

डाउन टू अर्थ की खास सीरीज "संपन्न राज्य, विपन्न लोग" के पहले भाग में आपने पढ़ा -
25 साल बाद भी प्राकृतिक संसाधनों पर नहीं मिला हक , दूसरे भाग में पढ़ा- खनिज से छत्तीसगढ़ सरकार हुई अमीर, आदिवासी रहे गरीब के गरीब । आगे पढ़ें -
घूमा देवी उस समय 27 साल की थी, जब वह अपने गांव में आंदोलनकारियों की एक सभा में शामिल हुईं। आंदोलनकारी नेता बता रहे थे कि अलग राज्य बनने के बाद उनकी अलग पहचान होगी। बच्चों को अच्छी शिक्षा मिलेगी। युवाओं को काम के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। साथ ही, गैरसैंण राजधानी बनने से उनके इलाके का चहुंमुखी विकास होगा। घूमा देवी बहुत प्रभावित हुई और उन्होंने भी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने का फैसला कर लिया। पति व ससुर पहले से आंदोलन में शामिल थे। अपने दो बच्चों को अपनी सास को सौंप कर घूमा देवी रैलियों प्रदर्शन में शामिल होने लगी। 12 दिन की भूख हड़ताल की। एक प्रदर्शन के दौरान आंख पर चोट खाई। और एक दिन उत्तराखंड अलग राज्य बन ही गया। अब घूमा देवी की उम्र लगभग 58 साल हो चुकी है और राज्य बने 25 साल हो चुके हैं तो मूलतया गैरसैंण की रहने वाली घूमा देवी को क्या मिला? घूमा देवी कहती हैं, “सोचा था कि गैरसैंण राजधानी बन जाएगी तो हमारी पीढ़ियों का भविष्य बन जाएगा, लेकिन न तो गैरसैंण राजधानी बनी और न उत्तराखंड ऐसा राज्य बना, जो हमारे सपनों का पूरा करे।”
नौ नवंबर 2000 को उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000 के तहत उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) भारत का 27वां राज्य बना। छत्तीसगढ़ व झारखंड की तरह प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर उत्तराखंड के लोग अलग राज्य से पहले ही जल, जंगल व जमीन पर अधिकार की लड़ाई लड़ रहे थे और इन संसाधनों के लिए लड़ते-लड़ते लोगों को लगा था कि राज्य गठन के बाद उन्हें इन संसाधनों पर हक मिल जाएगा। “अब हमें लगता है कि संसाधनों पर कब्जा करने के लिए ही राज्य बनाया गया” चिपको व उत्तराखंड आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके पीसी तिवारी के ये शब्द बताते हैं कि लोग खुद को छला हुआ महसूस कर रहे हैं। तिवारी उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष हैं।
राज्य बनने के 25 साल बाद उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था कुलांचे भरती दिखती है। आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 में पेश गुलाबी तस्वीर के मुताबिक साल 2000 में राज्य की सकल घरेलू उत्पाद मूल्य (जीएसडीपी) मात्र 12,621 करोड़ रुपए थी, जबकि 2024-25 के बजट अनुमानों में राज्य की जीडीपी 3,94,675 करोड़ रुपए आंकी गई। यानी अर्थव्यवस्था का आकार लगभग 31 गुना बढ़ गया। राज्य की प्रति व्यक्ति आय में 2001-02 में 16,232 रुपए से लगभग 15 गुणा बढ़कर वित्त वर्ष 2023-24 में 2,46,178 रुपए तक पहुंच गई। लेकिन राज्य की लगभग आधी आबादी पहाड़ों में रहती है, जो इस तस्वीर का स्याह पक्ष है।(देखें : और गहरी हुई असमानता की खाई,)। …
यही वजह है कि आंदोलन से उपजे एक राज्य में 25 साल के बाद भी आंदोलन का सिलसिला जारी है। अल्मोड़ा के चौखुटिया में स्वास्थ्य आंदोलन चल रहा है। लोग राम गंगा के किनारे अनशन पर हैं। आंदोलनकारियों के एक जत्थे ने चौखुटिया से देहरादून तक लगभग 300 किलोमीटर की पैदल यात्रा की, हालांकि अभी तक उनकी मांग नहीं सुनी गई है। चौखुटिया से सटे गांव कोटूड़ा के नारायण सिंह बताते हैं कि उनका बेटा व बेटी इसी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की भेंट चढ़ गए थे। दोनों अलग-अलग समय में इलाज के लिए यहां आए, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाएं न होने के कारण उनकी मौत हो गई। ऐसे दर्जनों मामले होने के कारण लोगों ने अब आंदोलन का रास्ता अपनाया है।
उत्तराखंड के जंगलों को उसकी प्रमुख संपदा माना जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25 के मुताबिक राज्य में वन आवरण कुल क्षेत्रफल का 45 फीसदी है, लेकिन यह वन संपदा स्थानीय लोगों के काम आने की बजाय उन्हें खदेडने का काम ज्यादा कर रही है। अल्मोड़ा जिले के बिनसर वन्यजीव अभयारण्य के अधीन गांव सीमा निवासी सुशील कांडपाल का परिवार जंगल पर निर्भर था। उनके पास 10 गांव व तीन भैंसे थी। दूध-बेचकर परिवार का गुजर-बसर होता था। घास-चारा जंगल से लाते थे। पेड़ों से लीसा निकाल कर बेचते थे। चूल्हे से लेकर अन्य कई कामों के लिए लकड़ियां जंगल से आती थी, लेकिन अभयारण्य बनने के बाद उनसे जंगल छीन लिया गया। जब राज्य के लिए आंदोलन चला