इलेक्ट्रिक गाड़ियों की दौड़ में 'कुछ' पिछड़ तो नहीं रहा!
दुनिया की कार इंडस्ट्री आज ऐसे दौर से गुजर रही है, जिसका सामना उसने पहले कभी नहीं किया। इलेक्ट्रिक वाहन, इंटरनल कम्बस्चन यानी आईसी इंजन वाले वाहन की जगह लेने को तैयार हैं लेकिन इससे कार इंडस्ट्री के दिग्गजों की हालत भी अस्थिर हो रही है। अगर इतनी महत्वपूर्ण इंडस्ट्री, दूसरे देशों के नए महारथियों के साथ प्रतिस्पर्धा से ही इंकार करेगी, तो फिर विकसित देशों के हरित-बदलाव लाने के संकल्प का मतलब क्या रह जाएगा।
दरअसल मैं चीन के बारे में बात कर रही हूं, आज की तारीख में कच्चे माल, बैटरी तकनीक और अत्याधुनिक सस्ती इलेक्ट्रिक कारों के मामले में जिसका दबदबा है। चीन ने यह जानते हुए कि उसकी कार इंडस्ट्री पारंपरिक आईसी वाले इंजन के मामले में कभी प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाएगी, जानबूझकर ई-वाहनों में निवेश किया। अब चूंकि दुनिया को जलवायु परिवर्तन की चुनौती का सामना करना है तो उसमें इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल, इस एजेंडे का हिस्सा है। यूरोपीय संघ ने कारों से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करने के लिए कठोर लक्ष्य तय किए हैं, उसने नियम बनाए हैं कि 2035 से केवल जीरो उत्सर्जन वाले वाहन ही बेचे जा सकेंगे।
इसका मतलब है कि अगले दस सालों में पूरे यूरोपीय संघ में कोई पेट्रोल या डीजल वाहन नहीं होगा। अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडेन की सरकार ने 2030 तक कुल वाहनों की बिक्री में, पचास फीसदी इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री का लक्ष्य रखा है। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए हरित - परिवहन की ओर जाने के कदमों ने चीन की कार इंडस्ट्री को अच्छी स्थिति में पहुंचा दिया है। सवाल यह है कि चीन के दबदबे की हालत में अगर पश्चिमी देशों की कार इंडस्ट्री कमजोर पड़ती है तो क्या होगा।
वाहन इंडस्ट्री, तमाम देशों में परंपरागत रूप से मैन्युफैक्चरिंग और नौकरियों की रीढ़ है। यूरोपीय समिति के आंकडे़ के मुताबिक, ऑटोमोटिव इंडस्ट्री यहां 13.8 करोड़ लोगों को रोजगार देती है, यह 26 लाख लोगों को सीधे रोजगार देती है जो निर्माण-क्षेत्र में रोजगार का साढ़े आठ फीसदी हिस्सा है। हालांकि अब यह इंडस्ट्री संकट में है।
सितंबर में जर्मनी की प्रमुख कार कंपनी ने देश में अपने दो मैन्युफैक्चरिंग प्लांट बंद करने का ऐलान किया, जिससे तमाम कर्मचारियों के सामने रोजगार का संकट पैदा हो गया और राजनीतिक हंगामा खड़ा हो गया। पश्चिमी देशों की कार इंडस्ट्री को इलेक्ट्रिक वाहनों के पुर्जों की कीमत के मामले में चीन से प्रतिस्पर्धा करने में मुश्किल आ रही है।
यूरोपीय देशों के इलेक्ट्रिक वाहन, पेट्रोल से चलने वाले वाहनों की तुलना में अभी भी महंगे हैं और अब जब ज्यादातर देश हरित-वाहनों पर सब्सिडी और अन्य लाभ वापस लेना चाहते हैं तो कार मालिकों को आयातित वाहनों की ओर बढ़ना पड़ रहा है।
अब, वही एक रास्ता है, जो अमेरिका ने अपनाया और अब यूरोपीए संघ अपना रहा है - चीन में बनने वाले इलेक्ट्रिक वाहनों और यहां तक कि पुर्जों पर भी, आयात शुल्क बढ़ाना। अमेरिका ने चीन के ई- वाहनों पर सौ फीसदी शुल्क लगाया है, कनाडा ने भी ऐसा ही किया और अब यूरोप इन वाहनों पर दस फीसदी शुल्क बढ़ाने की सोच रहा है।
