हर घर में स्वच्छ ईंधन से पकाया जाए खाना तो हर साल बच सकती हैं 25 लाख जिंदगियां

ईंधन संग्रह करने और खाना पकाने में महिलाएं और बच्चियों को औसतन हर दिन पांच घंटे का समय लगता है। जो कई महिलाओं को शिक्षा, रोजगार, मनोरंजन के साथ वित्तीय स्वतंत्रता हासिल करने से रोक रहा है
श्रीलंका में चूल्हे पर खाना तैयार करती महिला; फोटो: आईस्टॉक
श्रीलंका में चूल्हे पर खाना तैयार करती महिला; फोटो: आईस्टॉक
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दुनिया के हर घर तक खाना पकाने के स्वच्छ ईंधन और साधनों की पहुंच से हर साल 25 लाख लाख जिंदगियां बचाई जा सकती हैं। यह ऐसी समस्या है जिस मामूली निवेश से हल किया जा सकता है। इसकी वजह से वायु प्रदूषण के स्तर में जो कमी आएगी वो करोड़ों लोगों के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होगी।

साथ ही इससे जलवायु परिवर्तन, लैंगिक समानता, और विकास जैसे मुद्दों को हल करने में मदद मिलेगी। रिपोर्ट के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा फायदा विशेष तौर पर घरों में रहने वाली महिलाओं और बच्चों को होगा। इसकी मदद से एक औसत परिवार हर दिन कम से कम डेढ़ घंटे का समय बचा पाएगा। जिससे घरों में काम करने वाली महिलाओं को शिक्षा, रोजगार या मनोरंजन जैसी अन्य गतिविधियों के लिए अतिरिक्त समय मिल सकेगा।

यह जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) और अफ्रीकन डेवलपमेंट बैंक ग्रुप द्वारा जारी नई रिपोर्ट "विजन फॉर क्लीन कुकिंग एक्सेस फॉर ऑल 2030" नामक रिपोर्ट में सामने आई है। रिपोर्ट के अनुसार सस्ते समाधान, 2030 तक करोड़ों लोगों को खाना तैयार करने के आधुनिक साधनों तक पहुंच प्रदान कर सकते हैं, लेकिन इसके बावजूद दुनिया ऐसा करने में विफल हो रही है।

आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में आज भी हर तीसरा व्यक्ति यानी 230 करोड़ लोग अपना भोजन खुली आग या बुनियादी स्टोव/चूल्हों पर पकाते हैं। इसके लिए वो मिट्टी का तेल, लकड़ी, कोयला, कंडे या फसलों के बचे अवशेष जैसे साधनों का उपयोग करते हैं। इसकी वजह से बड़ी मात्रा में घरेलू वायु प्रदूषण होता है। जो पर्यावरण के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा आंकड़ों पर गौर करें तो यह घरेलू वायु प्रदूषण हर साल करीब 32 लाख लोगों की जिंदगियां छीन रहा है। इसमें पांच वर्ष या उससे कम उम्र के 2.37 लाख बच्चे भी शामिल हैं। जो इसे वैश्विक स्तर पर असामयिक होने वाली मौतों का तीसरा सबसे बड़ा कारण बनाता है।

यदि शहरी और ग्रामीण परिवेश के आधार पर देखें तो जहां शहरी क्षेत्रों में केवल 14 फीसदी, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 52 फीसदी आबादी इन प्रदूषण फैलाने वाले ईंधन और तकनीकों पर निर्भर है। यह समस्या कमजोर और माध्यम आय वाले देशों जैसे भारत में कहीं ज्यादा विकट है।

इस प्रदूषण के संपर्क में आने से स्ट्रोक, हृदय रोग, क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) और फेफड़ों के कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। गौरतलब है कि ईंधन संग्रह और भोजन तैयार करने की बोझ आमतौर पर महिलाओं और बच्चियों पर पड़ता है। जो लकड़ी इकट्ठा करने और उपले बनाने जैसी गतिविधियों में अपने दिन का अच्छा-खासा समय खर्च करती हैं।

अनुमान है कि इसमें औसतन हर दिन पांच घंटे लगते हैं। जो कई महिलाओं को शिक्षा, रोजगार, मनोरंजन या व्यवसाय शुरू करने के साथ वित्तीय स्वतंत्रता हासिल करने से रोकता है। वहीं खाना पकाने के साफ-सुथरे, और स्वच्छ साधनों की मदद से एक औसत परिवार हर दिन कम से कम डेढ़ घंटे का समय बचा पाएगा। इसकी वजह से महिलाओं और बच्चियों को शिक्षा, रोजगार या मनोरंजन जैसी अन्य गतिविधियों के लिए अतिरिक्त समय मिल सकेगा।

