“प्रकृति और स्त्री पर आधिपत्य की आलोचना है इको फेमिनिज्म”

मिट्टी और स्त्री में बीज बोने का अधिकार पुरुष को हासिल हुआ और इस तरह पूरी दुनिया की प्रकृति पर पितृसत्ता का कब्जा है।
तारिक अजीज / सीएसई
तारिक अजीज / सीएसई
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पश्चिमी देशों के साथ विकासशील देशों में प्राकृतिक संसाधनों पर सत्ताधारी तबके का कब्जा है। हाशिए पर पड़े लोगों से जल, जंगल व जमीन का अधिकार छीना जा रहा है। मिट्टी और स्त्री में बीज बोने का अधिकार पुरुष को हासिल हुआ और इस तरह पूरी दुनिया की प्रकृति पर पितृसत्ता का कब्जा है। इसलिए आज स्त्री एवं प्रकृति केंद्रित इको फेमिनिज्म की भूमिका बड़ी मानी जा सकती है। हिंदी साहित्य में पारिस्थितिकी और स्त्रीवाद पर शोधपरक काम करनेवाली पहली साहित्यकार केरल की के. वनजा हैं। पर्यावरण, साहित्य और आंदोलन जैसे मुद्दों पर अनिल अश्विनी शर्मा ने के. वनजा के साथ खास बातचीत की

हिंदी, स्त्रीवाद व पर्यावरण। हिंदी में पर्यावरण पर लिखने वाली पहली महिला केरल से है। इस उपमा को आप कैसे देखती हैं?

हिंदी में पर्यावरण पर कई किताबें लिखी गई हैं। लेकिन वे सब वैज्ञानिक तथ्यों पर केंद्रित हैं। पर्यावरण एवं साहित्य के अंत:संबंधों पर केंद्रित जो दर्शन है उसकी चर्चा पहली बार हिंदी में मेरी पुस्तक “साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन” में ही हुई है। उसकी अगली कड़ी के रूप में “इकोफेमिनिज्म”(देखें पर्यावरण, स्त्री और साहित्य, पृष्ठ 49) और तीसरी किताब है “हरित भाषा वैज्ञानिक विमर्श”। समकालीन साहित्य-विमर्श के क्षेत्र में पर्यावरण विमर्श को लेकर हिंदी पट्टी जब मौन रही तब मेरी इन तीनों किताबों ने हिंदी साहित्यालोचना के क्षेत्र में पारिस्थितिक विमर्श की शुरुआत की और उसको प्रतिष्ठित भी किया। इसलिए पारिस्थितिक विमर्श के संदर्भ में लिखनेवाली पहली महिला कहना ठीक नहीं है, पहला व्यक्ति कहना संगत रहेगा। बहुत ही विनम्रता के साथ इस गौरव को मैं स्वीकार करती हूं।

पृथ्वी और पृथ्वी की समानधर्मी स्त्री ने खुद को, पृथ्वी को और अन्य शोषित जातियों, नस्लों को बचाने के लिए आंदोलन शुरू किया। इको फेमिनिज्म को आप कैसे परिभाषित करती हैं?

प्रकृति और स्त्री पर पुरुष के आधिपत्य की आलोचना और प्रकृति व स्त्री संबंधी लिंगातीत एक वैश्विक विचारधारा है इको फेमिनिज्म।

साहित्य में आंदोलनों की भूमिका को कैसे देखती हैं?

साहित्य और आंदोलन अलग-अलग हैं। अगर आंदोलन किसी एक सशक्त विचारधारा पर केंद्रित है तो उसका असर साहित्य पर पड़ेगा और वह साहित्यकार की दृष्टि रूपायित करने में भी  सहायक बनेगा।

 प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति से आगे चलने वाली मशाल है। साहित्य को सबसे बड़ा विपक्ष माना गया है। इन दिनों आरोप है कि साहित्य अपनी विपक्ष की इस भूमिका का आत्मसमर्पण कर रहा है।

साहित्य का धर्म राजनीति को सही रास्ता दिखाना है। असली शासकीय धर्म को बता देना है। राजनीति में जो बदबू है और लोगों का जो शोषण राजनैतिक स्तर पर हो रहा है उन सबका पर्दाफाश करना साहित्य का परम धर्म है। आजकल के ज्यादातर साहित्यकार पद, धन एवं पुरस्कारों की लालच में सत्ता के क्रीतदास बनने में सुख का अनुभव कर रहे हैं। लेकिन राजनीति एवं सत्ता के अन्यायों के खिलाफ खुलकर लिखकर अपने  धर्म को निभानेवाले निडर साहित्यकार भी हैं। इसलिए सभी साहित्यकार आत्मसमर्पण नहीं करते बल्कि प्रतिभाहीन साहित्यकार समझौतापरस्त बन जाते हैं।

सर्जनात्मक साहित्य का संदेश सतही नहीं होगा। यह परतों में होगा और रचनात्मक भी होगा। पॉपुलर कल्चर साहित्य के मूल्य को चोट पहुंचा रहा है, लेकिन वह अपने स्तर पर रचनात्मक भी है। इसे कैसे देखती हैं?

