बिजली कानून में संशोधन के बहाने क्या चाहती है सरकार?

कोविड-19 आपदा के बीच केंद्र सरकार ने बिजली अधिनियम 2003 में संशोधन का ड्राफ्ट जारी किया, लेकिन इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है। पड़ताल करती एक रिपोर्ट-
इलस्ट्रेशन : रितिका बोहरा / सीएसई
इलस्ट्रेशन : रितिका बोहरा / सीएसई
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राजधानी दिल्ली से लगभग 130 किलोमीटर दूर गांव बहीन में 1955-56 में बिजली पहुंची थी। 65 साल हो चुके हैं, लेकिन इस गांव के लोगों को आज तक कभी भी पूरा दिन बिजली नहीं मिली। दो साल पहले जब हरियाणा सरकार ने “जगमग” योजना शुरू की थी तो दावा किया था कि गांव में दिन के 22 घंटे बिजली आएगी, लेकिन 22 घंटे तो दूर गांव में 16 घंटे बिजली नहीं मिल रही है। उलटे, तेज हवा या आंधी की वजह से अकसर लोगों को कई-कई दिन तक बिना बिजली के रहने पड़ता है। बीती 3 जुलाई को जब ऐसे ही बिजली गुल हो गई और दो दिन तक नहीं आई तो गुस्से में भरे लोगों ने गांव में बने सब स्टेशन पहुंचकर ताला जड़ दिया। तब जाकर बिजली ठीक हुई।

यह एक बानगी भर है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली आपूर्ति को लेकर आए दिन आंदोलनों की खबर आती रहती हैं। यह स्थिति तब है, जब देश में मांग के मुकाबले लगभग दोगुनी बिजली उपलब्ध है। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) के मुताबिक, 30 अप्रैल 2020 तक देश की बिजली उत्पादन क्षमता 3,70,348 मेगावाट हो चुकी थी, जबकि देश में अधिकतम बिजली की मांग 1,83,804 रिकॉर्ड की गई है। आशय है कि देश के पास 1,86,544 मेगावाट अधिक बिजली है। बावजूद इसके, गांवों को पूरी बिजली नहीं मिल पा रही है और शहरों में भी घंटों बिजली कटौती होती रहती है। वर्तमान सरकार लगातार दावा करती रही है कि उसके शासनकाल में देश के सभी गांवों में बिजली पहुंचाई गई है और मार्च 2019 तक देश के 99.93 प्रतिशत घरों में बिजली पहुंच चुकी है, केवल वही घर शेष रह गए हैं, जो बिजली का कनेक्शन लेने के इच्छुक नहीं हैं। लेकिन क्या हर घर तक बिजली पहुंचा देना काफी है। दिसंबर, 2018 में जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर गांव तक बिजली पहुंचने के बावजूद लोगों को बिजली नहीं मिल रही है और अकेले 2016 में भारत को बिजली अनियिमिताओं के कारण अपनी सकल घरेलू आय (जीडीपी) का 4 फीसदी नुकसान झेलना पड़ा। इसमें 1.42 फीसदी नुकसान केवल ग्रामीण क्षेत्राें में बिजली न मिलने के कारण हुआ।

अब ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर लोगों को बिजली मिल क्यों नहीं मिल पा रही है? सरकारी कागजों में इसकी वजह वितरण व्यवस्था में खामी बताई जा रही है और इसी खामी को दूर करने के लिए अब केंद्र सरकार ने बिजली संशोधन अधिनियम 2020 का ड्राफ्ट सार्वजनिक किया है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि कोरोनावायरस संक्रमण के दौर में जब पूरे देश में लॉकडाउन घोषित था तब केंद्रीय विद्युत मंत्रालय द्वारा 17 अप्रैल 2020 को यह ड्राफ्ट सार्वजनिक किया गया। इतना ही नहीं, मंत्रालय ने इस ड्राफ्ट पर आपत्ति या सुझाव दर्ज कराने के लिए केवल 21 दिन का समय दिया। इस ड्राफ्ट को देखकर बिजली क्षेत्र के जानकार चौंक गए। आखिर सरकार को ऐसा क्या सूझा कि कोरोना काल में ही इस बिल को पेश करना पड़ा? बावजूद इसके, 350 आपत्तियां या सुझाव सरकार के पास दर्ज कराए गए। इनमें सबसे अधिक निजी कंपनियों ने 123 आपत्तियां या सुझाव दर्ज कराए हैं, जबकि श्रमिक या अन्य संगठनों ने 117 और व्यक्तिगत तौर पर 63 आपत्तियां या सुझाव दर्ज कराए गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि इस अधिनियम में किए जा रहे नए संशोधनों से सबसे अधिक राज्य सरकारें प्रभावित होंगी, बावजूद इसके केवल 16 राज्य सरकारों ने इस ड्राफ्ट पर अपनी राय रखी है।

