सीपों की सहन क्षमता से बाहर होता समुद्रों में बढ़ता शोर, क्या इंसान हैं कसूरवार?

न केवल धरती बल्कि समुद्रों में भी बढ़ता इंसानी शोर प्राकृतिक संगीत को धीरे-धीरे निगल रहा है
जहाजों, मशीनों और निर्माण कार्यों की वजह से होने वाले शोर ने आज हर जगह को निगल लिया है। आज समुद्री जीव भी उससे सुरक्षित नहीं हैं; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
जहाजों, मशीनों और निर्माण कार्यों की वजह से होने वाले शोर ने आज हर जगह को निगल लिया है। आज समुद्री जीव भी उससे सुरक्षित नहीं हैं; प्रतीकात्मक तस्वीर: आईस्टॉक
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इंसानी विकास की लालसा न केवल धरती बल्कि समुद्रों को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रही है। इसका सीधा असर समुद्रों में रहने वाले अनगिनत जीवों पर भी पड़ रहा है। आज हम इंसान कई तरह से समुद्रों को प्रभावित कर रहे हैं। इनमें जलवायु परिवर्तन से लेकर बढ़ता प्रदूषण और शोर तक बहुत कुछ शामिल है।

ऐसे में समुद्रों पर बढ़ते इंसानी प्रभावों को समझना बेहद जरूरी है। इसी कड़ी में एडिलेड विश्वविद्यालय द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि समुद्रों में बढ़ता शोर सीपों की सहन क्षमता से बाहर हो रहा है।

ऐसे में समुद्रों पर बढ़ते इंसानी प्रभावों को समझना बेहद जरूरी है। इसी कड़ी में एडिलेड विश्वविद्यालय द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि समुद्रों में बढ़ता शोर सीपों की सहन क्षमता से बाहर हो रहा है। अध्ययन से पता चला है कि शिशु सीपियां विशिष्ट वातावरण में बसने के लिए प्राकृतिक ध्वनि संकेतकों का उपयोग करती हैं।

गौरतलब है कि इन ध्वनि संकेतकों की मदद से ही वो अपने लिए उन स्थानों को चयन करती हैं, जहां उन्हें बसना है। लेकिन जिस तरह से समुद्रों में इंसानी शोर बढ़ रहा है वो उनकी इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया को बाधित कर रहा है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता डॉक्टर ब्रिटनी विलियम्स ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से बताया है कि, “आवासों को होते नुकसान की वजह से समुद्रों में प्राकृतिक ध्वनियां धीरे-धीरे शांत होती जा रही हैं। वहीं दूसरी तरफ इंसानों के बढ़ते हस्तक्षेप से समुद्रों में इंसानी शोर बढ़ रहा है। इस तेज इंसानी शोर में प्राकृतिक आवाजें दबती जा रही है। नतीजन समुद्री जीवों के लिए इन्हें सुनना और मुश्किल होता जा रहा है।" इस अध्ययन के नतीजे जर्नल रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ताओं के मुताबिक बहुत से समुद्री लार्वा अपने आवासों का चयन करने के लिए इन्हीं प्राकृतिक ध्वनियों पर निर्भर रहते हैं। लेकिन बढ़ता शोर उनके लिए नई मुसीबतें खड़ी कर रहा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक वातावरण में जब बहुत शोर होता है तो सीपों के लिए सही जगह का चयन मुश्किल हो जाता है।

देखा जाए तो यह जीवों के संरक्षण के लिए काम करने वाले उन वैज्ञानिकों के लिए भी बड़ी चुनौती है जो इन प्राकृतिक आवाजों की मदद से सीपों को दोबारा बहाल की गई भित्तियों की ओर आकर्षित करना चाहते हैं।

तेजी से बढ़ते इंसानी शोर में दब रहा है प्राकृतिक संगीत

देखा जाए तो जहाजों, मशीनों और निर्माण कार्यों की वजह से होने वाले शोर ने आज हर जगह को निगल लिया है। यह शोर न केवल जमीन पर बल्कि समुद्रों में रहने वाले जीवों को भी गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। 

अध्ययन में सामने आया है कि समुद्री जीव बढ़ते इंसानी शोर के प्रति विशेष रुप से संवेदनशील होते हैं। यह जीव अपने जीवन से जुड़े कई पहलुओं के लिए ध्वनि पर निर्भर करते हैं। उदाहरण के लिए कई जीव अपना रास्ता ढूंढने, एक दूसरे से संवाद करने के लिए ध्वनि संकेतों पर निर्भर करते हैं। इसी तरह यदि बात इन जीवों के अपने लिए भोजन या साथी ढूंढने या शिकारियों से बचने की हो तो यह जीव ध्वनि संकेतों पर ही भरोसा करते हैं।

इस बारे में अध्ययन और एडिलेड विश्वविद्यालय से जुड़े अन्य शोधकर्ता डोमिनिक मैकफी का प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहना है कि, पिछले शोधों से पता चला है कि ध्वनि संकेतों का उपयोग आवासों की बहाली के लिए सीपों को आकर्षित करने में मददगार हो सकता है।

लेकिन इस नए अध्ययन से पता चला है कि यह तरीका उन क्षेत्रों में उतना कारगर नहीं हो सकता है, जहां इंसानी शोर बहुत ज्यादा है।" रिसर्च में सामने आया है कि ऐसे वातावरण में जहां इंसानी शोर बहुत ज्यादा है वहां लार्वा की संख्या में बहुत वृद्धि नहीं हुई।

एडिलेड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सीन कॉनेल ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “समुद्रों में बढ़ता शोर समुद्र की प्राकृतिक ध्वनियों को दबा सकता है, जिसका समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और उसके स्वास्थ्य पर गहरा और गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।"

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