महान रचनाएं गहन संदेशों की वाहिका होती हैं। उनके प्रत्येक शब्द में, पंक्ति में मानवराशि को दिशा-निर्देश देने की क्षमता निहित रहती है। वे मूल्यबोध का संदेश भी देती हैं। ये कालातीत बनकर हमसे संवाद करेंगी। पॉपुलर कल्चर आज की उभरती सतह की संस्कृति है, उसे पूणर्त: सही नहीं कहा जा सकता। मूल्य कभी भी स्थायी नहीं है। वह बदलता रहता है। हम जो स्थायी समझते हैं उसमें समयानुसार बदलाव आना चाहिए। इसलिए सांस्कृतिक संस्करण (परिष्कार) पर केंद्रित रचनाएं अपने आप में रचनात्मक हैं।

महानगरों से लेकर शहरों और कस्बों तक में साहित्योत्सवों का आयोजन किया जा रहा है। इस तरह के लिट-फेस्ट को आप कैसे देखती हैं?

साहित्य उत्सव मनाने की चीज नहीं है। फिलहाल जो साहित्योत्सव चल रहा है उसके पीछे व्यापार की आंखें हैं। वह उत्सव मात्र रह जाएगा। लेकिन साहित्योत्सवों का एक अच्छा लक्ष्य भी है। वह साहित्य के प्रति रुचि बढ़ाकर उसमें निहित सोद्देश्य ज्ञान-विज्ञान का प्रसार कर सकता है, ऐसा नहीं हुआ तो उससे कोई फायदा नहीं है। सही लक्ष्य की पूर्ति होती है तो वह जनजागरण एवं मूल्यबोध को जगाने में सक्षम निकलेगा।

इन दिनों स्त्री लेखन मुखर है और उस पर देहवाद का आरोप है।

स्त्री लेखन में देह जरूर आएगी। कारण स्त्री को भोग्या मानकर उसका वस्तुकरण ही किया गया है। इसके विरोध में स्त्री लेखन यह दिखा देना चाहता है कि स्त्री के शरीर पर सिर्फ उसका अपना अधिकार ही है। वह वस्तु नहीं एक व्यक्ति है, पुरुष के बराबर। वह कोई रहस्यात्मक नहीं अपने शरीर को भेदकर आगे जाने की हिम्मत खुद उसमें है। आज स्त्री लेखन का दायरा बड़ा बन गया है। वह मनुष्य जीवन के समस्त क्षेत्रों में प्रवेश कर मानवीयता का पक्ष दिखा रहा है।

अस्मिता विमर्श के केंद्र में महिला शोषण का मामला भी उठता है। महिला शोषण का मुद्दा अस्मिता विमर्श में बदल जाता है।

अस्मिता विमर्श में सबसे प्रमुख स्त्री विमर्श है। आधी से अधिक आबादी के मानव होने का अधिकार उसको हासिल है। पर अब तक वे अस्मिता से सजग नहीं रहीं। लिंग राजनीति यहां सदियों से जो चलती आ रही है, उसके बदले में लिंगातीत बराबरी की राजनीति में स्त्री विमर्श बदल गया। उसके केंद्र में स्त्री की अस्मिता एवं अधिकार है। पुरुष जहां-जहां अपना अधिकार जमाकर रखता है वहां प्रवेश कर पुरुष को शत्रु के रूप में नहीं उसके कंधे से कंधा मिलाकर जीवन को सुखद बनानेवाली इकाई या व्यक्तित्व के रूप में अपने को प्रमाणित करना चाहती है। यह समानता का मूल्यबोध ही है।

साहित्य लोकलुभावन होने के लिए मीडिया का मुंह देख रहा है। हिंदी में भी बेस्टसेलर्स लेखकों की सूची निकालने की होड़ मची है। टिकाऊ और बिकाऊ साहित्य के बीच की टक्कर साहित्य को किस ओर ले जाएगी?

भूमंडलीकरण के दौर में सब बिकाऊ हैं। तब साहित्य भी उस नीति से कैसे मुक्त हो जाएगा। खुद प्रकाशक भी साहित्यकार को बिकाऊ रचना तैयार करने की प्रेरणा देते रहते हैं। तब स्तरीय रचनाओं का अभाव होना स्वाभाविक है। दरअसल समय की रुचि एवं ग्राहक की नब्ज को पहचानकर रचना करना साहित्य के उद्देश्य-लक्ष्यों से उसका गिर जाना ही है। मानव को मानव बनाने में सबसे सशक्त भूमिका निभानेवाले सच्चे साहित्य का अभाव हो जाए तो साहिित्यक क्षेत्र अवश्य कमजोर पड़ जाएगा। लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि सच्चे पाठक या गौरवपूर्ण पाठक इतने समझदार जरूर होंगे कि वे सदा टिकाऊ साहित्य के साथ ही रहेंगे। इसलिए असली साहित्य मरेगा नहीं।

समकालीन हिंदी साहित्य में लोकचेतना की जगह बची दिख रही है क्या?

समकालीन साहित्य लोकचेतना का साहित्य है। आधुनिकता की आक्रामकता से मनुष्य जीवनयांत्रिक बन गया था और उसका जैविक संस्कार भी नष्ट हो गया था। मानव जीवन अनाथ, बेसहारा एवं द्वंद्वात्मक हो गया। इसलिए नष्ट होती जा रही उस सुखद लोकचेतना को वापस करना इस उपभोग संस्कृति से बचने का एकमात्र रास्ता है। एक ही संस्कृति में बदल जानेवाले आज के भूमंडलीय षड्यंत्र से बच जाना और अपनी संस्कृति की निजता को बनाए रखना है।  

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