उत्तराखंड को विनाश के पथ पर ले जाएगा चारधाम ऑल वेदर रोड

निचला हिमालय क्षेत्र स्थिर नहीं है। गंगा घाटी क्षेत्र में लगातार भूस्खलन के रूप में इसके प्रत्यक्ष प्रमाण देखे जा सकते हैं
पहाड़ को थामने के लिए बनाई गई कंक्रीट की दीवार यहां कामयाब नहीं है। कीचड़ और छोटे बड़े पत्थर के टुकड़े अक्सर सड़क पर गिर जाते हैं  (फोटोग्राफर विकास चौधरी)
पहाड़ को थामने के लिए बनाई गई कंक्रीट की दीवार यहां कामयाब नहीं है। कीचड़ और छोटे बड़े पत्थर के टुकड़े अक्सर सड़क पर गिर जाते हैं (फोटोग्राफर विकास चौधरी)
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चारधाम ऑल वेदर रोड से पर्यावरण को पहुंच रहे नुकसान का आकलन करने के लिए संवाददाता ईशान कुकरेती और फोटोग्राफर विकास चौधरी ने ऋषिकेश से गंगोत्री तक यात्रा की और पाया कि यह मार्ग उत्तराखंड को विनाश के पथ पर अग्रसर कर रहा है

उत्तराखंड के नरेंद्रनगर जिले के अगार गांव के निवासी पिछले 6 महीने से एक अजीब समस्या से परेशान हैं। माना जाता है कि चारधाम मार्ग उत्तराखंड की घाटी में यातायात को सुगम बनाएगा लेकिन यही मार्ग परेशानी का सबब बन रहा है क्योंकि इसने गांव को दुनिया से काट दिया है। गांव को मुख्य मार्ग से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क जो पहाड़ से 20 मीटर की ढलान पर है, टूट चुकी है।

रायचंद सिंह रावत बताते हैं, “इस साल मार्च में सड़क को चौड़ा करने के लिए इस पहाड़ को तोड़ा गया था। जुलाई में पहाड़ का बड़ा हिस्सा ढह गया। सड़क और हमारे खेत भी ढह गए।” चारधाम जाने वाले श्रद्धालुओं की परेशानियों को देखते हुए प्रधानमंत्री ने 27 दिसंबर 2016 को 12 हजार करोड़ रुपए की लागत से चारधाम मार्ग की आधारशिला रखी थी।

अब चारधाम के लिए अधिग्रहीत की जा रही जमीन का मुआवजा लोगों के बीच असंतोष का कारण बन रहा है। अब रावत को ही ले लीजिए जिन्हें उस जमीन का मुआवजा मिल गया जिसे राज्य सरकार ने सड़क निर्माण के लिए अधिग्रहीत किया था लेकिन खेती की उस जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया गया जो भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई। वह बताते हैं, “मेरे पास 150 वर्गमीटर जमीन थी जिस पर मैं अदरक उगाता था। सरकार ने 80 वर्गमीटर की जमीन सड़क बनाने के लिए ले ली। 14 जुलाई को शेष भूमि ढह गई। अदरक की खेती के लिए मैंने 35,000 रुपए का कर्ज लिया था। वह खेती भी नष्ट हो गई।” टूटी सड़क ने गांव के करीब 150 परिवारों को एक और परेशानी में डाल दिया है। वह परेशानी है पशुओं का आवागमन।

एक अन्य ग्रामीण भागसिंह रावत बताते हैं, “मुझे अपनी भैंस को बेचना है लेकिन खरीदार तक भैंस पहुंचाने के लिए कोई रास्ता ही नहीं है। पशु मुख्य मार्ग तक नहीं जा सकता। ढहते पहाड़ों के बीच हमारे साथ हमारे पशु भी फंसे हैं।”

उनके घर में बड़ी-बड़ी दरारें आ चुकी हैं। जिस पहाड़ पर उनका घर है, वह घर समेत नीचे की तरफ सरक रहा है। उनका कहना है, “मैं जिला मैजिस्ट्रेट और तहसीलदार के पास गया था। उन्होंने यहां आकर हालात का निरीक्षण भी किया था। उन्होंने आश्वासन दिया था कि इस संबंध में वह कुछ करेंगे लेकिन चार महीने गुजर चुके हैं और अब तक कुछ नहीं हुआ है।”

पहाड़ को थामने के लिए बनाई गई कंक्रीट की दीवार यहां कामयाब नहीं है। कीचड़ और छोटे बड़े पत्थर के टुकड़े अक्सर सड़क पर गिर जाते हैं। इससे सड़क पर चलना बेहद खतरनाक हो जाता है।

