बढ़ती आबादी (1961 में 43.9 करोड़, जो सिर्फ 10 साल में 21 प्रतिशत बढ़ी थी) को खाना खिलाना और देश को अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनाना। उस समय बार-बार अकाल और अनाज की कमी के संकट से दो-चार होना पड़ता था। भूख आम थी। इसलिए कृषि वैज्ञानिकों का मुख्य ध्यान पैदावार बढ़ाने पर था। जैसा कि देबनाथ बताते हैं कि पोषण की कमी के बारे में सोचने की स्थिति ही नहीं थी। 1980 के दशक के बाद ही देश ने पोषण की कमी पर पहली आधिकारिक रिपोर्ट जारी की।
हरित क्रांति से पहले भारत में उगाई जाने वाली पारंपरिक चावल और गेहूं की किस्मों (जिन्हें देसी किस्म भी कहते हैं) में कई महत्वपूर्ण गुण थे। किसानों के चयन के कारण विकसित ये किस्में न सिर्फ स्थानीय वातावरण के लिए अनुकूल थीं, बल्कि उनमें पोषण भी भरपूर होता था। हरित क्रांति के दौरान इन देसी किस्मों का इस्तेमाल नई किस्में बनाने के लिए किया गया। उच्च पैदावार वाली किस्मों से ली गई जीनों को इनमें डालकर अनाज में प्रकाश संश्लेषण से बने पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ाने की कोशिश की गई, जिससे अनाज और पैदावार बेहतर होता।
राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान की वैज्ञानिक रुबीना खानम कहती हैं कि अनाज तक पौधों से पर्याप्त पोषण (प्रकाश संश्लेषण से बने पोषक तत्व) पहुंचा, लेकिन जरूरी नहीं था कि खनिज और अन्य पोषक तत्व भी उसी अनुपात में पहुचें। इस तरह धीरे-धीरे अनाज ने ज्यादा पोषण लेने का गुण खो दिया। देसी किस्मों को तेजी से दूसरी किस्मों के साथ मिलाने से मूल किस्में प्रजनन प्रक्रिया से बाहर हो गईं और देश के लक्ष्य पर ध्यान देते हुए धीरे-धीरे उनमें मौजूद उपयोगी जीन भी कम हो गए।
बिधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर बिस्वपति मंडल कहते हैं कि 80 के दशक के बाद, कृषि वैज्ञानिकों का ध्यान ऐसी किस्में बनाने पर चला गया जो कीटों, बीमारियों का सामना कर सकें और खारे पानी, कम नमी और सूखे जैसी चुनौतियों को झेल सकें। वह आगे बताते हैं कि उनके पास यह सोचने का समय नहीं था कि पौधे पोषक तत्व ले रहे हैं या नहीं। चावल की विभिन्न किस्मों पर काम करने वाली खानम कहती हैं कि हमने मात्रा तो बढ़ाई, लेकिन गुणवत्ता खो दी।
वह हरित क्रांति के एक और नकारात्मक प्रभाव को उजागर करती हैं। आधुनिक प्रजनन कार्यक्रमों में लगातार जेनेटिक बदलावों के कारण, पौधों ने जहरीले तत्वों के खिलाफ अपने प्राकृतिक रक्षा तंत्र को भी खो दिया है। खानम बताती हैं कि पौधे अच्छे और बुरे दोनों तरह के खनिज तत्वों को एक ही रास्ते से अवशोषित करते हैं। इसलिए जहरीले तत्वों का तने तक पहुंचना बिल्कुल सामान्य है। लेकिन चावल एक बुद्धिमान पौधा है। इसलिए यह अपनी अनुवांशिक क्षमता का इस्तेमाल उन तत्वों को रोकने के लिए करता है जो पौधे या मनुष्यों के लिए अच्छे नहीं हैं और उन्हें दाना तक पहुंचने नहीं देता।
उदाहरण के लिए, आर्सेनिक पौधे के लिए ज्यादा हानिकारक नहीं है, लेकिन मनुष्यों के लिए बहुत हानिकारक है। इसलिए, जब मिट्टी में आर्सेनिक की मात्रा अधिक होती है, तो चावल का पौधा उस तत्व को ग्रहण करने की ट्रांसपोर्टर की क्षमता को स्वचालित रूप से बंद कर देगा। या यह जहरीली धातु को पौधे के किसी बिना इस्तेमाल के हिस्से में, जैसे रिक्तिका में, जमा करने के लिए एक और तंत्र का उपयोग करेगा। यह पौधे का प्राकृतिक तंत्र अब कमजोर हो गया है।
अब अनाज की पैदावार बढ़ाने के लिए पौधे कुछ खास पोषक तत्वों को बहुत ज्यादा मात्रा में ले रहे हैं। उसी रास्ते से हानिकारक तत्व भी पौधे के तने तक अधिक मात्रा में पहुंच जाते हैं। खानम कहती हैं कि चावल की अच्छी किस्मों में मौजूद हानिकारक तत्वों को रोकने की खास क्षमता अब कम हो गई है।
