आहार संस्कृति: बेमिसाल है यह दाल

कुल्थी की दाल की तासीर ठंडी व गर्म होती है, गुर्दे पथरी के इलाज में इसका इस्तेमाल काफी लोकप्रिय है
गढ़वाल के लोग कुल्थी की दाल से कई प्रकार के व्यंजन बनाते हैं। इससे स्वादिष्ट चटनी भी बनाई जाती है
गढ़वाल के लोग कुल्थी की दाल से कई प्रकार के व्यंजन बनाते हैं। इससे स्वादिष्ट चटनी भी बनाई जाती है
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उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले से मेरे बचपन का दोस्त मुझसे मिलने भोपाल आया तो वह मेरे गहत यानी कुल्थी की दाल लेकर आया। यह दाल मुझे बचपन में बेहद पसंद थी। वैज्ञानिक भाषा में मैक्रोटिलोमा यूनिफ्लोरम कहलाई जाने वाली ये दाल हिमाचल प्रदेश में कुल्थी, तमिलनाडु में कोल्लु, आंध्र प्रदेश में उलवलु और कर्नाटक में हरुलि नाम से जानी जाती है। यह दाल पौष्टिक गुणों का खजाना मानी जाती है। लेकिन हाल-फिलहाल में लाल, भूरे और मटमैले रंग के चित्ते वाली यह चपटी बीजाकार दाल अब लोगों की पसंद वाली सूची से बाहर हो गई है, खासतौर से शहरी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए। इसके पीछे यह कारण हो सकता है कि पारंपरिक तौर पर यह दाल घोड़ों को खिलाने के काम आती है, जिसके कारण इसे घोड़ा दाल भी कहा जाता है। इसका बहुत अधिक प्रचार भी नहीं किया गया है। लेकिन गढ़वाल में लोग इसका इस्तेमाल करके कई व्यंजन बनाते हैं।

आयुर्वेद के मुताबिक, भोजन का हमारे शरीर पर ठंडा या गर्म प्रभाव पड़ता है। लेकिन कुल्थी को पकाए जाने की विधि के अनुसार, यह शरीर पर दोनों ही प्रकार का प्रभाव डाल सकती है। जाड़े के दिनों में अधिकतर गढ़वाली कुल्थी का इस्तेमाल करके बेहद लजीज दाल गठोनी बनाते हैं। उनके मुताबिक जब तापमान गिरता है तो यह दाल शरीर को गर्म रखती है। इस दाल के भरवां परांठे सर्दियों में बनाया जाने वाला एक और लोकप्रिय व्यंजन है।

अगर इसे पकाने से पहले रातभर के लिए पानी में भिगोकर रख दिया जाए तो यह शरीर को ठंडक देती है। जिन लोगों को इसका अनोखा देसी स्वाद पसंद है वे इसकी बड़ियां भी बनाकर रखते हैं, जिन्हें बाद में सब्जी बनाने में इस्तेमाल किया जाता है। यह सभी व्यंजन उत्तराखंड और कुल्थी की खेती किए जाने वाले क्षेत्रों के बाहर न के बराबर ही पसंद किए जाते हैं, हालंकि अब स्वास्थ्य के प्रति गंभीर रहने वाले लोगों के बीच ये धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहे हैं।

टिहरी गढ़वाल के मलेथा गांव के आयुर्वेदिक चिकित्सक वैद्य सोहन लाल बदोनी ने कुल्थी का एक उपचारात्मक गुण हमारे साथ साझा किया। उन्होंने बताया कि जिस पानी में कुल्थी को उबाला गया हो, उस पानी को नियमित रूप से पीने से गुर्दे की पथरी से निजात मिल सकती है।

