धर्म और आस्था के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़

धर्म का मर्म समझने वाले बताते हैं कि धार्मिक परंपराओं का मूल प्रकृति का संरक्षण है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि विसंगतियां क्यों और कैसे आईं?
धर्म और आस्था के नाम पर पर्यावरण से खिलवाड़
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धार्मिक परंपराओं और आस्था का हवाला देकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अब इसे नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया है। यही वजह है कि न्यायालयों को धार्मिक मसलों में दखल देना पड़ रहा है। धर्म का मर्म समझने वाले बताते हैं कि धार्मिक परंपराओं का मूल प्रकृति का संरक्षण है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि विसंगतियां क्यों और कैसे आईं? इन तमाम पहलुओं पर रोशनी डालती भागीरथ की रिपोर्ट

उच्चतम न्यायालय ने 23 अक्टूबर 2018 को पटाखों की बिक्री और उसे चलाने के मामले में एक महत्वपूर्ण आदेश दिया। इस आदेश में न्यायालय ने कहा कि अगर धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन के अधिकार के आड़े आ रहा तो जीवन के अधिकार को प्राथमिकता देनी होगी। न्यायालय के अनुसार, “धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25), प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 21) का विषय है। अगर कोई धार्मिक परंपरा लोगों के स्वास्थ्य और जीवन के लिए खतरा है तो उसे अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षण नहीं दिया जा सकता।”

इस आदेश में उच्चतम न्यायालय ने देशभर में पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध तो नहीं लगाया लेकिन दिवाली पर वायु और ध्वनि प्रदूषण को देखते हुए कई तरह की पाबंदियां लगा दीं। मसलन दिवाली पर दो घंटे (रात 8 से 10 बजे के बीच) ही पटाखे चलाए जा सकेंगे, मानक डेसिबल ध्वनि (रिहायशी इलाकों के लिए 55 डेसिबल) वाले पटाखे ही बेचे जाएंगे, पटाखों की ऑनलाइन बिक्री नहीं होगी, केवल लाइसेंस प्राप्त व्यापारी ही पटाखे बेचेंगे, लड़ियों पर प्रतिबंध रहेगा आदि। उच्चतम न्यायालय ने दिवाली के अलावा क्रिसमस और नए साल की पूर्व संध्या पर होने वाली आतिशबाजी के लिए भी समयसीमा निर्धारित की है। न्यायालय के अनुसार, रात 11:55 से 12:30 बजे तक पटाखे जलाने की अनुमति है।

यह अलग बात है कि उच्चतम न्यायालय के आदेश और प्रशासन की सख्ती का दिल्ली-एनसीआर में लोगों पर खास फर्क नहीं पड़ा। रात 8-10 बजे तक पटाखे चलाने का आदेश था लेकिन लोगों ने शाम से देर रात तक आतिशबाजी की। इसका नतीजा यह निकला कि हवा गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) खराब और बहुत खराब से खतरनाक और गंभीर श्रेणी में पहुंच गया। कई जगह एक्यूआई 1,000 के आसपास पहुंच गया। उच्चतम न्यायालय ने पिछले साल भी पटाखों पर प्रतिबंध लगाया था लेकिन लोगों ने उसकी परवाह किए बगैर जमकर पटाखे छोड़े थे। साल 2016 में दिवाली के बाद वायु प्रदूषण देखते हुए न्यायालय को यह प्रतिबंध लगाना पड़ा था। इस आदेश के बाद धार्मिक मामलों में न्यायालय के दखल पर बहस छिड़ गई थी और कई लोगों को यह नागवार गुजरा था।

बहुत से लोगों ने पिछले साल और इस साल के उच्चतम न्यायालय के आदेश को भी धार्मिक मामलों में दखल मानते हुए उसकी आलोचना की थी। मुंबई की हाजी अली दरगाह और केरल के सबरीमाला में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देना भी धार्मिक मामलों में न्यायालय का दखल माना गया। तीन तलाक के मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के आदेश को इसी कड़ी में जोड़कर देखा गया। न्यायालयों के हस्तक्षेप के बाद राजनीतिक दलों के नेता खुलकर बयान भी दे रहे हैं कि अदालतों को धार्मिक मामलों से दूर रहना चाहिए और वही आदेश पारित करने चाहिए जिन्हें माना जा सके। तमाम तरह के विरोध के बावजूद धार्मिक मामलों में न्यायालयों को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है।

इसी साल 27 जुलाई को गंगा नदी में प्रदूषण के स्तर को देखते हुए एनजीटी को यहां तक कहना पड़ गया कि अगर सिगरेट के पैकेट में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चेतावनी लिखी जा सकती है तो प्रदूषित गंगा के बारे में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता? एनजीटी ने गंगा के प्रदूषण पर दुख व्यक्त करते हुए कहा कि अनजान लोग नदी के जल को पवित्र समझकर पीते और नहाते हैं। उन्हें यह पता नहीं है कि यह उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है।

वहीं दूसरी तरफ उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने 20 मार्च 2017 को गंगा, यमुना और उसकी सहायक नदियों को जीवित व्यक्ति का दर्जा दे दिया था और उन्हें मनुष्यों के सामान कानूनी अधिकार दिए थे। न्यायालय ने नमामि गंगे के निदेशक, उत्तराखंड के मुख्य सचिव और महाधिवक्ता को इन नदियों को अभिभावक बना दिया था। हालांकि राज्य सरकार की अपील पर उच्चतम न्यायालय ने 7 जुलाई को उत्तराखंड उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगा दी।

इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 7 अक्टूबर 2013 को इलाहाबाद में गंगा और यमुना नदी में मूर्ति विसर्जन पर प्रतिबंध लगाया था। हालांकि बाद में न्यायालय ने मामूली छूट दे दी। दरअसल अदालती फैसले के खिलाफ दुर्गा पूजा समितियों ने अपील दायर की थी। राज्य सरकार ने भी विसर्जन की वैकल्पिक व्यवस्था न होने की दलील दी और विशेष याचिका दायर कर कानून व्यवस्था का हवाला देकर छूट की मांग की थी। इस अपील पर अदालत ने फौरी राहत देते हुए पुरानी जगहों पर विसर्जन की अनुमति तो दे दी लेकिन साथ ही कहा कि इसके बाद उत्तर प्रदेश में कहीं भी गंगा और यमुना में मूर्तियों का विसर्जन नहीं होगा।

पर्यावरण के हित में धार्मिक परंपराओं पर अदालतों की चोट की श्रृंखला में सबरीमाला को भी शामिल किया जा सकता है। उच्चतम न्यायालय ने 28 सितंबर को 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति देते हुए कहा कि मंदिर का नियम समानता और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से महिलाओं को वंचित करता है। दरअसल सबरीमाला मंदिर का नियम मासिक धर्म की आयु वाली महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित करता है। इसी पर टिप्पणी करते हुए न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने फैसले में कहा, “मासिक धर्म का पूजा से कोई लेना देना नहीं है। जब आप कहते हैं कि महिलाएं ईश्वर या प्रकृति द्वारा निर्मित हैं और इसे मानते हैं तो मासिक धर्म के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं हो सकता।” 

सबरीमाला पर उच्चतम न्यायालय का व्यापक विरोध हो रहा है। लोगों के विरोध के चलते न्यायालय के आदेश के बावजूद मंदिर में महिलाओं को प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है। इस मामले में 48 पुनर्विचार याचिकाएं न्यायालय में दाखिल हुई हैं जिन पर 22 जनवरी को खुली अदालत में सुनवाई होगी। सबरीमाला पर उच्चतम न्यायालय का आदेश प्रत्यक्ष रूप में भले ही नागरिक अधिकारों की बात कहता हो लेकिन परोक्ष रूप से पर्यावरण और महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा है। मासिक धर्म महिलाओं की स्वाभाविक प्रकृति है। यह उनके स्वस्थ होने का प्रतीक भी है। दरअसल मान्यता है कि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी और तपस्वी थे, इसलिए यहां उन महिलाओं को आने की इजाजत नहीं है जिन्हें मासिक धर्म आते हैं। भारतीय धर्म ग्रंथों में नारी को पूजनीय और देवी माना गया है, फिर धर्म के नाम पर इस भेदभाव का क्या औचित्य है? यह सवाल बराबरी का बात करने वाले उठा रहे हैं। जिस तरह सांस लेना और नित्य क्रिया सामान्य जीवन का हिस्सा उसी तरह मासिक धर्म भी है। महज मासिक धर्म के आधार के कोई अपवित्र कैसे माना जा सकता है?

उच्चतम न्यायालय इसी साल 17 जुलाई को गोरक्षकों द्वारा की जा रही हत्याओं और मारपीट की घटनाओं के मद्देनजर भी हिंसा रोकने का आदेश दिया है और अहम दिशानिर्देश जारी किए। चूंकि मसला धर्म और आस्था से जुड़ा है, इसलिए आदेश पर अमल नहीं हुआ और न्यायालय को 24 सितंबर को राज्यों को नोटिस जारी करने पर बाध्य होना पड़ा।

भारत में धर्म और पर्यावरण में नजदीकी रिश्ता रहा है। प्रकृति के तमाम अंग पूजनीय रहे हैं, चाहे वे पशु हों या पेड़-पौधे। तमाम पेड़-पौधे और पशु-पक्षी देवताओं के प्रतीक के रूप में पूजे जाते हैं। धतूरे जैसे विषैले पौधे को भी भगवान शिव के प्रसाद के रूप में माना गया है। यहां तक कि दूसरे ग्रहों और नक्षत्रों को हमने ईश्वर से जोड़ा है और उन्हें पूजनीय बनाया है। प्रकृति का संरक्षण हमारी जीवन शैली का अभिन्न रहा है। हिंदू दर्शन “जियो और जीने दो” के सिद्धांत पर आधारित है। भारत के अधिकांश पर्व प्रकृति पर ही केंद्रित हैं। यहां सांप को भी दूध पिलाने की परंपरा रही है। हिंदू धर्म की भांति इस्लाम, जैन, सिख, बौद्ध धर्म भी पर्यावरण संरक्षण पर जोर देते हैं।

