उत्तराखंड: गहरी हुई असमानता की खाई

उत्तराखंड: गहरी हुई असमानता की खाई

राज्य में आर्थिक विकास हुआ है, प्रति व्यक्ति आय भी बहुत बढ़ी है, लेकिन यह मैदानों तक ही सीमित है - राजेंद्र पी ममगाई
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9 नवंबर 2000 को भारत सरकार ने उत्तराखंड को भारतीय संघ का 27वां राज्य बनाया। नए राज्य का मूल वादा था- पहाड़ों की उपेक्षा खत्म कर सुरक्षित व सम्मानजनक रोजगार देकर पलायन को रोकना। मानना होगा कि उत्तराखंड ने आर्थिक विकास की रफ्तार पकड़ी है। 2003 में 10 साल के लिए मिले रियायतयुक्त औद्योगिक पैकेज ने बड़े पैमाने पर उद्योगों को आकर्षित किया। इससे 2000 से 2019 के बीच राज्य का औद्योगिक उत्पादन 9.5 गुना बढ़ गया। राज्य के स्व-कर राजस्व में उल्लेखनीय बढ़ोतरी हुई, जो वर्ष 2000 के आधार-स्तर की तुलना में 22 वर्षों में 18 गुना से अधिक था। राज्य में औद्योगिक रोजगार 12 गुना बढ़ा। राज्य ने मानव विकास सूचकांक (जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा और आय शामिल हैं) में भी अपनी रैंकिंग में सुधार किया। सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में राज्य की प्रगति उल्लेखनीय रही। 2023-24 में उत्तराखंड 0.79 के स्कोर के साथ देश में पहले स्थान पर रहा। 2024-25 में उत्तराखंड की प्रति व्यक्ति वास्तविक आय 1,58,819 रुपए है, जो झारखंड (68,357 रुपए) और छत्तीसगढ़ (93,161 रुपए) की तुलना में कहीं अधिक है। ये आंकड़े 25 सालों में राज्य के आर्थिक समृद्धि की गवाही देते हैं।

लेकिन सवाल यह है कि इस समृद्धि का लाभ किसे मिला? राज्य के 86 प्रतिशत से अधिक भौगोलिक क्षेत्र पहाड़ी हैं, जहां लगभग 46 प्रतिशत आबादी रहती है। 2011 की जनगणना के अनुसार, पहाड़ी जिलों की लगभग 83 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है, जबकि मैदानी जिलों में यह अनुपात केवल 58 प्रतिशत है। पहाड़ी जिले अब भी आर्थिक अवसरों, स्वास्थ्य सेवाओं व शिक्षा जैसी सामाजिक बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच में काफी पीछे हैं। इन पहाड़ी क्षेत्रों का राज्य के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में हिस्सा 2011–12 के स्थिर मूल्यों पर लगभग 27 प्रतिशत है। यदि नैनीताल जिले को अलग कर दिया जाए, तो वर्ष 2021–22 में पहाड़ी क्षेत्र का जीएसडीपी में हिस्सा घटकर केवल 19 प्रतिशत रह गया। प्रति व्यक्ति आय भी पहाड़ी जिलों में लगातार कम बनी हुई है। साल 2011–12 से 2021–22 के बीच बागेश्वर व रुद्रप्रयाग जैसे जिलों की प्रति व्यक्ति आय हरिद्वार जिले की तुलना में लगभग 3.8 गुना कम रही।

यहां 2019-20 में लगभग दो-तिहाई आबादी की आजीविका कृषि से चलती है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में कृषि पर निर्भर आबादी का हिस्सा मात्र 28 प्रतिशत है, जो 2004-05 में लगभग 52 प्रतिशत था। पर्वतीय क्षेत्रों में केवल 4.3 प्रतिशत कार्यबल को ही औद्योगिक रोजगार मिलता है, जबकि मैदानी क्षेत्रों में यह हिस्सा 18.5 प्रतिशत है। यानी, राज्य के मैदानी इलाकों में केंद्रित आर्थिक वृद्धि ने रोजगार और आय दोनों में तरक्की की, परंतु पर्वतीय क्षेत्रों पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, जो निरंतर पलायन की वजह बना और “मैदान-केंद्रित विकास रणनीति” ने उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शहीदों की आकांक्षाओं को निरस्त कर दिया।

कम उत्पादकता के बावजूद कृषि पर निर्भरता के कारण 2019-20 में उत्तराखंड के कृषि क्षेत्र में प्रति श्रमिक सकल मूल्य संवर्धन (जीवीए) मात्र 38,297 रुपए था, जबकि विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों का प्रति व्यक्ति जीवीए कृषि श्रमिकों से 44.7 गुना अधिक था। निर्माण (कंस्ट्रक्शन) क्षेत्र में यह 13.2 गुना और अन्य निर्माण-संबंधी गतिविधियों में कार्यरत श्रमिकों के लिए 9.3 गुना अधिक था। राज्य में बेरोजगारी मुख्य रूप से युवाओं में केंद्रित है। राज्य में बेरोजगारों में से 80 प्रतिशत से अधिक 15–29 वर्ष आयु वर्ग के हैं। युवा महिलाओं में बेरोजगारी दर युवा पुरुषों की तुलना में अधिक है। शहरी क्षेत्रों में युवा महिलाओं की बेरोजगारी दर ग्रामीण महिलाओं की तुलना में तीन गुना अधिक (30.2 प्रतिशत) है। युवा महिलाओं में बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है। इसके विपरीत, युवा पुरुषों में बेरोजगारी दर राष्ट्रीय औसत से कम है। चिंता का विषय यह है कि उद्योग और तेजी से बढ़ते सेवाक्षेत्र द्वारा अपेक्षित कौशल की कमी और पर्वतीय क्षेत्रों में गैर-कृषि क्षेत्रों में रोजगार के अभाव ने युवाओं की रोजगार क्षमता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। पर्वतीय क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों के स्थायी अभाव और युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी ने वहां से दीर्घकालिक पलायन को तेज कर दिया है। इससे जनसांख्यिकीय असंतुलन पैदा हुआ है और उत्तराखंड की अंतरराष्ट्रीय सीमाओं पर सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी बढ़ी हैं।

पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों की बुनियादी जीवन-आवश्यकताओं जैसे गुणवत्तापूर्ण रोजगार, स्वास्थ्य सुविधाएं और कौशल विकास अवसरों में गहरी क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिए “पहाड़-केंद्रित विकास मॉडल” अपनाना अत्यंत आवश्यक है।

(लेखक दून विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग के अध्यक्ष एवं डीन हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं)

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