राज्य के अधिकारों में दखल

इस संशोधित कानून को लेकर आपत्तियां तो बहुत सी है, लेकिन सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि इसमें राज्य सरकारों के अधिकारों का हनन किया जा रहा है। 1997-98 में केंद्रीय ऊर्जा सचिव रह चुके ईएएस सरमा इस नए बिल से खासे नाराज हैं। वह कहते हैं कि केंद्र सरकार देश के संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाना चाहती है। इस ड्राफ्ट में कहा गया है कि कानून बनने के बाद देश में इलेक्ट्रिसिटी कांट्रेक्ट इंफोर्समेंट अथॉरिटी (ईसीईए) का गठन किया जाएगा, जो कांट्रेक्ट (ठेकों) की समीक्षा करेगी। इसके पीछे केंद्र सरकार की मंशा है कि राज्य सरकारें समय-समय पर ठेकों की समीक्षा न कर सकें और यह काम केंद्र सरकार करे। वह बताते हैं कि पिछले कुछ सालों के दौरान राज्य सरकारों ने सौर ऊर्जा परियोजनाओं से संबंधित कुछ पुराने ठेके इसलिए रद्द कर दिए, क्योंकि वे महंगे साबित हो रहे थे। चूंकि ये ठेके ऐसी कंपनियों के पास थे, जो केंद्र सरकार की चहेती हैं, इसलिए केंद्र सरकार नहीं चाहती कि ये ठेके रद्द हों।

इसके अलावा केंद्र सरकार भी राज्यों के नियामक आयोगों में अपनी दखल बढ़ाना चाहती है। इस बिल के माध्यम से केंद्र सरकार यह जताना चाहती है कि राज्य सरकारों के पास वित्तीय अनुशासन की कमी है और केवल केंद्र सरकार ही उन्हें अनुशासित कर सकती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि केंद्र सरकार राज्यों को उनके संसाधनों को हस्तांतरण करने में विफल रही, जिस कारण राज्यों को वित्तीय दबाव का सामना करना पड़ा।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी एवं हरियाणा विद्युत बोर्ड के चेयरमैन रह चुके एमजी देवाश्याम बताते हैं कि बिजली अधिनियम-2003 की धारा 85 में यह प्रावधान था कि राज्य सरकारें ही राज्य विद्युत नियामक आयोग (एसईआरसी) के सदस्यों की नियुक्ति के लिए एक चयन समिति बनाएंगी। लेकिन अब नए प्रस्तावित अधिनियम में धारा 78 के तहत एसईआरसी सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार केंद्र को दिया जा रहा है। इससे राज्य सरकारों द्वारा नियामकों के साथ-साथ बिजली की दरों के निर्धारण में हस्तक्षेप पूरी तरह खत्म हो जाएगा। इसके अलावा राज्य सरकारें इलेक्ट्रिसिटी कांट्रेक्ट इन्फोर्समेंट अथॉरिटी का भी विरोध कर रही हैं। अब तक जिन राज्यों ने इस ड्राफ्ट का विरोध किया है, उनमें पंजाब, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, केरल, तेलंगाना, पुडुचेरी, झारखंड, महाराष्ट्र प्रमुख हैं।