कुरान कहता है कि सृष्टि में जो कुछ है, उसकी रक्षा का दायित्व पूरे मानव समाज पर है। इस्लामी शिक्षा में पेड़ लगाने और वातावरण को हराभरा रखने पर जोर दिया गया है। पेड़ लगाने को सदका अथवा पुण्य का काम कहा गया है। पेड़ को पानी देना किसी मोमिन को पानी पिलाने के समान बताया गया है। पैगंबर हजरत मुहम्मद ने पेड़ों को न काटने, खेतों को आग न लगाने और जानवरों की हत्या को निषेध बताया था। उनका कहना था कि धरती को नुकसान नहीं पहुचाना चाहिए क्योंकि वह हमें अन्न देती है। सिख धर्म में वृक्ष और उपवन को श्रद्धा की नजर से देखा जाता है। इनसे अपने गुरुओं के प्रति श्रद्धाभाव भी प्रकट होता है। गुरु ग्रंथ साहिब में जिस आरती को लिखा गया है वह प्रकृति पर ही केंद्रित है। मसलन- गगन मै थाल, रवि चंद्र दीपक बने, तारका मंडल जनक मोती धूपु मलआनलो, पवण चवरो करे, सगल बनराई फुलंत जोति कैसी आरती होई भवखंडना तेरी आरती अनहत सबद बाजंत भेरी।

अर्थात आकाश रूपी धरती के थाल में सूरज और चंद्रमा दीपक के समान प्रज्ज्वलित हैं। तारामंडल मोतियों की तरह शोभायमान है। दक्षिण के मलय पर्वत से आती चंदन की सुगंध धूप है। वायु चंवर कर रही है। समस्त वनों की संपूर्ण वनस्पति तुम्हारी आरती के निमित्त फूल की तरह अर्पित है। अनहद शब्द भेरी की तरह बज रहे हैं। हे जीवों के भय का नाश करने वाले, तुम्हारी आरती की भव्यता का किस तरह वर्णन किया जा सकता है।

सिख धर्म में वृक्ष को भगवान तक का दर्जा दिया गया है और विश्व का मूल बताया गया है। जैन धर्म का मूल आधार ही पर्यावरण का संरक्षण है। धर्म जल की एक बूंद में अनंत जीवों की सत्ता स्वीकार करता है। अहिंसा जैन धर्म का मूल और सभी जीवों के सहअस्तित्व की बात करता है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी का विनाश न करने को कहता है। जैन धर्म खुद को कष्ट देकर भी दूसरे की रक्षा पर जोर देता है। बौद्ध धर्म के अनुसार, प्रकृति और उसके संसाधन जैसे पशु-पक्षी सबका संरक्षण करना चाहिए। ईसाइयों का धार्मिक ग्रंथ बाइबिल के अनुसार, धरती और इसमें मौजूद हर चीज ईश्वर ने बनाई है और मनुष्य का कर्तव्य है कि उसकी रक्षा करे। हालांकि ईसाई धर्म धरती पर मनुष्य के प्रभुत्व को भी स्वीकार करता है लेकिन साथ ही उसकी भूमिका केयरटेकर (रखवाला) की भी बताता है।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि तमाम धर्मों में पर्यावरण संरक्षण पर जोर और दुनिया में दस में आठ लोगों के धार्मिक होने के बाद भी धरती के घाव गहरे होते जा रहे हैं। पर्यावरण की जो दुर्गति इस वक्त हो रही है, वैसी कभी नहीं देखी गई। हवा, पानी, नदियां, समुद्र, भोजन सब प्रदूषित हो रहा है। इस प्रदूषण का खामियाजा विश्व की बड़ी आबादी भुगत रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट बताती है कि वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख मौतें हो रही हैं। विश्व में 93 प्रतिशत बच्चे जहरीला हवा में सांस लेते हैं। लांसेट मेडिकल जर्नल की रिपोर्ट बताती है कि विश्व में साल में दूषित हवा और पानी से होने वाली मौतें तमाम युद्धों में होने वाली मौतों से अधिक हैं। प्रदूषण से होने वाली मौतों का आंकड़ा धूम्रपान, भूख और प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली मौतों से भी बड़ा है। एड्स, टीबी और मलेरिया से उतनी मौतें नहीं होती जितनी दूषित हवा और पानी से होती हैं।

औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और बढ़ती आबादी के साथ धार्मिक गतिविधियां भी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही हैं। भारत में नदियों को मां का दर्जा प्राप्त है लेकिन उनकी हालत देखकर लगता है कि बेटों ने उन्हें भुला दिया है। रोजाना बड़ी मात्रा में अपशिष्ट, मलमूत्र और औद्योगिक कचरा नदियों के रास्ते समुद्र में पहुंच रहा है। करीब 3,800 करोड़ लीटर गंदा पानी नदियों, जलस्रोतों और भूमिगत जल में प्रतिदिन पहुंच रहा है। करीब 12,363 किलोमीटर के क्षेत्र में नदियों प्रदूषित हो चुकी हैं। यह क्षेत्र गंगा नदी की लंबाई से करीब पांच गुणा है। इस समय देशभर में 302 नदी क्षेत्र प्रदूषित हैं। 2009 में यह आंकड़ा 150 था।

नदियों को मां मानने वाले देश में ऐसी नौबत क्यों आई? सभी धर्मों में पर्यावरण को महत्व मिलने के बाद भी पर्यावरण की दुर्गति क्यों हो रही है? एमिटी यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट साइंस विभाग में प्रमुख कुशाग्र राजेंद्र इस समस्या की जड़ धर्म की आड़ में आडंबर को मानते हैं। उनका कहना है कि किसी भी धर्म में प्रकृति या पर्यावरण को क्षति पहुंचाने की बात नहीं है। यह समस्या तब से सामने आ रही है जब से मनुष्य ने खुद को प्रकृति से श्रेष्ठ मान लिया है और धर्म को भुला दिया है। आर्थिक संपन्नता, बाजारवाद और औद्योगिक क्रांति ने धर्म से व्यक्ति को और दूर कर दिया है।