निचला हिमालय क्षेत्र स्थिर नहीं है। गंगा घाटी क्षेत्र में लगातार भूस्खलन के रूप में इसके प्रत्यक्ष प्रमाण देखे जा सकते हैं। अलग-अलग समय में यहां बड़े भूस्खलन हुए हैं। उदाहरण के लिए 2003 का वरूणावत पर्वत भूस्खलन, 2010 का भटवाड़ी भूस्खलन और 2016 का पिथौरागढ़ भूस्खलन।


हैरानी की बात यह है कि पारिस्थितिक रूप से अति संवेदनशील क्षेत्र होने के बाद भी सरकार ने परियोजना पर काम शुरू कर दिया और वह भी पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) के बिना। सरकार के इस काम को 22 फरवरी को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) में चुनौती दी गई है।

सुनवाई के दौरान प्रतिवादी सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने एनजीटी को बताया कि पर्यावरण प्रभाव आकलन 2006 की आवश्यकता नए राजमार्ग के निर्माण अथवा 100 किलोमीटर से अधिक के राजमार्ग के विस्तार के लिए होती है। सरकार ने 900 किलोमीटर लंबे राजमार्ग के विस्तार को 53 हिस्सों में बांट दिया है ताकि पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया से बचा जा सके।

देहरादून स्थित गैर लाभकारी संस्था सिटिजंस फॉर ग्रीन से जुड़े हिमांशु अरोड़ा बताते हैं, “उन्होंने काम तो शुरू कर दिया लेकिन किसी को नहीं पता था कि यह एक बहुत बड़ा निर्माण कार्य होने जा रहा है। जब हमने निर्माण क्षेत्र का दौरा किया तब पता चला कि यह कितना व्यापक है।” हिमांशु इस मामले में याचिकाकर्ता भी हैं। उनका कहना है कि इंडियन रोड कांग्रेस के हिल मैनुअल के अनुसार, इस क्षेत्र में सड़क 8.8 मीटर तक सीमित होनी चाहिए। कई हिस्सों में सड़क काफी चौड़ी है। आगराखाल और ऋषिकेश के बीच कुछ स्थानों पर सड़क 17 मीटर तक चौड़ी है। अगर विनाश नहीं होगा तो इस सड़क से और क्या होगा। यह मामला अब तक कई उतार चढ़ावों से गुजरा है (चारधाम: कब, क्या हुआ,)।

विनाश का मार्ग

चारधाम ऑल वेदर रोड में सात राष्ट्रीय राजमार्ग शामिल हैं। यह ऋषिकेश से शुरू होता है। चारधाम रोड में एनएच-94 ऋषिकेश से धरासू और धरासू से यमुनोत्री तक शामिल है। एनएच-108 धरासू से गंगोत्री, एनएच-58 ऋषिकेश से रूद्रप्रयाग और रूद्रप्रयाग से मना गांव (बद्रीनाथ) एनएच-109 रूद्रप्रयाग से गौरीकुंड (केदारनाथ) और एनएच-125 टनकपुर से पिथौरागढ़ तक इसके दायरे में है। ऑल वेदर रोड से नुकसान के प्रमाण ऋषिकेश से ही दिखाई देने लगते हैं। निर्माण कार्य ऋषिकेश के बाहरी हिस्से मुनि की रेती से शुरू हो चुका है। सड़क किनारे पहाड़ों का मलबा, मजदूर, लाल और पीले रंग की जेसीबी मशीन और ट्रक जगह-जगह देखे जा सकते हैं। पहाड़ी हिस्से लंबवत काटे जा चुके हैं। साथ ही पहाड़ों को धसकने से रोकने के लिए कंक्रीट की दीवार बन चुकी है। हालांकि ये दीवार भूस्खलन को रोकने में सक्षम नहीं है।

देहरादून में रहने वाले वैज्ञानिक रवि चोपड़ा बताते हैं, “आपको यह समझना होगा कि यह क्षे़त्र निचले हिमालय क्षेत्र का मुख्य केंद्र है। इसी जगह भारतीय टेक्टोनिक प्लेट यूरासियन टेक्टोनिक प्लेट के अंदर से जा रही हैं। यह बेहद नाजुक क्षेत्र है।”

मुनि की रेती में एक भूस्खलन ने कंक्रीट की दीवार को निगल लिया था। यह दीवार पहाड़ को भसकने से रोकने के लिए बनाई गई थी। पहाड़ का मलबा सड़क की दूसरी तरफ डाल दिया गया लेकिन आधी सड़क अब भी मलबे में दबी है।