किसानों की औषधि

पारंपरिक रूप से उत्तराखंड और साथ में सटे हुए 1,800 मीटर तक की ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्रों के किसान गर्मियों में खरीफ की फसल में कुल्थी की खेती करते हैं। टिहरी गढ़वाल में इन किसानों के साथ बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि अधिकांश दालों की तरह कुल्थी भी शुष्क भूमि पर आराम से उग जाती है। इसे बहुत अधिक पानी की जरूरत नहीं पड़ती है और यह चार से पांच माह में कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कई इलाकों में तो किसान अन्य फसलों के साथ कुल्थी की बुवाई कर देते हैं। हालांकि बीते दशकों में बड़ी संख्या में पहाड़ों से किसानों के प्रवासन के चलते इसका उत्पादन कम हुआ है, लेकिन जो किसान अब भी पहाड़ों में बसे हुए हैं, वे इसकी खेती कर रहे हैं।

बीज बचाओ आंदोलन की अगुवाई कर रहे विजय जरधारी पारंपरिक बीजों के संरक्षण और रोपण को बढ़ावा देते हैं। उन्होंने समझाया कि किसान क्यों कुल्थी को इतना पसंद करते हैं। उनका कहना है, “उत्तराखंड के कई खेतों में बंदर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं, लेकिन वे कुल्थी की फसल पर हमला नहीं करते।” मलेथा गांव में 80 फीसदी किसान कुल्थी की खेती करते हैं। मलेथा के एक किसान दयाल सेमवाल ने बताया, “मैं पांच नाली (नाली स्थानीय भूमि इकाई है। एक नाली 0.02 हेक्टेयर के बराबर होती है) खेत से 70 किलो दाल की खेती करता हूं। लागत-मुनाफे का आकलन बताता है कि कुल्थी की खेती में 70 फीसदी लाभ मिलता है।”

उत्तराखंड की विशिष्ट फसलों को बेचने के लिए उद्योग स्थापित करने की मंशा रखने वाले मलेथा के मृणाल सेमवाल बताते हैं, “गांव का प्रत्येक परिवार हर साल कुल्थी की बिक्री से औसतन 30,000 रुपए कमा लेता है।” गढ़वाली पत्रिका “धाड़” के संपादक गणेश खुगसल ने कुल्थी से जुड़ा एक लोकप्रिय किस्सा सुनाया, “यहां की एक विधवा के पास खेत की जुताई के संसाधन नहीं थे, तो उसने पहाड़ों की ढलानों पर कुल्थी के बीज बिखेर दिए। अच्छी पैदावार होने पर उसने ऋषिकेश और देवप्रयाग के बीच सफर करने वाले लोगों को यह बेच दी। तब से और लोगों ने भी इसकी खेती शुरू कर दी।”

कुल्थी के साथ एक समस्या यह है कि इसमें कीड़े जल्दी लग जाते हैं और लंबे समय तक इसका भंडारण नहीं किया जा सकता है। जरधारी ने बताया कि यही कारण है कि अधिकतर किसान अपनी उपज को सस्ते दामों में स्थानीय बाजार मे बेच देते हैं। भोपाल के न्यू मार्केट इलाके में घूमने के दौरान मैंने पाया कि तुलसी गोल्ड ब्रांड के नाम से कुल्थी 160 रुपए किलो बेची जा रही है। इसकी तुलना में उत्तराखंड के श्रीनगर शहर में कुल्थी की कीमत सिर्फ 100 रुपए प्रति किलो है। ऋषिकेश में थोक विक्रेता इसे महज 70-80 रुपए किलो में बेचते हैं।

कुल्थी में निश्चित रूप से बाजार में अच्छा दाम पाने की क्षमता है। किसान इससे मुनाफा कमा सकें, इसके लिए ग्रामीण प्रबंधन विशेषज्ञ प्रतीक काला सुझाव देते हैं कि अमूल की तर्ज पर किसानों के लिए सहकारी समिति का गठन किया जाए ताकि खेतिहर उपज का बेहतर प्रचार किया जा सके। सुनिश्चित आय से न सिर्फ पहाड़ों से होने वाला प्रवासन कम होग, बल्कि पहाड़ी जमीन भी बेहतर तरीके से उपयोग में लाई जा सकेगी।

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