निजीकरण की मंशा

इस नए संशोधित बिल के पीछे केंद्र की एक और बड़ी मंशा है। बिजली के उत्पादन में निजी क्षेत्र की भागीदारी लगातार बढ़ रही है, लेकिन वितरण क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी लगभग न के बराबर है। केंद्र सरकार बिजली वितरण क्षेत्र में निजी भागीदारी बढ़ाना चाहती है। इसके लिए बिल में प्रावधान किया गया है कि वितरण के क्षेत्र में केरिज और कंटेंट अलग-अलग किया जाए। इसका मतलब था कि बिजली वितरण और आपूर्ति को अलग-अलग करना। ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन के अध्यक्ष शैलेंद्र दूबे बताते हैं कि दरअसल विश्व बैंक और देश के बड़े निजी घराने पावर सेक्टर का निजीकरण करने पर तुले हुए हैं, इसलिए केंद्र सरकार चाहती है कि घरों-संस्थानों में बिजली आपूर्ति और बिल वसूली का काम निजी कंपनियों को सौंपा जाए। इसलिए केंद्र सरकार ने यह बिल तैयार किया।

दूबे कहते हैं कि सरकार ने इसे फ्रेंचाइजी मॉडल का नाम दिया है, जिसे वह पूरे देश में लागू करना चाहती है। यह मॉडल लागू होता है तो राज्यों के विद्युत वितरण निगम ट्रांसफाॅर्मर तक बिजली पहुंचाएंगे और उसके बाद फ्रेंचाइजी एजेंसी का काम होगा कि वह घर-घर तक बिजली पहुंचाना और बिल की वसूली करना। अभी सरकार यह कह रही है कि उपभोक्ता के पास यह अधिकार होगा कि वह जिस तरह मोबाइल कंपनियों का कनेक्शन बदल सकते हैं, उसी तरह वे बिजली कंपनियों की सेवा पसंद में न आने पर कनेक्शन बदल भी सकते हैं। लेकिन सरकार यह नहीं बता रही है कि ग्रामीण इलाकों व गरीब बस्तियों में जहां लोग महंगी बिजली खरीदने में सक्षम नहीं होंगे, वहां बिजली कौन पहुंचाएगा। क्या प्राइवेट कंपनियां ऐसे इलाके में बिजली पहुंचाने के लिए तैयार होंगी, जहां से उनकी कम आमदनी होगी या जहां एसी-कूलर न होने के कारण बिजली की खपत कम होगी।

दूबे आशंका जताते हैं कि यह नया अधिनियम लागू होने के बाद प्राइवेट कंपनियां केवल महंगे इलाकों में ही बिजली सप्लाई करने में इच्छा जताएंगी, जबकि ग्रामीण या गरीब बस्तियों में या तो सरकारी निगमों से ही बिजली आपूर्ति कराई जाएगी या किसी ऐसी निजी कंपनियों को लाइसेंस दिया जाएगा, जो न तो 24 घंटे बिजली देंगी और न ही बिजली की क्वालिटी ही अच्छी होगी।

सब्सिडी पर विवाद

नए बिल में यह भी प्रस्ताव किया गया है कि राज्य सरकारें उपभोक्ताओं को सीधे सब्सिडी दें। अभी का प्रावधान है कि राज्य सरकारें डिस्कॉम्स को सब्सिडी की राशि देती हैं और डिस्कॉम्स उस राशि को कम करके उपभोक्ताओं से बिल वसूलते हैं, लेकिन केंद्र सरकार इसमें सीधे लाभार्थी को स्थानांतरण (डीबीटी) की बात कर रही है। सरमा कहते हैं कि ज्यादातर राज्य ग्रामीणों और बिजली की कम खपत करने वाले गरीब लोगों को सब्सिडी देती है, लेकिन क्या संभव है कि पहले ग्रामीण और गरीब लोग बिजली कंपनियों के बिल का पूरा भुगतान कर दें और उसके बाद उनके खाते में पैसा आए। यह भी सीधे-सीधे निजी कंपनियों के फायदे के लिए किया जा रहा है, क्योंकि राज्य सरकारें सब्सिडी की राशि ट्रांसफर करने में समय लगाती हैं, जबकि डीबीटी करने पर निजी कंपनी को पहले पैसा पहुंच जाएगा, जबकि परेशानी कम आमदनी वाले लोगों को होगी।

