भारत में बिजली कानूनों का इतिहास

बिजली क्षेत्र को रेग्युलेट करने के लिए सबसे पहले 1910 में इंडियन इलेक्ट्रसिटी एक्ट लागू किया गया
दार्जिलिंग में 1897 में स्थापित पहली जल विद्युत परियोजना
दार्जिलिंग में 1897 में स्थापित पहली जल विद्युत परियोजना
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तीसरी औद्योगिक क्रांति के बाद से बिजली को अर्थव्यवस्था और जीवन के लिए अनिवार्य माना जाने लगा। भारत में बिजली बनाने का पहला कारखाना 1899 में कलकत्ता में लगा था। यह पहला निजी कारखाना था और कंपनी का नाम कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कॉरपोरेशन था। डीजल से पहली बार बिजली का उत्पादन 1905 में दिल्ली में शुरू हुआ। जबकि इससे पहले मैसूर में 1902 में जल विद्युत उत्पादन केंद्र बनाया गया।

बढ़ते बिजली क्षेत्र को रेग्युलेट करने के लिए सबसे पहले 1910 में इंडियन इलेक्ट्रसिटी एक्ट लागू किया गया। इसके बाद 16 साल के बाद इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एक्ट 1926 लागू किया गया। आजादी के समय तक देश में 60 फीसदी बिजली उत्पादन का काम निजी कंपनियों के हाथ में था। उस समय देश में 1362 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था और मांग कम होने के बावजूद देश में बिजली कटौती बढ़ती जा रही थी। आजादी के बाद सबसे पहले 1948 में बिजली क्षेत्र को दुरुस्त करने के लिए एक कानून बनाने का प्रस्ताव आया। उस समय भीमराव आंबेडकर कानून मंत्री थे और एक्ट बनाने में उनकी भी महत्वपूर्ण भूमिका थी।

इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एक्ट 1948 में पूरे देश में बिजली से जुड़ी इकाइयों को समाहित करने के लिए सबसे पहले ग्रिड सिस्टम लागू करने की बात कही गई। साथ ही, निजी लाइसेंसिंग एजेंसी का खत्म कर राज्यों से कहा गया कि वे अपने-अपने राज्य में बिजली बोर्ड का गठन करें, जबकि केंद्र से संचालित करने के लिए केंद्रीय विद्धुत प्राधिकरण का गठन किया गया।

इसके बाद कुछ छिटपुट संशोधन होते रहे, लेकिन 1991 में देश में हुए कथित आर्थिक सुधारों के बाद देश में बिजली की दशा ही बदल गई। उस समय देश में केवल 70 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन होता था। तब वर्ष 1991 में बिजली आपूर्ति अधि‍नियम में संशोधन किए गए और बिजली उत्पादन क्षेत्र को प्राइवेट सेक्टर के लिए खोल दिया गया। वहीं, कुछ राज्यों ने अपने राज्य बिजली बोर्डों (एसईबी) का पुनर्गठन किया और कानूनों में सुधार करते हुए राज्य बिजली विनियामक आयोगों (एसईआरसी) का गठन किया। सबसे पहले 1996 में ओडिशा ने नियामक आयोग का गठन किया। वर्ष 1998 के बिजली विनियामक आयोग अधि‍नियम के तहत केंद्रीय बिजली विनियामक आयोग (सीईआरसी) की स्थापना की गई, ताकि राज्यों के विनियामक (रेग्युलेटरी) को स्थि‍रता प्रदान की जा सके।

लेकिन मुहावरा है कि मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। आर्थिक सुधार के साथ-साथ शुरू हुए बिजली सुधारों के बावजूद राज्यों के बिजली निगमों का वित्तीय घाटा और बढ़ता चला गया। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक वित्त वर्ष 2002 में यह घाटा बढ़कर 250 अरब रुपए (भारतीय सकल घरेलू उत्पाद का 1.5 प्रतिशत) तक पहुंच गया।

वहीं, इन निगमों पर केंद्र का कर्ज लगभग 400 अरब रुपए तक पहुंच गया था, इसका नतीजा यह निकला कि राज्य बिजली निगमों को केंद्रीय सहायता या बेल आउट पैकेज देना पड़ा।