यह भी एक कारण है कि गेहूं की तुलना में चावल में जहरीले तत्वों का जमाव अधिक होता है। उदाहरण के लिए, 1960 के दशक में जारी गेहूं की किस्मों में यह मात्रा 0.032 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम थी, जो 2010 के दशक में 0.015 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम (53 प्रतिशत कमी) तक कम हो गई है। गेहूं में सीसा और क्रोमियम की मात्रा में भी गिरावट देखी गई है।
वैज्ञानिक चावल और गेहूं की खेती के अलग-अलग तरीकों को जहरीले तत्वों के अधिक जमाव का एक संभावित कारण मानते हैं। चावल को पानी में डूबे हुए क्षेत्रों में उगाया जाता है। जब मिट्टी पानी में डूब जाती है, तो एक अवायवीय (एनारोबिक) स्थिति बन जाती है, जिसका अर्थ है कि हवा मिट्टी तक नहीं पहुंच पाती है। इस स्थिति में भारी धातु रासायनिक परिवर्तन से गुजरते हैं और अधिक घुलनशील रूप ले लेते हैं, जिससे वे पौधों के लिए आसानी से ग्रहण करने योग्य बन जाते हैं। और जड़ें इन हानिकारक तत्वों और पोषक तत्वों में अंतर नहीं कर पाती हैं।
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में यही स्थिति
भारत इकलौता देश नहीं है जहां फसलों में पोषण कम होने का पैटर्न दिखता है। दूसरे देशों के वैज्ञानिकों ने भी यही बताया है कि जब से नई ज्यादा पैदावार वाली किस्में आई हैं, तब से अनाज में पोषक तत्वों की मात्रा कम हो रही है।
ऐसा ही एक अध्ययन यूके के रोथैमस्टेड रिसर्च के मिंग-शेंग फैन ने किया था। उन्होंने दुनिया के सबसे पुराने लगातार चलने वाले कृषि प्रयोग, ब्रॉडबाल्क व्हीट एक्सपेरिमेंट के गेहूं के दानों और मिट्टी के नमूनों का परीक्षण किया। ब्रॉडबाल्क व्हीट एक्सपेरिमेंट 1843 में शुरू हुआ था। रिसर्चरों ने 8 अलग-अलग खेतों के नमूनों को लिया। उन्हें 1960 के दशक से ही गेहूं के दानों में जिंक, तांबा, लोहा और मैग्नीशियम की मात्रा में लगातार कमी दिखी।
वैज्ञानिकों ने 2008 में जर्नल ऑफ ट्रेस एलिमेंट्स इन मेडिसिन एंड बायोलॉजी में लिखा कि 1845 से 1960 के दशक के मध्य तक इन तत्वों की मात्रा स्थिर थी, लेकिन उसके बाद ज्यादा पैदावार वाली छोटी किस्में आने के साथ तेजी से 20-30 प्रतिशत तक कम हो गई। हालांकि, मिट्टी में इन तत्वों की मात्रा बढ़ी है या स्थिर रही है। इस अध्ययन ने दिखाया कि हरित क्रांति ने अनचाहे में गेहूं के दानों में खनिज तत्वों की मात्रा कम कर दी है।
देबनाथ के 2021 के अध्ययन से पता चला है कि पिछले चार दशकों में दुनिया की बड़ी आबादी में आयरन और जिंक की कमी देखी गई है। यह समय ठीक उसी दौर से मेल खाता है जब हरित क्रांति के बाद ज्यादा पैदावार देने वाले अनाजों को दुनिया भर में फैलाया गया। 2006 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने दिखाया कि 100 सालों में गेहूं की 14 किस्मों के विकास के दौरान अनाज में आयरन और जिंक की मात्रा काफी कम हो गई। यह अध्ययन 2006 में जर्नल ऑफ द साइंस ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर में प्रकाशित हुआ था।
2015 में ईरान के रिसर्चरों ने पाया कि 70 सालों के दौरान जब ज्यादा पैदावार वाली किस्में आईं तो पैदावार में ज्यादा सुधार नहीं हुआ, लेकिन अनाज में प्रोटीन, आयरन और जिंक की मात्रा बहुत कम हो गई। उनका अध्ययन यूरोपियन जर्नल ऑफ एग्रोइकॉनमी में प्रकाशित हुआ।
उसमें कहा गया है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वैज्ञानिक ज्यादा पैदावार पर तो ध्यान देते थे, लेकिन फसल की गुणवत्ता, खासकर प्रोटीन, आयरन और जिंक की मात्रा पर ध्यान नहीं देते थे। यह अध्ययन बताता है कि नई किस्मों की ज्यादा पैदावार के कारण भी पोषक तत्वों की मात्रा कम हो सकती है, जिसके पीछे पर्यावरण और आनुवंशिक दोनों कारण हो सकते हैं।
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