देश का भू–सांस्कृतिक मानचित्र: पुनर्जनन की दृष्टि और विकास की अवधारणा

देश का भू–सांस्कृतिक मानचित्र: पुनर्जनन की दृष्टि और विकास की अवधारणा

भारत की अर्थव्यवस्था में कभी 32 प्रतिशत तक योगदान देने वाला प्रकृति–संस्कृति का साझा योग आज घटकर मात्र 4 प्रतिशत तक पहुंच गया है
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भारत का भू–सांस्कृतिक मानचित्र केवल एक नक्शा नहीं, बल्कि मिट्टी, जल, खेती, परंपराओं, समुदायों और सांस्कृतिक व्यवहारों की सामूहिक बुद्धिमत्ता का मानचित्र है।

यह उस भारत का प्रतिरूप है, जिसकी बनावट केवल भौगोलिक सीमाओं से नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से विकसित एक जीवंत सांस्कृतिक पारिस्थितिकी से होती है। जिस समय दुनिया जलवायु संकट, जैव–विविधता के क्षरण और असंतुलित शहरीकरण की मार झेल रही है, उस समय भारत का यह भू–सांस्कृतिक दृष्टिकोण विकास की नई दिशा का आधार बन सकता है।

दरअसल, आधुनिक विकास मॉडल ने प्रकृति और संस्कृति के बीच जन्मे उस संतुलन को लगातार पीछे धकेला, जो भारतीय जीवन–पद्धति की आत्मा था। बीते दो शताब्दियों में आर्थिक वृद्धि के नाम पर वह दृष्टि हावी हुई जिसने जल, भूमि और समुदायों को संसाधन भर मान लिया।

परिणाम यह हुआ कि भारत की अर्थव्यवस्था में कभी 32 प्रतिशत तक योगदान देने वाला प्रकृति–संस्कृति का साझा योग आज घटकर मात्र 4 प्रतिशत तक पहुंच गया है। इस पृष्ठभूमि में भू–सांस्कृतिक मानचित्रण का विचार न केवल वैज्ञानिक महत्त्व रखता है, बल्कि भारत के भविष्य की दिशा तय करने वाला सांस्कृतिक दस्तावेज भी बन सकता है।

भू–सांस्कृतिक मानचित्र की अवधारणा यह स्वीकार करती है कि भारत को सिर्फ 15 एग्रो–क्लाइमेटिक जोन में बांटकर नहीं समझा जा सकता। देश की मिट्टी, नमी, स्थलरूप, ऋतु–चक्र, कृषि–पद्धति, बोली–भाषाएं, लोक–ज्ञान और सामुदायिक ढांचे इतनी विविधता लिए हुए हैं कि वास्तविकता में यहां 86 से अधिक भू–सांस्कृतिक क्षेत्र मौजूद हैं।

इन क्षेत्रों की पहचान सात प्रमुख मानकों के आधार पर की जाती है मिट्टी का प्रकार, जल–उपलब्धता, खेती, प्राकृतिक वनस्पतियाँ, पारंपरिक पेशे, सांस्कृतिक व्यवहार और सामुदायिक जल–प्रबंधन। इन सभी तत्वों के संगम से बनने वाले प्रत्येक क्षेत्र का चरित्र विशिष्ट होता है और वही इसे भू–सांस्कृतिक इकाई बनाता है।

इस दृष्टिकोण के उभार के पीछे जल–संरक्षण और नदी–पुनर्जीवन का बड़ा अनुभव भी है। राजस्थान के अलवर में तीन दशक से अधिक समय से जल–कार्य कर रहे तरुण भारत संघ ने पिछले दस वर्षों में 23 नदियों को पुनर्जीवित किया है।

इन प्रयासों से यह अनुभव उभरकर आया कि पानी, मिट्टी और संस्कृति एक–दूसरे के पूरक हैं। जहां समुदाय अपनी पारंपरिक जल–व्यवस्थाओं के साथ सक्रिय रहता है, वहां भूमि की नमी, खेती की उत्पादकता, जैव–विविधता और सामाजिक सद्भाव—सभी में सुधार होता है।

यही अनुभव भू–सांस्कृतिक मानचित्रण की वैज्ञानिक आधार–भूमि बनकर उभरा है।

इस अवधारणा की चर्चा हाल ही में नई दिल्ली स्थित इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में आयोजित एक राष्ट्रीय कार्यशाला में हुई, जहां देशभर के वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, अर्थशास्त्रियों, डिज़ाइन विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे भारत के भविष्य की दिशा के रूप में रेखांकित किया।

विकास बनाम पुनर्जनन के संदर्भ में नये नजरिये को विकसित करने के लिए जल चेतना वाहक एवं जानकार डॉ. राजेंद्र सिंह ने भू–सांस्कृतिक मानचित्र की संकल्‍पना का एक खाका सामने रखा, जो विकास की पुरानी दृष्टि से बाहर आकर प्रकृति और संस्कृति के पुनर्जनन को केंद्र में होने की पैरवी करता है। ये आत्मनिर्भर भारत का मूल मार्ग होगा।

समाज-जीवन में आनंद की प्राप्ति के लिए एक बार फिर अपनी प्रकृति और संस्कृति के योग की ओर देखने की जरूरत है। इस समन्‍वय को देख, समझकर जब भारत के पुनर्जनन की रीति-नीति और भू-सांस्कृतिक मानचित्र पर काम किया जाएगा, तो देश फिर से अपनी समृद्धि की राह पकड़ेगा। ये समृद्धि की राह ही सनातन होगी।