औद्योगिक क्रांति के बाद मनुष्य में प्रकृति को नियंत्रित करने का चलन बढ़ गया। जानकारी और संपन्नता आने से मनुष्य में घमंड आ गया और उसे लगने लगा कि वह प्रकृति का अंग नहीं बल्कि प्रकृति उसके लिए है। धर्म के मूल में प्रकृति को सर्वोपरि माना गया है लेकिन मनुष्य में गुरूर आने के बाद वह खुद को सर्वोपरि मानने लगा। प्रकृति को नुकसान धर्म की गलत व्याख्या के कारण पहुंच रहा है। नदियों में मूर्तियों के विसर्जन कोई समस्या नहीं है बशर्ते मूर्तियां आदिम प्रकृति की हो।

आदिम मूर्तियों को विसर्जित करने से नदी का जल प्रदूषित नहीं होता लेकिन आडंबर के चलते जब से मूर्तियां सीसा, रसायन, पेंट्स और प्लास्टर ऑफ पेरिस से निर्मित होने लगी, तब से प्रदूषण की चिंता बढ़ी है। इन प्रदूषकों से बनी मूर्तियां हमारी आस्था में नहीं थी। यह भी तथ्य है कि पहले मूर्तियां कम मात्रा में विसर्जित होती थीं। लेकिन अब बाजार, अर्थशास्त्र और आडंबर के चलते लोग धर्म के मूल से परे हट गए हैं जिसका नतीजा नदियों के प्रदूषण के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल हम धर्म और आस्था के नाम पर पर्यावरण को जो क्षति पहुंचा रहे हैं, इससे दीर्घकाल में हमें ही नुकसान पहुंच रहा है। प्रकृति या खुद को हानि पहुंचाना धार्मिक काम नहीं, बल्कि इसे अधार्मिक ही कहा जाएगा।

मानव व्यवहार का विज्ञान

आज भले ही आज पर्यावरण बर्बाद हो रहा हो लेकिन यह भी सच है कि धर्म ने हमें पर्यावरण के प्रति सचेत करने में अहम भूमिका निभाई है। पर्यावरण के प्रति लोगों का आचरण धर्म से निर्देशित होता है और इसका लोगों पर गहरा प्रभाव है। तो क्या यह माना जा सकता है कि धार्मिक होना पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होना भी है? क्या ईश्वर में विश्वास करना पशुओं और पर्यावरण के हित में सोचना भी है? सच यह भी है कि बहुत से धर्म यह बताते हैं कि संसार नश्वर है। इससे धरती के दोहन को भी बल मिलता है। हालांकि जैन धर्म जैसे कुछ धर्म दयाभाव पर बल देते हैं और पशु हत्या की मनाही है लेकिन मानव व्यवहार का विज्ञान क्या कहता है?

इतिहासकार लिन वाइट ने 1967 में साइंस पत्रिका में लिखे अपने लेख में यह कहकर एक बहस को जन्म दिया था कि ईसाई धर्म वन्यजीव संरक्षण को विशेष तवज्जो नहीं देता और प्रकृति पर प्रभुत्व की वकालत करता है। उन्होंने तर्क दिया कि ईसाईयत अपने अनुयायियों को कहता है कि ईश्वर की इच्छा है कि मनुष्य को अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति का दोहन करना चाहिए। हालांकि बहुत से ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने लिन के दावे को भ्रामक और ईसाई धर्म की गलत व्याख्या बताया है। उनके अनुसार, बाइबिल कहता है कि प्रकृति के प्रति हमारे कुछ कर्तव्य हैं।

सिर्फ धर्म ही नहीं, धर्म के भीतर भिन्न-भिन्न मतावलंबी भी प्रकृति के प्रति अलग दृष्टिकोण रखते हैं। अध्ययन बताते हैं कि रूढ़िवादी ईसाई अन्य संप्रदाय की तुलना में पर्यावरण की परवाह कम करते हैं। 1993 में जर्नल फॉर द साइंटिफिक स्टडी ऑफ रिलिजन में प्रकाशित अध्ययन में समाजशास्त्री एंड्रयू ग्रीले ने पाया कि अमेरिका के रूढ़िवादी ईसाई पर्यावरण संरक्षण में कम दिलचस्पी दिखाते हैं जबकि कैथोलिक आर्थिक रूप से मदद को अधिक तैयार रहते हैं।

2006 में प्रकाशित मिस्र की जीवविज्ञानी लीला एन हाजा की मास्टर ऑफ साइंस थीसिस में पाया गया कि केन्या में मसाई समुदाय के जो लोग परंपरागत मान्यताओं से इवेंजलिकल ईसाई में परिवर्तित हुए हैं, उनमें शेरों की हत्या की प्रबल प्रवृत्ति है। दूसरे चर्चों में आस्था वालों में यह प्रवृत्ति कम है। उन्होंने पाया कि मसाई समुदाय के जो लोग कैथोलिक चर्च को मानते हैं, वे शेरों के प्रति अधिक सहिष्णु हैं। साथ ही किसी भी चर्च में आस्था न रखने वाले हिंसक पशुओं के प्रति अधिक सहिष्णु हैं।

