टेढ़े-मेढ़े व बदसूरत फल और सब्जियां: किचन से कूड़े तक का सफर

अपने आकार और रंग के कारण दरकिनार कर दिया जाने वाला भोजन पोषण की कमी को दूर करने का अहम जरिया बन सकता है
गाजीपुर सब्जी मंे रंजीत नीबू की दुकान लगाते हैं। उनके दागी नीबू अचार वाले सस्ते में ले जाते हैं
गाजीपुर सब्जी मंे रंजीत नीबू की दुकान लगाते हैं। उनके दागी नीबू अचार वाले सस्ते में ले जाते हैं सभी फोटो: विकास चौधरी
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पोषण से भरपूर होने के बावजूद टेढ़े-मेढ़े व बेडौल दिखने वाले फल और सब्जियां अक्सर किचन के बजाय कूड़े के ढेर में जगह पाते हैं। दुख तो तब होता है जब भुखमरी से जूझ रहे गरीबों का पेट भरने और कुपोषण दूर करने में मदद करने की जगह वो बर्बाद हो जाती हैं।

खाद्य और कृषि संगठन का अनुमान है कि दुनिया में उत्पादित भोजन का लगभग एक तिहाई हिस्सा ऐसे ही बर्बाद हो जाता है। विकसित देशों में भोजन की बर्बादी अधिक होती है। विकसित देशों में 680 बिलियन अमेरिकी डॉलर जबकि विकासशील देशों में 310 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर भोजन की बर्बादी होती है। इनमें लगभग 30 प्रतिशत अनाज, 40-50 प्रतिशत जड़ वाली फसलें, फल और सब्जियां, 20 प्रतिशत तिलहन, मांस और डेयरी तथा 35 प्रतिशत मछली शामिल हैं।

अनुमान है कि भारत में उत्पादित भोजन का 40 प्रतिशत हिस्सा बर्बाद हो जाता है। उसी तरह अपसाइकल्ड फूड एसोसिएशन के अनुसार, अमेरिका में हर साल 35 मिलियन टन से अधिक भोजन बर्बाद होता है। यह उसके खाद्य उत्पादन का 40 प्रतिशत है। इससे उसकी अर्थव्यवस्था को 200 बिलियन डॉलर से अधिक का नुकसान होता है।

पिछले कुछ सालों में इस बर्बादी को गंभीरता से लिया गया है और अब इन्हें खाना एक ट्रेंड बनता जा रहा है। मसलन, पोर्टलैंड, ओरेगन में स्थित रेस्तरां साल्ट एंड स्ट्रॉ में न्यूयॉर्क में दही बनाने वाली कंपनी के बचे हुए दही का उपयोग करके लेमन फ्लेवर कर्ड बनाया जाता है। साथ ही चॉकलेट बार्ली मिल्क में बीयर से बचे हुए अनाज को मिलाया जाता है।

भोजन की बर्बादी रोकने का यह आंदोलन केवल किसान बाजार या रिसाइकिल बाजार तक सीमित नहीं है। सैन फ्रांसिस्को में पिज्जा और वाइन परोसने वाले एक रेस्तरां में बदरंग मशरूम, विकृत मिर्च और रंगहीन टमाटर पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। साथ ही कुछ पसंदीदा खाद्य पदार्थों के लिए मांस के बचे-खुचे हुए टुकड़े भी इस्तेमाल किए जाते हैं।

साल 2016 प्रकाशित किताब “अग्ली फूड्स: ओवरलुक्ड एंड अंडरकुक्ड” में बताया गया था कि किस तरह हम अच्छे और पौष्टिक खाने को छोड़कर बेकार खाने की तरफ चले जाते हैं। मांसाहारी खाद्य पदार्थों के मामले में छोटे जानवर जैसे खरगोश, गिलहरी, ऑक्टोपस, लीवर आदि आंतरिक अंग, गाल और पैर आहार से गायब हो गए हैं। लेखक बताते हैं कि ये खाद्य पदार्थ पोषण से भरपूर, स्वादिष्ट और सस्ते हैं। लेकिन अमूमन ये खाद्य पदार्थ बाजार में उपलब्ध नहीं होते हैं क्योंकि उन्हें करीने से पैक नहीं किया जा सकता। उसकी जगह करीने से पैक किए गए प्रसंस्कृत मांस ही ज्यादा आसानी से मिलते हैं। ये तो पक्का है कि सुपरमार्केट में उस भद्दे भेड़ के सिर के लिए कोई जगह नहीं है जिसके लिए किताब के लेखक रिचर्ड हॉर्सी और टिम व्हार्टन एक सरल रेसिपी साझा की हैं। यह रेसिपी स्कैंडिनेविया में लोकप्रिय थी पर क्योंकि इसे तैयार करने में समय लगता है, इसलिए ये अब कम ही बनाई जाती है। नुस्खे के मुताबिक, साफ किए गए सिर को कई दिनों तक नमक लगाकर रखा जाता और फिर डेढ़ घंटे तक पकाया जाता है।