तो कांडपाल बढ़-चढ़कर हिस्से लेते थे, ये सोचकर अपनी सरकार बनेगी तो फिर से जंगल पर अधिकार होगा, परंतु राज्य बनने के बाद भी कुछ नहीं बदला तो उन्होंने गांव ही छोड़ दिया। अब उन्होंने मूल गांव से लगभग दो किमी नीचे सुनोली गांव में जमीन खरीदकर मकान बनाया और लीज पर खेती कर रहे हैं। गाय भैंस सब बेचनी पड़ी। कांडपाल कहते हैं कि जंगल पर अधिकार नहीं रहा तो गांव के लगभग सभी लोग पलायन कर चुके हैं। उल्लेखनीय है कि साल 1988 में बिनसर को वन्यजीव अभयारण घोषित किया गया था। सीमा की ही तरह मंडल गांव के लोगों के लिए उनका अपना जंगल अब केवल देखने की चीज रह गया है। मंडल, चमोली जिले का वह ऐतिहासिक गांव है जहां 1972 में ठेकेदारों द्वारा पेड़ों की कटाई के विरोध में ग्रामीणों के प्रतिरोध ने चिपको आंदोलन की नींव रखी। इसके दो साल रैणी गांव की महिलाओं ने चिपको आंदोलन को विश्वव्यापी ख्याति दी, लेकिन इस ख्याति के बावजूद लोगों से जंगल पर अधिकार छीन लिया गया। गांव के दरबान सिंह नेगी कहते हैं कि जिन अंगू के पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन चलाया, वहीं पेड़ हमारे किसी काम के नहीं रहे। राज्य में चिपको आंदोलन के पहले से ही राज्य में वन आंदोलन का इतिहास बहुत पुराना है। अंग्रेजों ने जैसे ही यहां अपना राज शुरू किया, सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों पर अपना कब्जा जमाना चाहा। लोगों ने जमकर विरोध किया, उन्हें शांत कराने के लिए 1931 में वन पंचायतों की अवधारणा लाई गई। इसके बाद अलग-अलग समय में वन पंचायतों को मजबूत किया गया, लेकिन राज्य बनने के बाद अब तक तीन बार वन पंचायत नियमावली में संशोधन किया गया है, जो उन्हें कमजोर कर रहा है। वन कानूनों पर काम कर रही संस्था लोक प्रबंध विकास संस्था के संयोजक ईश्वर जोशी ने डाउन टू अर्थ से कहा कि 2005 में वन पंचायतों में निजी पूंजी निवेश के रास्ते खोले गए और 2024 में राज्यस्तरीय परामर्शदात्री समिति में सरपंचों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनकर आने की संभावनाओं पर विराम लगा दिया गया।
देश की सबसे बड़ी नदियों का उद्गम स्थल उत्तराखंड है, इसके बावजूद गांव जल संकट का सामना कर रहे हैं। हाल ही में जल संरक्षण के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार पाने वाले मोहन कांडपाल कहते हैं क् पहाड़ों की असली पहचान वहां की नदियों, नौलों और धारों से निकलने वाले पानी से है। यही हमारा वर्तमान भी है और भविष्य भी। लेकिन शासन-प्रशासन की सोच हमेशा नदियों से पानी खींचकर पाइपों के जरिए लोगों तक पहुंचाने तक सीमित रही है। राज्य बनने के बाद भी यही रवैया जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि पानी का दोहन तो बढ़ा, लेकिन संरक्षण की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हो पाया। इसी कमी को देखते हुए हम जनता के सहयोग से पानी बोओ, पानी उगाओ मुहिम चला रहे हैं, जिसके तहत दर्जनों नौले-धारे फिर से जीवित हो रहे हैं। नदियों पर बने घराट भी उपेक्षा का शिकार हैं। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डेम्स, रीवरस एंड पीपुल के एसोसिएट कॉर्डिनेटर भीम सिंह रावत बताते हैं कि उन्होंने कुछ समय पहले एक अध्ययन में हमने पाया कि पौड़ी के चौथान पट्टी, जहां लगभग 72 गांव शामिल हैं में कुछ साल पहले तक यहां करीब 80 से अधिक घराट उपयोग में थे, लेकिन अब मुश्किल से 32 ही चालू स्थिति में हैं, लेकिन ये घराट बिजली उत्पादन नहीं कर रहे हैं। आटा पीसने का काम कर रहे हैं। रावत के मुताबिक घराटों के बंद होने का एक कारण बारिश का पैटर्न बदलना भी है। नदियों में पानी कम हो रहा है और बरसात में जब बाढ़ आती है तो ये घराट टूट जाते हैं। सरकार की ओर से इन घराटों को फिर से चालू करने में कोई रुचि नहीं होती। सरकार की ओर से कुछ योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उसका असर जमीन पर नहीं दिखता।
बेहद कम कृषि भूमि व सीढ़ीदार खेती के बावजूद ग्रामीणों की आजीविका का प्रमुख साधन खेती ही है। बिखरी जोत एक बड़ी समस्या है। यही वजह है कि लोग चकबंदी चाहते हैं। चकबंदी आंदोलन के प्रेरणता माने जाने वाले गणेश गरीब कहते हैं कि पहले उत्तर प्रदेश सरकार फिर अपनी उत्तराखंड सरकार ने चकबंदी की मांग को कभी गंभीरता से नहीं लिया। गरीब कहते हैं, “कुछ हम जैसे जुनूनी लोगों ने जब गांव वालों के साथ मिलकर चकबंदी की तो अब जंगली जानवर हमारे खेतों को बर्बाद कर रहे हैं। यही वजह है कि लोग अपनी जमीन बेच रहे हैं और सख्त भू-कानून न होने के कारण अमीर लोग होटल, रिजॉर्ट या सैरगाह के लिए जमीनें खरीद रहे हैं।”