2015 में प्लोस वन जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में जलवायु परिवर्तन के प्रति ऑस्ट्रेलिया के 1927 लोगों का अध्ययन किया गया। इसमें पता चला कि जलवायु परिवर्तन के प्रति लोगों का आचरण धार्मिक मान्यताओं पर मजबूती से टिका है। ह्यूमन डाइमेंशंस ऑफ वाइल्डलाइफ जर्नल में 2017 में प्रकाशित सलोनी भाटिया का अध्ययन हिंसक पशुओं के प्रति भारतीयों के व्यवहार पर केंद्रित है। उन्होंने इस अध्ययन में लद्दाख में भेड़िए और बफार्नी तेंदुए के प्रति बौद्ध और मुस्लिम समुदाय के लोगों के व्यवहार का अध्ययन किया। अध्ययन में पाया गया कि हिंसक जानवरों के प्रति बौद्धों का आचरण मुसलमान समुदाय के मुकाबले अधिक सकारात्मक है। उन्होंने यह भी पाया कि लोगों का व्यवहार धर्म से नहीं बल्कि लिंग, शिक्षा और वन्यजीव कानूनों से निर्देशित पाया गया।

क्या धर्म पर्यावरण को बचा सकता है?

यह तथ्य स्थापित हो चुका है कि बहुत सी धार्मिक गतिविधियों से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। लेकिन क्या पर्यावरण को बचाने का रास्ता धर्म से होकर गुजरता है? यह सवाल इसलिए क्योंकि धार्मिक नेता अब पर्यावरण पर संकट के लिए जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान की अवधारणा को मानने लगे हैं। इन धार्मिक नेताओं में सबसे मुखर नाम रोमन कैथोलिक के प्रमुख पोप फ्रांसिस का उभरकर सामने आया है।

उनकी अपील पर दुनिया भर में कैथोलिक संस्थान जीवाश्व ईंधन से मुक्ति की पहल कर रहे हैं। हाल ही में भारत का कैथोलिक संस्थान कैरिटास इंडिया उन 19 कैथोलिक संस्थानों में शामिल हो गया जिन्होंने जीवाश्म ईंधनों को त्यागना का निर्णय लिया है। जलवायु परिवर्तन और मौसम की अतिशय घटनाओं को देखते हुए ग्लोबल कैथोलिक क्लाइमेट मूवमेंट (जीसीसीएम) ने यह कदम उठाने के लिए प्रेरित किया। 2016 से शुरू हुई इस मुहिम में कुल 122 कैथोलिक संस्थान शामिल हो चुके हैं। कैरिटास इंडिया के अध्यक्ष बिशप लूमेन मोंटेरो भी मानते हैं कि जलवायु परिवर्तन ने भारत में जीवनयापन को बुरी तरह प्रभावित किया है, खासकर गरीब और वंचित तबकों को।

पोप फ्रांसिस ने मई 2015 में पर्यावरण पर घोषणापत्र जारी किया था जिसे लोडाटो सी नाम दिया गया था। इस घोषणापत्र के अनुसार, वैज्ञानिकों में इस बात पर व्यापक सहमति बन गई है कि इस समय हम चिंताजनक वैश्विक तापमान का सामना कर रहे हैं। हाल के दशकों में यह समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के रूप में परिलक्षित हुआ है और इससे मौसम की अतिशय घटनाओं को बढ़ावा मिलेगा। पोप फ्रांसिस ने 198 पेज का अपना घोषणापत्र दुनियाभर के चर्चों को भेजा। इसमें जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए जीवनशैली, उत्पादन और उपभोग की प्रकृति में बदलाव पर जोर दिया गया है। उपभोग कम करने की पोप की अपील पश्चिम के उस विचार के विपरीत है तो मुक्त बाजार की वकालत करता है। मुक्त बाजार की अवधारणा उत्पादन और उपभोग को ईश्वर द्वारा प्रदत्त अधिकार मानता है। जलवायु परिवर्तन को स्वीकार न करने वाले आज भी इसे सच मानते हैं।

बहरहाल, रोमन चर्च सरकारों, अंतर सरकारी समूहों पर दबाव डाल रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन पर चर्चाएं जारी रखें। पोप फ्रांसिस ने इसी साल 1 सितंबर को दोहराया कि जल ईश्वर का उपहार है जो जीवन संभव बनाता है। फिर भी लाखों लोगों की साफ पानी तक पहुंच नहीं है। नदियां और समुद्र प्रदूषित हो रहे हैं। पानी के स्रोतों को तत्काल बचाने की जरूरत है। उन्होंने समुद्र से प्लास्टिक कचरा साफ करने के लिए तत्काल कार्रवाई पर जोर दिया। पोप ने जून में वेटिकन में जीवाश्म ईंधन निर्माता कंपनियों और वित्तीय फर्मों के प्रमुखों को संबोधित करते हुए कहा कि नैतिक निवेश जरूरी है। उन्होंने पर्यावरण की रक्षा और जीवाश्म ईंधनों से उसे बचाने को कहा और इसका विकल्प उपलब्ध कराने पर जोर दिया।

पोप की अपील का ही परिणाम है कि आयरिश कैथोलिक बिशप ने अगस्त 2018 को जीवाश्म ईंधन से दूरी बनाने की घोषणा की। इसका मतलब है कि देश में अब 5 साल 200 तेल और गैस कंपनियों में निवेश नहीं किया जाएगा। इस संबंध में जुलाई में आयरलैंड की संसद ने एक विधेयक भी पेश किया गया। अगर यह विधेयक कानून बन गया तो आयरलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश होगा जहां जीवाश्म ईंधनों का उपयोग गैरकानूनी हो जाएगा।