भारत में टेढ़े-मेढ़े और बेडौल दिखने वाले भोजन से दूरी केवल अमीरों का हिकारत भाव माना जा सकता है। क्योंकि सब्जी मंडियों में तो सब कुछ बिक जाता है। दिल्ली की ओखला मंडी के बाहर सजे फलों के बीच कुछ दागी और बदसूरत से सेब और बब्बूगोशे बेचने वाले से जब पूछा गया कि इन्हें खरीदेगा कौन तो उसने तपाक से जवाब दिया, “क्या गरीब लोग मर गए हैं।” जो सुंदर सेब 150 रुपए किलो बिक रहा था, वही धब्बेदार सेब 100 रुपए का था। उसी तरह, मंडी के सुढौल टमाटर 40 रुपए किलो का था और कुछ कच्चे पक्के और छोटे टमाटर 20 रुपए किलो में ही मिल रहे थे। शाम को इन्हें गृहणियां फुर्ती से खरीद लेती हैं।

ओखला मंडी में सब्जी बेच रहे यशबीर ने बताया कि बदरंग सब्जी या फल बर्बाद नहीं होता। टूटी फूटी और दबी हुई सब्जियां भी काम आ ही जाती हैं। इन्हें ढाबे वाले ले जाते हैं या गरीब तबका ले लेता है। एक अन्य सब्जी विक्रेता शफीक ने बताया कि दागी नींबू गन्ने के रस वाले खरीद लेते हैं। वहीं मुकीम ने बताया कि थोड़े ज्यादा पके टमाटर मोमो वाले चटनी के लिए लेते हैं। बिल्कुल खराब हुई सब्जी तो गाय-भैंस वाले ऐसे ही ले जाते हैं।

सिर्फ बेडौल खाने पर ही बात नहीं रुक जाती। पहले जमाने में खरबूज और तरबूज के बीज बहुत सहेज कर रखे जाते थे और उन्हें गरिष्ठ खाने की तरह खाया जाता था। ऐसी ही खाने की बर्बादी मीट मच्छली में भी देखी जाती है। जैसे सुअर के पांव और मुर्गी के पंजे केवल कुछ ही लोग खाते हैं, वैसे ही कलेजी के भी ग्राहक कम होते हैं। ये पारंपरिक खाना हमारी थाली से गायब है और उसकी जगह ओद्यौगिक खाना ही ज्यादा लोकप्रिय हो गया है।

गाजीपुर मंडी में राकेश की दुकान से गोशाला वाले दागी लौकी और टेढ़े-मेढ़े खीरे ले जाते हैं
गाजीपुर मंडी में राकेश की दुकान से गोशाला वाले दागी लौकी और टेढ़े-मेढ़े खीरे ले जाते हैं

औद्योगिक भोजन का व्यापार

उद्योग का भोजन को लक्ष्य बनाने का कारण यह है कि उनकी कीमत आसानी से बढ़ाई जा सकती है। नमक, चीनी और वसा युक्त भोजन नशे की लत के समान है और इनसे लाभ कमाना आसान है। एक बार इनका आदि हो जाने के बाद लोग अपनी-अपनी पसंद भूल जाते हैं। वे पौष्टिक, घर के बने खाने की जगह जंक फूड को प्राथमिकता देते हैं। इनके सेवन से दो दशकों के भीतर बीमारियों में बड़ा उछाल आया है। भोजन स्वास्थ्य के सबसे बड़े निर्धारकों में से एक है। यह हमारे शरीर को चलाने के लिए आवश्यक बुनियादी पोषक तत्व प्रदान कर सकता है या सिर्फ खाली कैलोरी का स्रोत हो सकता है।

पोषण विशेषज्ञ संगीता खन्ना बताती हैं कि दिल्ली की मंडी में पहले से ही छांटी हुई सब्जी और फल आते हैं जिससे यहां बेडौल सब्जी कम देखी जाती हैं। वह बताती हैं कि ऐसी सब्जियों को छीलने और काटने में ज्यादा समय लगता है और न ही इनको अपनी पसंद के मुताबिक काटा जा सकता है। इस कारणा ये शेफों के बीच लोकप्रिय नहीं होतीं। संगीता शेफों को प्रशिक्षित कर रही हैं कि किस तरह से बेडौल सब्जियों और फलों का उपयोग अलग तरह की रेसिपी के लिए करना चाहिए।