आखिरकार एक और नया बिजली कानून लाया गया, जिसे विद्युत अधिनियम-2003 कहा गया। इस कानून ने थर्मल उत्पादन को लाइसेंस मुक्त कर दिया। साथ ही, ट्रांसमिशन और वितरण तक “ओपेन ऐक्सेस” के लिए समय सीमा तय कर दी। पावर ट्रेडिंग एक नई लाइसेंस युक्त इकाई के रूप में सामने आई और उत्पादन और ट्रांसमिशन के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर को प्रवेश मिला। यही वजह है कि वर्ष 1991 और 2012 के बीच उत्पादन क्षमता तीन गुनी होकर 2.14 लाख मेगावाट तक पहुंच गई, जिसमें निजी क्षेत्र का योगदान 3 प्रतिशत से बढ़कर 29 प्रतिशत हो गया।

अक्षय ऊर्जा की उत्पादन क्षमता में तेजी से इजाफा हुआ, क्योंकि ग्रिड और ऑफ-ग्रिड दोनों के उत्पादन में फीड-इन टैरिफ की घोषणा, वितरण क्षेत्र में अक्षय ऊर्जा खरीदने की बाध्यता, अक्षय ऊर्जा सर्टिफिकेट जैसे सरकारी प्रोत्साहन शुरू किए गए। 1990 में 18 मेगावाट की ग्रिड कनेक्टेड अक्षय ऊर्जा क्षमता बढ़कर वर्ष 2013 के मार्च में 25,856 मेगावाट हो गयी, जबकि ऑफ-ग्रिड अक्षय ऊर्जा क्षमता इस समय 825 मेगावाट हो गई।

इस इलेक्ट्रिसिटी एक्ट ने बिजली के व्यापार (ट्रेडिंग) को एक लाइसेंसयुक्त गतिविधि के रूप में मान्यता दी। इसके चलते जहां बिजली उत्पादन के क्षेत्र में निजी क्षेत्र का प्रवेश बढ़ गया। वहीं, वितरण व्यवस्था में सुधार के लिए मल्टी लाइसेंस देने का सिलसिला शुरू हुआ।

दरअसल, 2003 के एक्ट में प्रावधान किया गया था कि निजी क्षेत्र अगर बिजली उत्पादन के प्लांट लगाता है तो उन्हें लाभ की गारंटी दी जाएगी। इससे बिजली उत्पादन में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई। यही वजह है कि 2020 में देश के पास कुल खपत के मुकाबले दोगुना बिजली उपलब्ध है।

इस इलेक्ट्रिसिटी एक्ट के लागू होने के बाद राज्य बिजली बोर्डों (एसईबी) को खत्म कर दिया गया और उनकी जगह निगमों का गठन किया गया। इसके अलावा, केंद्रीय और राज्य स्तर पर स्वतंत्र नियामकों (रेग्युलेटर्स) और अपीलेट ट्रिब्यूनल की भी स्थापना की गई।

लेकिन वितरण के क्षेत्र में सुधार नहीं हुआ। ज्यादातर राज्यों में बिजली वितरण का काम बिजली बोर्ड भंग करके बनाए गए वितरण निगम को सौंप दिया गया। हालांकि कोलकाता, मुंब‍ई, सूरत और अहमदाबाद में निजी क्षेत्र की कंपनियां ही वितरण करती रही। बाद में दिल्ली में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल के तहत निजी कंपनियों को वितरण का काम सौंप दिया गया।

2014 में विश्व बैंक की एक और रिपोर्ट आई। इसमें कहा गया कि बिजली अधिनियम 2003 में संशोधन की जरूरत है, क्योंकि वितरण क्षेत्र लगातार घाटे में जा रहा है। इस रिपोर्ट में बताया गया कि पावर सेक्टर को वर्ष 2011 में 618 अरब रुपए (14 अरब डॉलर) का घाटा हुआ, जो भारत के सकल राजकोषीय घाटे का लगभग 17 प्रतिशत और जीडीपी का लगभग 1 प्रतिशत है। इस घाटे की वजह वितरण कंपनियों (डिस्कॉम्स) को बताया गया।

वर्ल्ड बैंक की इस रिपोर्ट के बाद 19 दिसंबर 2014 को इलेक्ट्रिसिटी एमेंडमेंट बिल 2014 लोकसभा में रखा गया। 22 दिसंबर 2014 को स्थायी समिति को यह बिल सौंप दिया गया और 7 मई 2015 को स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी, लेकिन उसके बाद बिल लटक गया।

इसके बाद सरकार ने बिल का एक और ड्राफ्ट सितंबर 2018 में जारी किया गया। लेकिन इसका व्यापक विरोध किया गया और केंद्र सरकार इस विरोध से बचने के लिए बिल को पेश करने से बचती रही। अब कोरोना संक्रमण काल में केंद्र सरकार ने एक बार फिर संशोधित बिल का ड्राफ्ट सार्वजनिक कर दिया है।

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