ऐसा नहीं है सिर्फ पोप ने ही पर्यावरण की पीड़ा समझी है। मुस्लिम धर्मगुरुओं का भी इस तरफ ध्यान गया है। तभी तो पोप की अपील के तीन महीने बाद उन्होंने जलवायु परिवर्तन पर इस्लामिक घोषणापत्र जारी किया। इसमें उपभोग की प्रवृत्ति और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर चिंता जाहिर की गई। 409 यहूदी धर्मगुरुओं ने भी एक पत्र पर हस्ताक्षर कर अपने अनुयायियों से धरती को जलाने के बजाय उसके घाव भरने की अपील की। 23 नवंबर 2015 को “भूमि देवी की जय” नाम से हिंदू घोषणापत्र जारी किया गया। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के हिंदू अध्ययन केंद्र ने इसे तैयार किया था और आर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन, ब्रह्मकुमारी और चिन्मयी मिशन ने इस पर हस्ताक्षर किए थे।

इसमें कहा गया कि मानव को प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहना चाहिए और धरती मां की रक्षा करनी चाहिए। 2015 में जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को सबसे पहले बौद्ध धर्म ने आधिकारिक रूप से स्वीकार किया और इस दिशा में पहल करने की अपील की। दरअसल बौद्ध धर्म के मौलिक सिद्धांत बताते हैं कि मनुष्य को प्रकृति से सामंजस्य बनाकर रहना चाहिए और उसमें कम से कम बाधा डालनी चाहिए। 14 मई 2015 को 65 बौद्ध धर्मगुरुओं ने जलवायु परिवर्तन पर घोषणापत्र जारी किया था। दलाई लामा द्वारा समर्थित आधिकारिक घोषणापत्र पेरिस में हुए कॉप-21 में भी भेजा गया।

धर्मगुरुओं द्वारा जलवायु परिवर्तन को स्वीकार करने के बाद यह सवाल भी उठ रहे हैं कि क्या इसमें उन्होंने देरी कर दी? यह समस्या तो काफी पहले स्थापित हो गई थी फिर इसे मानने में इतनी देर क्यों? इसका एक उत्तर यह हो सकता है कि अब इस समस्या को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया है, शायद इसलिए यहां देर आए दुरुस्त आए वाली कहावत चरितार्थ होती है। साथ ही अमेरिका, भारत और दुनियाभर में जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष प्रमाण सामने आ चुके हैं। इसलिए भी इसकी अनदेखी करना अब आसान नहीं रह गया है।

इससे पहले 1986 में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के बुलावे पर बौद्ध, ईसाई, हिंदू, इस्लाम और यहूदी धर्म के धर्मगुरुओं को इटली के असिसी शहर में धरती को बचाने के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया। यहां इन पांचों प्रमुख के धर्मगुरुओं ने एक घोषणापत्र जारी किया जिसे असिसी घोषणापत्र के नाम से जाना गया। इसमें सभी धर्मगुरुओं ने धरती को बचाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। कुशाग्र राजेंद्र बताते हैं कि पर्यावरण के प्रति धर्मगुरु अचानक सचेत नहीं हुए हैं। शुरू में उन्होंने तथ्यों को झुठलाने की भरपूर कोशिश की लेकिन जब विनाश के लक्षण प्रत्यक्ष हो गए तो उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन हो गया। यही वजह है कि पोप और अन्य धर्मगुरू अब धरती के संरक्षण की बात कह रहे हैं। यह एक शुभ संकेत है। धर्म पर्यावरण को बचाने में मददगार हो सकता है बशर्ते हम धर्म के मूल में जाकर उसका मर्म समझें। अभी मनुष्य उसी डाल को काट रहा है, जिस पर वह बैठा है।

सही दिशा देने के लिए सच्चे साधुओं की खोज जरूरी


पर्यावरण दो तरह का होता है, आंतरिक और ब्राह्य। ब्राह्य पर्यावरण हमें जीवित रखता है। हमारे ऋषि मुनि इसे शुरू से मानते रहे हैं। वैदिक संस्कृति पूरी तरह पर्यावरण में समाहित है। अथर्ववेद पर्यावरण के महत्व की व्याख्या करता है। ऋषि कहते हैं कि हमें ऐसी जगह पर उत्पन्न करो जहां समुद्र हो, नदी हो, जल हो, जहां किसी के द्वारा अन्न उत्पन्न किया जा सके और जहां हमारे चलायमान प्राण का चित्त लग सके। ऋषि की यह कल्पना पर्यावरण की निर्मलता पर केंद्रित है। सही अर्थों में धर्म पर्यावरण से अलग नहीं होता। पीपल, तुलसी जैसे बहुत से वृक्ष में देवता का वास माना गया है। पहले प्रत्येक चीज में देवता का वास कराकर लोगों में एक भावना भरी जाती थी। धर्म तो एक ही होता है। भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न लोग उसका उपयोग करते हैं। जल का अपना एक धर्म होता है। इसके भिन्न-भिन्न नाम होने से गुण में अंतर नहीं होता। अभी समस्या यह है कि लोग धर्म की असलियत नहीं जानते, इसलिए उसमें आडंबर आ गया है। सही धर्म का जब अंदर से पालन नहीं किया जाता है, तब व्यक्ति बाहर से ऐसा रूप दिखाता है कि लोग उसे धार्मिक समझे। जब मनुष्य धर्म से परे रहना चाहेगा तो वह बाहरी आंडकर का सहारा लेगा। बाद में आडंबर को ही धर्म समझ लिया गया। आजकल लोगों की वृत्तियां भोगवादी हो गई हैं। इससे समाज रसातल में पहुंच रहा है। ऐसा बर्बर समाज में भी नहीं देखा जाता था। पर्यावरण में अब कई विनाशकारी घटनाएं हो रही हैं। इसका एकमात्र समाधान यही है कि धर्म के सही रूप से समाज को परिचित कराना। अभी जो रूप है वह विनाश की ओर ले जा रहा है। समाज को सही दिशा देने के लिए सच्चे साधुओं को खोजने की जरूरत है। लोग साधु के वेश में समाज को ठग रहे हैं।