हमेशा आरोप लगता रहा है कि राज्य सरकारें किसानों को सस्ती बिजली और सब्सिडी देना चाहती हैं, इसलिए बिजली वितरण का काम अपने निगमों को सौंप दिया, लेकिन भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता धर्मेंद्र मलिक इस आरोप को खारिज करते हुए कहते हैं कि किसान को अपनी फसल के लिए बिजली नहीं चाहिए, उसे सिर्फ पानी चाहिए। अगर सरकार पानी उपलब्ध करा दे तो किसान कभी भी सस्ती बिजली की मांग नहीं करेगा। लेकिन यह अब तक संभव नहीं हो सका है। अभी भी देश में केवल 40 फीसदी खेती में सिंचाई की सुविधा है। ऐसे में, न जाने कितने साल लग जाएंगे, जब किसान के हर खेत में पानी पहुंचेगा।

मलिक कहते हैं कि दरअसल सरकार की असली मंशा किसानों को खेती से दूर करना है, ताकि कॉरपोरेट समूह ही खेती करें। इसके लिए बिजली अधिनियम जैसे कानून लाए जा रहे हैं। अभी किसान को सस्ती बिजली मिलती है और वह ट्यूबवेल लगाकर खेतों की सिंचाई करता है, लेकिन जब िबजली महंगी हो जाएगी तो खेती की लागत बढ़ जाएगी। मलिक के मुताबिक, इस अधिनियम के खिलाफ हम अपनी राय से सरकार को अवगत करा चुके हैं। देखते हैं, इसका क्या असर पड़ता है। अगर सरकार नहीं मानी तो किसान सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने को मजबूर हो जाएंगे।

विश्व बैंक का दखल

भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी एवं हरियाणा विद्युत बोर्ड के चेयरमैन रह चुके एमजी देवाश्याम कहते हैं कि भारत ने अपने बिजली क्षेत्र के लिए 1995-96 में विश्व बैंक द्वारा प्रायोजित बाजार उन्मुख मॉडल अपनाया। तब से ही भारत विश्व बैंक द्वारा बनाई गई नीतियों को अपनाने के लिए मजबूर है। जबकि विश्व बैंक के विशेषज्ञ भारत की वास्तविक दशा से वाकिफ नहीं हैं। अब भी जो नया बिल लाया जा रहा है, उसमें भी विश्व बैंक का दखल है। वह कहते हैं कि जब 2013-14 में बिजली की दिक्कत बढ़ गई तो भारत सरकार फिर से विश्व बैंक के पास कर्जे के लिए गई तब विश्व बैंक ने बिजली अधिनियम 2003 में संशोधन का प्रस्ताव रखा था, जिसे अब लागू किया जा रहा है। अगर यह लागू होता है तो इससे गरीब व ग्रामीण उपभोक्ताओं को या तो बिजली नहीं मिलेगी या बिजली महंगी मिलेगी।

बीती तीन जुलाई को इस संदर्भ में हुई बैठक के बाद ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने राज्यों की बात तो सुनी, लेकिन साथ ही कहा कि केंद्र की ओर से तब ही वित्तीय या अन्य सहायता दी जाएगी, जब राज्य सरकारें अधिनियम में संशोधन के लिए तैयार होंगी। हालांकि उन्होंने भरोसा दिलाया कि केंद्र राज्य सरकारों की कुछ आपत्तियों पर विचार करेंगे, लेकिन इस मामले में भाजपा शासित राज्यों की ओर से विरोध होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में लगता है कि केंद्र सरकार बिजली (संशोधन) अधिनियम 2020 लागू कराने में सफल हो जाएगी और इसके साथ ही देश में बिजली के क्षेत्र में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा, इसका आम जनता को क्या फायदा मिलेगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इस बदलाव को निजी क्षेत्र के लिए आपदा में अवसर के तौर पर जरूर याद रखा जाएगा।

रिपोर्ट का अगला हिस्सा पढ़ने के लिए क्लिक करें:भारत में बिजली अधिनियमों का इतिहास 

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