कुछ साल पहले सामाजिक कार्यकर्ता प्रमिला दंडवते ने एक चर्चा के अंत में मुझसे पूछा था कि क्या भारतीय पर्यावरणवाद / भारतीय पर्यावरण आंदोलन का प्रतीक स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक की तरह एक चरखा हो सकता है? मेरा उत्तर निश्चित रूप से ‘नहीं’ था।
मैंने तब से इस बारे में बहुत सोचा है। मेरी पहली प्रतिक्रिया थी कि साइकिल इसका सबसे अच्छा प्रतीक हो सकती है। गैर-प्रदूषणकारी वाहन होने के कारण यह पर्यावरणीय दृष्टि से अच्छा है और कम खर्चे के कारण सामाजिक दृष्टि से भी सही है।
साइकिल के इर्द-गिर्द बनी एक परिवहन प्रणाली ही समानता को बढ़ावा दे सकती है। साइकिल अपने सवार को फिट और स्वस्थ भी रखती है। इसलिए सभी दृष्टिकोण से यह एक महान प्रतीक है, सिवाय इसके कि यह चरखे की तरह भारतीय संस्कृति का उत्पाद नहीं है।
काफी सोच-विचार के बाद अब मैं मानता हूं कि गोबर इसका सही जवाब है। भारतीय समाज में गोबर का व्यापक और विविध उपयोग पर्यावरणवाद के हर सिद्धांत पर खरा उतरता है।
गोबर, गाय का अपशिष्ट उत्पाद होता है, जिसे भारत में अत्यधिक सम्मान दिया जाता है। लोग बिना झिझक इसे छू लेते हैं। यहां तक कि वे इस अपशिष्ट का उपयोग अपने मिट्टी के घरों को प्लास्टर करने के लिए भी करते हैं, ताकि मक्खियों को दूर रखा जा सके।
मैं अक्सर सोचता हूं कि ऐसी क्या चीज है, जो लोगों को इतने कल्पनाशील तरीके से गोबर का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है? किसी ने गाय के गोबर को बड़े चाव से देखा होगा और गौर किया होगा कि उसमें प्रयोग करने लायक कुछ निश्चित गुण हैं।
वह व्यक्ति शायद एक महिला रही होगी। मैं इसलिए यह कह रहा हूं क्योंकि महिलाएं मवेशियों का देखभाल करने में बहुत समय व्यतीत करती हैं। वह महिला स्पष्ट रूप से गोबर के रिसाइकलिंग के गुणों को बेहतर तरीके से जान रही होगी।
भारत में मवेशी बहुतायत में मौजूद हैं और साथ में गाय का गोबर भी। गाय के गोबर का सबसे बड़ा उपयोग हमारी कृषि प्रणालियों में होता है। लाखों साल से भारतीय मिट्टी का शोषण हुआ है, लेकिन फिर भी वह अब भी उर्वर है। यह इसलिए है क्योंकि भारतीयों ने न केवल खेती की बल्कि खेती और जानवरों की देखभाल के संयोजन का अभ्यास किया, जो उन्हें बड़ी मात्रा में पशु खाद तक पहुंच प्रदान करता है। पश्चिमी हिमालय के गांवों में गाय के गोबर का उपयोग आज भी उल्लेखनीय है।
पहाड़ों में मिट्टी स्वाभाविक रूप से खराब होती है, लेकिन उनमें साल दर साल खेती भी होती है। पहाड़ों के खेत केवल इसलिए उपजाऊ रहते हैं क्योंकि ग्रामीण बहुत सारे मवेशी रखते हैं और उनके गोबर का उपयोग खाद के रूप में करते हैं।
लकड़ियां ढोती महिलाओं की सभी तस्वीरों को ऊर्जा संकट का प्रतीक बताया जाता है, लेकिन यह गलतफहमी है। हर हिमालयी महिला के घर में काफी मात्रा में गाय का गोबर होता है, जिसे वे ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर सकती हैं। लेकिन वे ऐसा कभी नहीं करेंगी। इसके बजाय वे जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने के लिए घंटों जंगल में जाती हैं और गोबर का इस्तेमाल खेतों में होता है।
दुर्भाग्य से भारत के अन्य हिस्सों में महिलाओं के लिए अब जंगल नहीं है और उन्हें ईंधन के लिए गाय के गोबर का इस्तेमाल करना पड़ता है। नतीजतन हर साल लाखों टन गोबर खाना पकाने के ईंधन के रूप में जलाया जाता है। भारत के लिए गाय का गोबर बिजली, कोयला या पेट्रोलियम से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
वर्षों पहले ऊर्जा मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति में तत्कालीन ऊर्जा मंत्री सुशीला रोहतगी ने मुझसे पूछा था कि मुझे भारत की ऊर्जा नीति में क्या गलत लगता है? मैंने कहा था, इसका प्रबंधन। सबसे कम महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत यानी परमाणु ऊर्जा की देखभाल सबसे महत्वपूर्ण मंत्री अर्थात प्रधानमंत्री द्वारा की जाती है।
महत्व के क्रम में अगला नंबर बिजली, कोयला और पेट्रोलियम का होता है। इन सभी के लिए भी अलग-अलग विभाग और मंत्री हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण ऊर्जा स्रोत- जलाऊ लकड़ी, गाय का गोबर और कृषि अवशेष होते हैं, जिसके लिए कोई विभाग नहीं है। तो मैंने सुशीला जी को समझाया कि भारत की ऊर्जा प्रणाली को एक गोबर मंत्री (गाय-गोबर मंत्री) की जरूरत है।
सांसदों को पावरप्वाइंट प्रजेंटेशन दिखाते हुए मैंने उन्हें बताया कि कैसे गुजरात और राजस्थान के लोग सार्वजनिक जमीन पर पड़े गोबर के उपलों के घर को अपना बताने के लिए उस पर पत्थर या डंडा लगाते हैं। इसलिए मुझे पर्यावरणवाद की भावना का सर्वोत्तम प्रतीक गोबर लगा।
क्या आप मुझसे सहमत हैं कि गाय के गोबर का टीला भारत के पर्यावरणवाद का सबसे अच्छा प्रतीक है या मेरा सिर ही गोबर में बहुत अधिक घुस गया है?