हर साल उत्सर्जन में भी आएगी 150 करोड़ टन की गिरावट

यदि वैश्विक स्तर पर देखें तो इसकी वजह से जो समय की बचत होगी वो करीब-करीब जापान में कुल श्रम शक्ति के वार्षिक कार्य घंटों के बराबर होगी। इसकी वजह से वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी भारी गिरावट आएगी जो प्रतिवर्ष करीब 150 करोड़ टन के बराबर होगी, जो सभी जहाजों और विमानों से होने वाले कुल उत्सर्जन के बराबर है।

इस बारे में आईईए के कार्यकारी निदेशक फातिह बिरोल का कहना है कि यह एक ऐसा विषय है जो शायद ही सुर्खियों में आता है। राजनैतिक एजेंडा में भी इसे तवज्जो नहीं दी जाती। हालांकि इसके बावजूद यह वैश्विक स्तर पर ऊर्जा पहुंच, लैंगिक समानता, आर्थिक विकास और मानवीय गरिमा में सुधार के वैश्विक प्रयासों की आधारशिला है।"

रिपोर्ट दर्शाती है कि 2030 तक वैश्विक स्तर पर इसपर 800 करोड़ डॉलर का वार्षिक निवेश सार्वभौमिक तौर पर खाना पकाने के स्वच्छ साधनों तक पहुंच हासिल की जा सकती है। जो कि दुनिया में हर साल ऊर्जा पर होने वाले खर्च का एक छोटा सा हिस्सा है। देखा जाए तो यह 2022 में वैश्विक स्तर पर सरकारों द्वारा अपने नागरिकों के लिए ऊर्जा को किफायती बनाने के उपायों पर किए गए  खर्च का एक फीसदी से भी कम हिस्सा है।

उनके अनुसार इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है जो किफायती भी है। खाना पकाने के लिए लकड़ी और कोयले पर निर्भरता के चलते बड़े पैमाने पर वनों का विनाश भी हो रहा है। इनकी वजह से हर साल आयरलैंड के आकार के बराबर वन क्षेत्रों का सफाया हो रहा है।

रिपोर्ट के अनुसार पिछले दशक इस दिशा में हो रही वैश्विक प्रगति धीमी रही है। जो कुछ मुट्ठी भर देशों तक ही सीमित है। हालांकि 2010 के बाद से भारत, चीन, इंडोनेशिया ने इन दूषित साधनों पर निर्भरता को आधा कर दिया है। ये प्रयास काफी हद तक मुफ्त स्टोव, गैस और एलपीजी के रियायती सिलेंडर उपलब्ध कराने जैसे प्रयासों पर निर्भर थे। भारत में शुरू की गई उज्ज्वला योजना इसका ही एक उदाहरण है। इस योजना के तहत 21 मई 2023 तक करीब 9.6 करोड़ कनेक्शन उपलब्ध कराए गए हैं।

वहीं दूसरी तरफ इसी अवधि के दौरान, खाना पकाने की साफ-सुथरे साधनों के बिना जीवन व्यतीत कर रही अफ्रीका की आबादी में वृद्धि जारी है। यदि मौजूदा नीतियों और इस दिशा में हो रहे विकास के आधार पर देखें तो अधिकांश अफ्रीकी देश 2050 तक भी शत-प्रतिशत आबादी के लिए खाना पकाने के स्वच्छ साधनों के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगें।

इसके बावजूद भारत में अभी भी करीब 44.8 करोड़, चीन में 18.5 करोड़, बांग्लादेश में 12.8 करोड़ और पाकिस्तान में 11.7 करोड़ लोग खाना पकाने के लिए प्रदूषण पैदा करने वाले साधनों पर निर्भर हैं।

ऐसे में यदि सतत विकास सातवें लक्ष्य को हासिल करना है तो 2030 तक हर साल करीब 30 करोड़ लोगों के लिए खाना पकाने के स्वच्छ साधनों की व्यवस्था करनी होगी। इसमें से करीब आधे प्रयास उप-सहारा अफ्रीका में करने होंगें। जो दर्शाता है कि अंतरराष्ट्रीय प्रयासों को कहां अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

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