भू–सांस्कृतिक मानचित्र केवल शोध का विषय नहीं, बल्कि समुदायों पर आधारित विकास का व्यवहारिक ढांचा है। दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर मधुलिका बैनर्जी बताती है कि शिक्षा व्यवस्था ने लोक–ज्ञान को उपेक्षित किया है, जबकि भारतीय समाज प्रकृति और संस्कृति के सह–अस्तित्व पर टिका है।

एनसीईआरटी के विशेषज्ञों ने भी इस बात को स्वीकार किया कि स्थानीय भू–सांस्कृतिक अध्ययन को पाठ्यक्रम में शामिल किए बिना शिक्षा को वास्तविक जीवन से नहीं जोड़ा जा सकता।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्री विजय परांजपे का मानना है कि भारत के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ संस्कृति और पारिस्थितिकी के पारंपरिक तालमेल को फिर से समझने की आवश्यकता है। हमें भू–सांस्कृतिक दृष्टि के आर्थिक पक्ष को को भी देखने की जरूरत होगी। भारत के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां संस्कृति और पारिस्थितिकी के पारंपरिक तालमेल को फिर से समझने की आवश्यकता है।

लद्दाख का उदाहरण है, जहां दो अलग–अलग सांस्कृतिक समुदाय होने के बावजूद पारिस्थितिकी–आधारित जीवन–शैली सामाजिक समरसता का आधारित है। महाराष्ट्र के कोकण और मराठवाड़ा में भी इसी तरह की पारंपरिक जल–संस्कृतियां मौजूद हैं, जिन्हें भू–सांस्कृतिक दृष्टि से देखने पर कई नए पाठ खुलते हैं।

इस अवधारणा को दृष्टिगत रखते हुए अहमदाबाद के एक डिजाइन संस्‍थान के छात्रों ने देश के विभिन्न क्षेत्रों के भू–सांस्कृतिक मानचित्र पर प्रारंभिक स्‍तर पर कार्य किए है। इन मानचित्रों में स्थानीय मिट्टी के रंग से लेकर वर्षा–चक्र, लोक–गीतों, खाद्यान्न, नदी–प्रणालियों और पारंपरिक पेशों को दर्शाया गया।

ये डिजाइन बताती हैं कि भू–सांस्कृतिक मानचित्रण युवाओं के लिए एक प्रयोगशील और रचनात्मक अभ्यास के रूप में उभर सकता है, जो उन्हें अपने परिवेश और जड़ों से गहरे जोड़ता है।

दरअसल, भू–सांस्कृतिक मानचित्र भारत को विकास के उस मॉडल से बाहर निकालने का मार्ग सुझाता है जो केवल संरचनात्मक विस्तार और संसाधनों की खपत को विकास मानता रहा है।

मानचित्र बताता है कि वास्तविक विकास तब होगा जब भूमि, जल, जंगल, कृषि और समुदाय—सभी आपसी तालमेल में पुनर्जीवित हों। यही दृष्टि पुनर्जनन आधारित विकास का आधार है, जो न केवल पर्यावरणीय संतुलन बल्कि सामाजिक और आर्थिक स्थिरता भी प्रदान कर सकती है।

नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति और आरआईएस के महानिदेशक डॉ. सचिन चतुर्वेदी ने वैश्विक संदर्भों के नजरिये से बात रखी कि विश्व समुदाय अभी तक केवल 12 प्रतिशत सतत विकास लक्ष्यों को ही पूरा कर पाया है।

ऐसे समय में स्थानीय सांस्कृतिक क्लस्टर और पारंपरिक इको–प्रक्रियाएं नए वैश्विक विकास–मॉडल बनेंगे। स्थानीय भू–सांस्कृतिक दृष्टि ही विश्व के सामने एक व्यावहारिक, समुदाय–आधारित और आत्मनिर्भर मॉडल प्रस्तुत कर सकती है।

वास्‍तव में भू–सांस्कृतिक मानचित्र भारत की उस सामूहिक स्मृति को जगाने का प्रयास है जिसे विकास की अंधी दौड़ में कहीं पीछे छोड़ दिया गया।

ये मानचित्र हमें याद दिलाते है कि भारत की सभ्यता का मूल उसकी विविधता में नहीं, बल्कि विविधताओं के मधुर सह–अस्तित्व में है। जब भारत जल, भूमि, नदियों, खेती और संस्कृति के अपने प्राचीन योग को फिर से समझेगा, तभी पुनर्जनन आधारित विकास की राह स्थायी रूप से खुलेगी।

भू–सांस्कृतिक मानचित्र इसी समझ का प्रस्ताव है, जो भविष्य के भारत को केवल विकसित नहीं, बल्कि पुनर्जीवित करने की क्षमता रखता है। ये भारत का भू-सांस्कृतिक मानचित्र नीति निर्माताओं, योजनाकारों, ब्‍यूरोक्रेटस्, आमजन को ऐसे मॉडल प्रदान कर सकता है, जिनमें स्थानीय जरूरतें, विविधता का सम्मान, जल–मिट्टी–संस्कृति–अर्थव्यवस्था का संतुलन स्पष्ट रूप से समझा जा सकेगा।

लेखक कुमार सिद्धार्थ, पिछले चार दशक से पत्रकारिता और सामाजिक विकास के क्षेत्र में सक्रिय है। वह पर्यावरण, शिक्षा, सामाजिक आयामों पर देशभर के विभिन्‍न अखबारों में लिखते रहते हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं

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