इसके अलावा, अमेरिका ने, जो ई-वाहनों पर ठीकठाक सब्सिडी देता है, शर्त लगाई है कि चीन समेत बाहर के देशों से आने वाले ई-वाहनों पर इंसेंटिव तभी मिलेगा, जब उनके निर्माण में खास खनिजों या बैटरियों का इस्तेमाल न किया गया हो। इसका मतलब यह होगा कि चीनी सहयोगी वाली इंडोनेशियाई कंपनी के निकेल वाले वाहनों को भी सब्सिडी से वंचित किया जा सकता है। सब्सिडी,लोगों को ई-वाहनों की ओर आकर्षित करने के लिए महत्वपूर्ण है।
चीन में ई-वाहनों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर हो रहा है। अधिकारिक आंकड़ें के मुताबिक, जुलाई 2024 में इनकी बिक्री ने आईसी इंजन वाले वाहनों को पीछे छोड़ दिया, जब एक महीने में ही कम से कम 8,53,000 ई - वाहनों की बिक्री हुई। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि चीन के ई-वाहन तुलनात्मक रूप्ंा से सस्ते और किफायती हैं।
चीन के लोग मानते हैं कि इसकी बड़ी वजह बैटरी तकनीक और जरूरी खनिजों की प्रोसेसिंग में उसका दबदबा होना और चीन में मजदूरी का कम होना है, हालांकि पश्चिमी देशों की सरकारें इस तथ्य पर संदेह करती हैं। ई-वाहन के क्षेत्र में दिग्गज चीनी कंपनी - बीवाईडी अब वियतनाम, इंडोनेशिया और मलयेशिया में भी अपना विस्तार कर रही है। अच्छी खबर यह है कि ई-वाहनों की बिक्री बढ़ने से कम से कम इन देशों में हरित-बदलाव को बल मिलेगा, जिसकी बहुत जरूरत है।
लेकिन क्या ऐसा ही बदलाव पश्चिमी देशों में आ पाएगा, जिसने चीन से आयात होने वाले ई-वाहनों और उनके पुर्जों पर बंदिशें लगा दी हैं, इस डर से कि कहीं उनकी कार इंडस्ट्री चौपट न हो जाए। ये देश आपूर्ति -श्रृंखलाओं को सुरक्षित करने के लिए अपनी कोशिशें तेज कर रहे हैं- पश्चिमी देशों और उनके सहयोगियों (भारत जिसका हिस्सा है) ने इन खनिजों को सुरक्षित करने और रिसाइक्लिंग को बढ़ावा देने के लिए खनिज - सुरक्षा साझेदारी बनाई है।
इसका मकसद, खनिजों को निकालना, उन्हें प्रोसेस करना और उनकी रिसाइक्लिंग करना है, ताकि ये देश मिलकर आपूर्ति-श्रृंखला बना सकें। यह काम अभी चल रहा है और कच्चे माल को प्रोसेस करने की दिशा में बहुत कुछ किया जाना बाकी है। सस्ती हाइड्रोपॉवर एनर्जी का फायदा उठाने के लए स्वीडन के सुदूर उत्तर में स्थापित की गई, बड़ी बैटरी फैक्ट्री-नार्थवोल्ट के बारे में कहा जा रहा है कि वह संकट में है।
ब्रिटिश दैनिक फाइनेंशियल टाइम्स के मुताबिक, यह फैक्ट्री जिसमें काफी बड़ा निवेश किया गया, अपनी क्षमता से काफी कम उत्पादन कर रही है। जिसका मतलब है कि वह कीमत के मामले में अपनी एशियाई प्रतिद्वंदी से मुकाबला करने में सक्षम नहीं है।
यह महत्वपूर्ण है कि हरित-बदलावों को अपनाने वाले देशों को आर्थिक लाभ भी मिले, जिसमें स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग और नई नौकरियां शामिल हैं। इस समय, जबकि जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता है, दुनिया को कम कार्बन उत्सर्जित करने वाली अर्थव्यवस्था की ओर जाने की जरूरत है। यह कैसे होगा। क्या दोनों काम एक साथ हो सकते हैं। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर खुली चर्चा की जरूरत है लेकिन जो इस असहिष्णु समय में खोता जा रहा है।