संगीता कोशिश करती हैं कि शेफों की ट्रेनिंग में इस तरह की छंटी हुई बेडौल या टेढ़ी-मेढ़ी सब्जियों और फलों के बारे में जागरुकता लाई जाए और खाद्यान्नों की बर्बादी न हो। जैसे सेब की चटनी बनाने के लिए जरूरी नहीं कि सुंदर से सेब को लिया जाए। इस काम के लिए छोटे और धब्बेदार सेब का भी इस्तमाल किया जा सकता है। वह कहती हैं कि बस इतना जरूरी है कि शेफ को तरह-तरह की डिश की रेसिपी का ज्ञान हो।

भोजन की विविधता में कमी

विकसित देशों की तरह हमारी खाने की भी विविधता कम हो रही है। भारत में आदिवासियों का खाना यह संकेत भी देता है। “वुडस्मोक एंड लीफकप्स: ऑटोबायोग्राफिकल फुटनोट्स टू द एंथ्रोपोलॉजी ऑफ द दुर्वा” पुस्तक में मधु रामनाथ ने बस्तर के लोगों के खाने के तरीके का वर्णन किया है। क्षेत्र के आदिवासी नियमित रूप से मॉनिटर छिपकलियों, बंदरों, हिरणों, चूहों, सिवेट, साही और खरगोश का शिकार करते हैं। बंदर और सांप का मांस कुछ घरों में नियमित रूप से खाया जाता है। आदिवासियों को सर्दियों में सिवेट या बंदर का मांस स्मोक या सुखाए जाने पर स्वादिष्ट लगता है। अग्ली फूड्स में वर्णित जानवरों के सिर भी आदिवासी संस्कृति में एक विशेष स्थान रखते हैं। गांव के मंदिर में चढ़ाए जाने वाले सभी जानवरों के सिर देवता से जुड़े कबीले के सदस्य के लिए आरक्षित होते हैं।

इसी तरह आदिवासी लाल चींटियों से बनी चटनी भी खाते हैं। चींटियों में एस्कॉर्बिक एसिड की मात्रा अधिक होती है और इनका स्वाद खट्टा और तीखा होता है। सर्दी-जुकाम या शरीर में विटामिन सी बढ़ाने के लिए इन्हें खाने की सलाह दी जाती है। हरी सब्जियों को हल्का पकाकर इन चींटियों और चावल के पेस्ट की ग्रेवी में मिलाया जा सकता है। लाल मिर्च और इमली के साथ चींटियां एक अनोखा स्वाद देती हैं। मुख्यधारा से इतर खाद्य पदार्थों पर जीवित रहने की यह क्षमता केवल दुर्वा तक ही सीमित नहीं है। बिहार में मुसहर समुदाय अपने खेतों में चूहों पर निर्भर है, ताकि उन्हें मांस मिल सके। अरुणाचल प्रदेश में रिवरबेड बीटल को प्याज, लहसुन, मिर्च और नमक के साथ पीसकर चावल के साथ खाया जाता है। स्थानीय लोग इन्हें सर्दियों में खाते हैं। असम में इरी सिल्क वॉर्म को बड़े चाव से खाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, दुनियाभर में 1,900 से अधिक कीटों की पहचान मानव भोजन के रूप में की गई है। कीड़ों को अब भविष्य के लिए प्रोटीन के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है।

विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों का उपयोग करना और किसी जानवर या पौधे के सभी भागों का सेवन करना भोजन की बर्बादी को कम करने का एक निश्चित तरीका है। किसी जानवर के सभी अंगों को खाया जा सकता है या किसी सब्जी की बनावट उसके स्वाद में कोई इजाफा नहीं करती, यह ज्ञान धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।

जैसे-जैसे हम जैव विविधता खोते जा रहे हैं, हम इन खाद्य पदार्थों को हमेशा के लिए खो देंगे। अग्ली फूड के लेखकों का सुझाव है कि हमें उन खाद्य पदार्थों को महत्व देना चाहिए जो हमारे लिए अच्छे हैं। हॉर्सी और व्हार्टन का सुझाव है कि आकार के बजाय, सुपरमार्केट को उन फलों और सब्जियों को फेंक देना चाहिए जिन्हें बहुत पहले काटा गया है और फिर रसायनों में पकाया गया है। लेकिन तथ्य यह है कि व्यवहार में ऐसा नहीं होता।

भारत के उन गलतियों को दोहराने का वक्त नहीं है जो विकसित दुनिया ने की हैं। हमारी ग्रामीण आबादी अभी भी अच्छा खाना खाती है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इन खाद्य पदार्थों का उपयोग जारी रहे। अमीर लोग पहले से ही जैविक भोजन ही होड़ में शामिल हो चुके हैं। उनके लिए रास्ता बदलना संभव हो सकता है। मध्यम वर्ग के पास भी अवसर है कि वह स्थानीय ज्ञान के सहारे खुद को खराब भोजन से बचाए।

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