क्षेत्र के एक मजदूर ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया, “भूस्खलन जुलाई में मॉनसून के दौरान हुआ था। काटे गए पहाड़ को ऐसा ढाल नहीं दिया गया था जिससे वह स्थिर रह पाता। जब बारिश हुई, बड़े-बड़े पत्थर नीचे लुढ़क आए। गनीमत रही कि हादसा सुबह 4 बजे के आसपास हुआ और किसी को नुकसान नहीं पहुंचा।” यह भी तथ्य है कि निर्माण गतिविधियों से क्षेत्र में भूस्खलन की एक श्रृंखला शुरू हो गई है। पहाड़ के भसके हुए अवशेष चार धाम रोड के किनारे देखे जा सकते हैं। क्षेत्र में निर्माण गतिविधियों से इस तरह की घटनाएं असामान्य नहीं हैं।

ऋषिकेश से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित आगराखाल नगर के निवासी सुरेंद्र कंडारी बताते हैं, “यह सड़क 1991 में चौड़ी हुई थी ताकि टिहरी बांध तक मशीनरी पहुंचाई जा सके। इससे ढलान अस्थिर हो गए और भूस्खलन की घटनाएं सामान्य हो गईं। हम उसकी पुनरावृति दोबारा देख रहे हैं। उस समय भूस्खलन की तीव्रता को कम होने में 10 साल लग गए। पिछले साल मार्च में जब से काम शुरू हुआ, पहाड़ खिसक रहे हैं। अब मुझे नहीं पता कि भूस्खलन की श्रृंखला कितने समय तक चलेगी।”

पहाड़ों को काटने की गतिविधियों ने ऊपरी गांवों और अन्य निर्माणों को बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया है। आगराखाल नगर में क्षेत्र के टेलिफोन एक्सचेंज हवा में लटक रहे हैं।



एनएच-94 पर बसा एक गांव एक अन्य समस्या का सामना कर रहा है। टिहरी जिले की सीमा से लगे खाड़ी गांव में मुआवजा का मुद्दा गरम है। जिला प्रशासन ने उन लोगों को भुगतान कर दिया है जिनके नाम से जमीन है। लेकिन जिन्हें राज्य सरकार द्वारा सरकारी अनुदान कानून के तहत पट्टा आवंटित किया गया है, उन्हें कह दिया गया है कि उन्हें भूमि और उस पर किए गए निर्माण का कोई मुआवजा नहीं मिलेगा। बलबीर सिंह ताडियाल ने बताया, “पिछले साल जनवरी के आसपास तहसीलदार ने मुझे कहा था कि पट्टा धारकों को जमीन का मुआवजा दिया जाएगा। बाद में उन्होंने कहा कि केवल ढांचे का मुआवजा ही मिलेगा। अब जब अक्टूबर में मैं उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि पट्टा धारक को किसी का भी मुआवजा नहीं मिलेगा। मैंने जमीन पर होटल बनवा लिया है। जब मुझसे जमीन ले ली जाएगी तब मैं कहां जाऊंगा।” खाड़ी गांव में निर्माण कार्य ने अभी गति नहीं पकड़ी है लेकिन गांव में मुआवजे का मुद्दा तलवार की तरह लटका हुआ है। गांव में करीब 5 किलोमीटर दूर चंबा के रास्ते पर तिपली है। गांव की कच्ची सड़क भूस्खलन से ढह गई है। पहाड़ को काटते समय यह हादसा हुआ। यहा यहां की एकमात्र मोटर रोड है जिसे बिदोन खांकर मोटर मार्ग के नाम से जाना जाता है। इसमें कई जगह दरारें आ गई हैं और कई जगह पानी भर गया है।

तिपली के पूर्व प्रधान फूलदास धांडियाल कहते हैं, “मैंने जिला मजिस्ट्रेट के पास जाकर इस संबंध में शिकायत की तो उन्होंने अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट से बात करने को कहा। उन्होंने गांव की निधि से सड़क की मरम्मत करने को कहा।

जहां एक तरफ ग्रामीणों ने सड़क खो दी है, वहीं दूसरी तरफ इस क्षेत्र में सड़क का निर्माण करने वाली कंपनी भारत कंस्ट्रक्शन ने भूस्खलन के मलबे को सड़क के दूसरी ओर नदी में डाल दिया है जिससे पेड़ और वनस्पति नष्ट हो रही है।