- स्वामी शिवानंद जी महाराज, मातृसदन आश्रम, हरिद्वार, उत्तराखंड

जब मान्यताएं पड़ी भारी


आदिवासी परंपराओं को आधार बनाकर उच्चतम न्यायालय ने 18 अप्रैल 2013 को एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा था कि ओडिशा के रायगढ़ और कालाहांडी जिले की ग्राम सभा तय करेगी कि वेदांता की खनन परियोजनाओं से उनका पूजा करने के अधिकार उल्लंघन हुआ है या नहीं। न्यायालय ने आदिवासियों के पूजा करने के अधिकार को मान्यता दी। इसके बाद तमाम परियोजनाएं स्थानीय समुदायों की धार्मिक मान्यता पर टिक गईं। दरअसल वेदांता नियमागिरी की पहाड़ियों में बॉक्साइड का खनन करना चाहता था। डोंगरी कोंध इन पहाड़ियों को पवित्र और पूजनीय मानते हैं।

न्यायालय ने इस आधार पर टिप्पणी करते हुए कहा कि बॉक्साइट खनन परियोजना से धार्मिक अधिकार प्रभावित होगा, खासकर उनके देवता नियम राजा की पूजा करने का अधिकार। इस अधिकार की सुरक्षा और संरक्षण की जरूरत है। उच्चतम न्यायालय ने दो महत्वपूर्ण अधिकारों को समर्थन किया। पहला, अपने हिसाब से जीवन जीने का आदिवासियों का संवैधानिक अधिकार और दूसरा ग्राम सभाओं के जरिए निर्णय लेने का सामुदायिक अधिकार। इसके बाद एक के बाद एक ग्रामसभाओं ने वेदांता की परियोजनाओं को न कह दिया। मान्यताओं के आधार पर नियमागिरी जैसी एक अन्य लड़ाई सिक्किम में भी लड़ी गई थी। सिक्किम की पहली राजधानी युकसम कंजनजंगा नेशनल पार्क की चोटी पर स्थित है।

नब्बे के दशक में स्थानीय समुदाय अपनी मान्यताओं और पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे आए थे। 1997 में राज्य सरकार को युकसम से पहले वाली राथंग नदी में जल विद्युत परियोजना रोकनी पड़ी थी। दरअसल यह नदी स्थानीय समुदायों द्वारा पवित्र मानी जाती है। सरकार इस परियोजना पर 33 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी थी। शायद यह भारत की पहली ऐसी परियोजना थी जो धार्मिक मान्यताओं के आधार पर रद्द करनी पड़ी थी। लामा और सन्यासियों ने सड़कों पर उतरकर इस परियोजना का विरोध किया था। न्यायालय में उन्होंने मान्यताओं के आधार पर मुकदमा लड़ा और उनकी जीत हुई। 20 अगस्त 1997 को परियोजना रद्द कर दी गई और इस स्थान की पवित्रता को बरकरार रखा गया।

आदिवासियों की परंपराओं में जल, जंगल और जमीन का कितना महत्व दिया जाता है इसकी बानगी 1995 में सिक्किम उच्च न्यायालय में संरक्षित दस्तावेजों से भी मिलती है। एक ऐसे ही दस्तावेज में एक आदिवासी 1854 में अपनी जमीन एक अंग्रेज को देते हुए कहता है, “नदियों में बहता यह चमकदार पानी सिर्फ पानी ही नहीं है, यह हमारे पूर्वजों का रक्त है। अगर हम आपको अपनी जमीन बेचते हैं तो आपको यह हमेशा याद रखना चाहिए कि यह पवित्र है और अपने बच्चों को भी यह बताना चाहिए। झील के साफ पानी में भुतहा प्रतिबिंब हमारे जीवन की घटनाओं और हमारे लोगों की यादों को दर्शाता है। पानी की कलकल ध्वनि मेरे दादा की आवाज है।”

मुस्लिम धर्मगुरुओं को प्रेरित करने की जरूरत


इस्लाम में कुदरत को बड़ी अहमियत दी गई है। पैगंबर इस्लाम ने पेड़ लगाने को जरूरी करार दिया है। खुद मोहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों से कहा था कि मक्का, मदीना में लोग तिजारत के लिए आते हैं। रास्ते में रेतीला इलाका है। यहां न पेड़ हैं, न पानी है। धूप की तपिश और गर्मी से बहुत से लोगों का इंतकाल हो जाता है। उन्होंने अपने अनुयायियों को इस इलाके में पेड़ लगाने का हुक्म दिया, ताकि लोग आराम कर सकें। उन्होंने कुएं खोदने का भी हुक्म दिया। इस्लाम में पेड़-पौधों को इंसान को फायदा पहुंचाने वाली चीज माना गया है। इन पेड़ों के कटने से फिजा को नुकसान पहुंच रहा है। पेड़ों को लगाने की हमने यहां एक मुहिम शुरू की है।