जैसे ही आप ऊपर की तरफ जाएंगे तो उत्तरकाशी के बाद निर्माण गतिविधियां थमी हुई मिलेंगी। ऐसा इसलिए क्योंकि उत्तरकाशी से गंगोत्री तक ऑल वेदर रोड भागीरथी ईको सेंसेटिव जोन (ईएसजेड) के दायरे मे आता है। यह 2012 में अधिसूचित किया गया था।

ईएसजेड के प्रावधानों के अनुसार, विकास की कोई भी गतिविधि तभी हो सकती है जब वह ईएसजेड के जोनल मास्टरप्लान के मुताबिक हो। सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) ने इस इलाके में देवदार के बहुत से पेड़ चिन्हित किए हैं जिन्हें काटा जाना है। काम इसलिए थमा है क्योंकि बीरेंद्र सिंह मटुरा की याचिका पर एनजीटी ने पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। उन्होंने 4 मई 2017 को याचिका दायर की थी। अब जब इस क्षेत्र में निर्माण कार्य नहीं चल है, लोगों के जेहन में दो बातें हैं। लोगों के दिमाग में अब भी 1991 का भूकंप और 2012 व 2013 की बाढ़ की याद ताजा है। साथ ही पर्यटन बढ़ने से आय में बढ़ोतरी के पहले से भी वे परिचित हैं। फिर भी बहुत से लोग से कहते हैं कि अगर यहां रोड बनाई जाती है तो यह उचित पर्यावरण आकलन के बाद ही होना चाहिए।



उत्तरकाशी से 30 किलोमीटर और गंगोत्री से 70 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटे से गांव भटवाड़ी में सड़क किनारे चाय की दुकान चलाने वाले बीरेंदारी नौटियाल कहते हैं, “मैं सड़क के विरोध में नहीं हूं। इससे निश्चित रूप से हमारी आय में इजाफा होगा, लेकिन यह काम ठीक से होना चाहिए। पर्यावरण पर प्रभाव को ध्यान में रखकर यह काम होना चाहिए।”

राज्य में 2013 की बाढ़ के बाद हुए अध्ययन सड़क निर्माण के खतरों की पुष्टि करते हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर डिजास्टर मैनेजमेंट के लिए रिपोर्ट तैयार करने वाले असोसिएट प्रोफेसर सूर्य प्रकाश ने पाया था कि सड़क निर्माण जैसी गतिविधियां क्षेत्र में प्राकृतिक आपदा की संवेदनशीलता में इजाफा कर रही हैं। उन्होंने पाया था सड़क निर्माण की प्रक्रिया से पहाड़ नंगे हो रहे हैं जिससे भूस्खलन के खतरे के साथ कीचड़ के नदी में गिरने से उसका तल उठ रहा है। इससे बाढ़ की आशंका बढ़ रही है। परियोजना के लिए करीब 373 हेक्टेयर वन भूमि ली गई है और करीब 25,300 पेड़ों को अब तक काटा जा चुका है। अरोड़ा कहते हैं, “हमें केवल उन पेड़ों की संख्या पता है जिन्हें परियोजना के लिए काटा गया है लेकिन उन पेड़ों की संख्या के बारे में कोई नहीं जानता जो भूस्खलन से नष्ट हो गए हैं।” दूसरी तरफ भागीरथी के ईको सेंसेटिव जोन में कीचड़ फेंका जा रहा है। हालांकि उत्तराखंड वन विभाग ने ऐसा करने पर सड़क बनाने वाले सरकारी निकाय बीआरओ पर 5 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया है। सड़क निर्माण से उत्तराखंड की पहाड़ियों में पारिस्थितिक आपदा की पुष्टि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई) की 2013 के बाद की रिपोर्ट से भी होती है। जीएसआई ने पाया था कि सड़क निर्माण खतरनाक है क्योंकि इससे पहाड़ के प्राकृतिक ढलान का निचला हिस्सा बाधित होता है। जीएसआई ने भी माना कि इससे भूस्खलन का खतरा है।

उत्तरकाशी की निवासी जयहरि श्रीवास्तव बताते हैं, “सरकार पर्यावरण की चिंताओं को दरकिनार कर यह परियोजना थोप रही है। सड़क बनने से कोई दिक्कत नहीं है लेकिन इस काम को सही तरीके से करना चाहिए। इसका पर्यावरण पर क्या असर होगा, यह ध्यान रखा जाना चाहिए। अन्यथा यह कहना गलत नहीं होगा कि उत्तराखंड एक बड़ी त्रासदी के मुहाने पर खड़ा है।”

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