मदरसों, मस्जिदों और कब्रिस्तानों में पेड़ लगवा रहे हैं। आतिशबाजी को इस्लाम ने फिजूलखर्ची माना है। जलसे, जुलूस में डीजे और आतिशबाजी नाजायज मानी गई है। यह सच है कि हमारे जलसों से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। हम इसे मानते हैं और अब जुलूस में सख्ती बरत रहे हैं। मुहर्रम के जुलूस में जो डीजे लेकर आएगा उसे बाहर कर दिया जाएगा। दरअसल मुस्लिम धर्मगुरू पर्यावरण के प्रति सचेत नहीं हैं। मुस्लिमों के धर्मगुरुओं को एकत्रित करके पर्यावरण के मुद्दों पर चर्चा करने की जरूरत है। सबसे पहले धार्मिक लोगों को पर्यावरण के प्रति सचेत करना होगा। धार्मिक नेताओं के आगे आने के बाद ही हालात बेहतर होंगे।

- मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी, बरेली

गुरुद्वारे उठा रहे हैं सख्त कदम


“सिक्ख धर्म में ईश्वर को पर्यावरण में ही देखा गया है। गुरुनानक देव ने कहा है, “बलिहारी कुदरत बसया, तेरा अंत न जाई लिखया।” अर्थात बलिहारी जाऊं कुदरत तेरे ऊपर, तेरा अंत लिखा नहीं जा सकता। सिख धर्म में पवन को गुरू, पानी को पिता, धरती को माता माना गया है। जब तक इनको साफ नहीं रखा जाएगा तब तक जीवन में भावनाओं की प्राप्ति नहीं हो सकती। हम तो मानते हैं कि ईश्वर कुदरत में ही बसता है। पर्यावरण को जो नुकसान पहुंच रहा है, वह कुदरत को छेड़ने का नतीजा है। पर्यावरण के संरक्षण के लिए गुरुद्वारों ने कई फैसले लिए हैं। गुरुद्वारा कमिटियों ने स्कूल और गुरुद्वारों के ऊपर सौर तंत्र लगा दिया है। गुरुद्वारों ने कहा है कि आतिशबाजी नहीं, लेजर की आतिशबाजी होनी चाहिए। हमने गुरुपर्व पर आतिशबाजी बंद कर दी है।

हमारे अध्यक्ष मनजीत सिंह जीके ने सभी गुरुद्वारों को लिखित सर्कुलर भेजकर पटाखे न चलाने का आग्रह किया है। पहले गुरुद्वारों में लंगर लकड़ी से बनाया जाता था, अब उसे गैस में शिफ्ट कर दिया है। हमारे गुरुओं ने पेड़ों को लगाने की परंपरा शुरू की थी जिसे हम आगे बढ़ा रहे हैं। पर्यावरण में प्रदूषण की समस्या का समाधान तभी संभव है, जब समाज के धार्मिक लोग रूढ़िवादी परंपराओं से लोगों को बाहर निकालेंगे और धर्म का सही अर्थ समझाएंगे। पर्यावरण की चिंताओं का राजनीतिक हल संभव नहीं है, धर्म से ही इसका समाधान निकलेगा क्योंकि धर्म के नाम पर ही हम पर्यावरण को खराब कर रहे हैं। सिख धर्म कहता है कि अगर आपका वातावरण और स्वास्थ्य ठीक है, तभी आप धर्म का पालन कर सकते हैं।

- कुलमोहन सिंह, मुख्य सलाहकार, दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति

नेताओं की विलासिता देखकर लोग अनुसरण करते हैं


ईसाई धर्म के अनुसार, ईश्वर ने संसार की रचना की है। वह मनुष्य से कहता है कि जाओ और शासन करो। उसने मानव को पशुओं और प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रहने का अधिकार दिया है। शासन का मतलब प्रकृति की देखभाल से है, उसके शोषण से नहीं। लेकिन जब से मनुष्य अपनी भौतिक जरूरतों की पूर्ति के लिए दिन प्रतिदिन प्रकृति से छेड़छाड़ कर रहा है तब से विनाश शुरू हुआ है। मनुष्य चेतनशील प्राणी है, इसीलिए उसकी भूमिका देखभाल की है। पोप के घोषणापत्र के बाद हम लोग पर्यावरण को लेकर गंभीर हुए हैं।

हम हर साल पेड़ लगा रहे हैं और उसकी देखभाल कर रहे हैं। पहले हमारे चर्च में विवाह समारोह में पटाखे छोड़े जाते थे लेकिन अब चर्चों ने इस प्रतिबंध लगा दिया है। जो लोग ऐसा करते हैं उन पर जुर्माना लगाया जाता है। हम वर्षाजल संचयन भी कर रहे हैं। छोटे-छोटे चेकडैम बनाकर भी जल का संग्रहण कर रहे हैं। कैरिटास इंडिया ने पर्यावरण संरक्षण को लेकर अच्छा कदम उठाया है। हालांकि यह भी सच है कि अब मनुष्य स्वार्थी हो गया है। वह आने वाली पीढ़ियों के बारे में नहीं सोच रहा। हम लगातार उद्योगों द्वारा कार्बनडाइऑक्साइड का उत्सर्जन कर रहे हैं। धार्मिक नेता पर्यावरण को बचाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। लेकिन समस्या यह है कि हमारे नेता खुद विलासिता भरी जिंदगी जीते हैं। लोग भी उन्हीं का अनुसरण कर रहे हैं।

- फादर उदय राज टोप्पो, जसपुर, छत्तीसगढ़

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