जलवायु परिवर्तन से बिगड़ती अर्थव्यवस्था की सेहत, तीन डिग्री सेल्सियस से जीडीपी को लगेगी दस फीसदी की चोट

रिसर्च के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा खामियाजा कमजोर और गर्म जलवायु वाले देशों को भुगतना पड़ेगा, जहां जीडीपी को 17 फीसदी तक की चपत लग सकती है
लू के थपेड़ों के बीच काम के दौरान अपनी प्यास बुझाता मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
लू के थपेड़ों के बीच काम के दौरान अपनी प्यास बुझाता मजदूर; फोटो: आईस्टॉक
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वैश्विक स्तर पर जिस तरह से जलवायु में बदलाव आ रहे है उससे देश-दुनिया में अर्थव्यवस्था की सेहत बिगड़ रही है। इस बारे में हाल ही में किए गए एक नए अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक तापमान में तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ सकल घरेलु उत्पाद (जीडीपी) को दस फीसदी का नुकसान झेलना पड़ सकता है।

अध्ययन के मुताबिक इसका सबसे ज्यादा खामियाजा कमजोर और गर्म जलवायु वाले देशों को भुगतना पड़ेगा, जहां जीडीपी को 17 फीसदी तक की चपत लग सकती है। यह अध्ययन ईटीएच ज्यूरिख, इंपीरियल कॉलेज लंदन, बर्न और डेलावेयर विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं की टीम द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे 17 अप्रैल 2024 को जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित हुए हैं।

यह अध्ययन ईटीएच ज्यूरिख से जुड़े शोधकर्ता पॉल वेडेलिच के नेतृत्व में किया गया है। अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बढ़ते तापमान के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए 33 वैश्विक जलवायु मॉडलों से प्राप्त आंकड़ों का उपयोग किया है।

अध्ययन में इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि बारिश और तापमान में आते बदलावों की वजह से जलवायु परिवर्तन की यह लागत कहीं ज्यादा भी बढ़ सकती है। अर्थशास्त्री पॉल वैडेलिच ने इस बारे में प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि, "गर्म वर्षों में तापमान के साथ-साथ बारिश में भी बदलाव आता है।

ऐसे में उच्च तापमान का अनुमानित प्रभाव वास्तव में कहीं ज्यादा गंभीर होता है।" उनके मुताबिक ऐसे में इन बदलावों और चरम सीमा को नजरअंदाज करने से तापमान में होते बदलावों से होने वाले नुकसान को कम करके आंका जा सकता है।

रिसर्च के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक वैश्विक स्तर पर तीन डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ जीडीपी को हो नुकसान होने का अंदेशा है उसका करीब एक तिहाई हिस्सा भीषण गर्मी से जुड़ा है। हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं ने इस बात की भी पुष्टि की है कि यह बढ़ता तापमान कनाडा जैसे ठंडे देशों के लिए फायदेमंद लग सकता है। लेकिन जैसा कि 2021 में भी देखा गया है इसकी वजह से लू जानलेवा रूप ले सकती है जो अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डालती है।

विश्लेषण से पता चला है कि लू का लोगों के जीवन और आर्थिक गतिविधियों पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है। अध्ययन में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि तापमान बढ़ने का सबसे ज्यादा असर अफ्रीका और मध्य पूर्व के देशों पर पड़ेगा। गौरतलब है कि इन देशों में तापमान पहले ही बेहद ज्यादा है, वहीं जिस तरह से वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, वहां स्थिति कहीं ज्यादा खराब हो सकती है।

शोध में बढ़ते तापमान की वजह से बारिश पर पड़ते प्रभावों का भी खुलासा किया गया है। रिसर्च के मुताबिक तापमान में तीन डिग्री की वृद्धि के साथ वैश्विक स्तर पर भारी बारिश की सम्भावना भी बढ़ जाएगी। आशंका है कि इसकी वजह से वैश्विक जीडीपी में औसतन 0.2 फीसदी की कमी आ सकती है।

हालांकि आपको देखने में 0.2 फीसदी का यह आंकड़ा बड़ा न लगे लेकिन यह मौजूदा अर्थव्यवस्था को देखते हुए 20,000 करोड़ डॉलर से ज्यादा की चोट पहुंचाएगा। इसका सबसे ज्यादा असर चीन और अमेरिका को भुगतना होगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि गर्म उष्णकटिबंधीय देशों की तुलना में यह देश भारी बारिश के बहुत कम आदी हैं।

भविष्य में आर्थिक समृद्धि के लिए निर्णायक जलवायु कार्रवाई बेहद महत्वपूर्ण है। रिसर्च के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग को तीन डिग्री की जगह 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने से हम जलवायु परिवर्तन की वजह से होने वाले वैश्विक नुकसान को दो-तिहाई कम कर सकते हैं। ऐसे में इस अध्ययन में सामने आए नतीजे जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई न करने की महत्वपूर्ण लागत को रेखांकित करते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि जलवायु परिवर्तन और चरम घटनाओं के प्रभावों की भविष्यवाणी करना बेहद चुनौतीपूर्ण है, और इसमें अनिश्चितताएं बनी रहती हैं। यह सामाजिक आर्थिक रूप से कितना नुकसान पहुंचाएगा यह काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि इन घटनाओं का प्रभाव कितने समय तक रहता है और समाज की अनुकूलन क्षमता क्या है।

हालांकि साथ ही शोधकर्ताओं ने समय के साथ बारिश के पैटर्न और जलवायु की चरम सीमाओं में किस तरह परिवर्तन आएगा इसको समझने की आवश्यकता पर जोर दिया है।

शोधकर्ताओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस अध्ययन में सूखा, समुद्र के जल स्तर में होती वृद्धि, क्लाइमेट टिप्पिंग पॉइंट और इनके गैर-आर्थिक प्रभावों को शामिल नहीं किया है ऐसे में जलवायु परिवर्तन की कुल लागत इस अनुमान से कहीं अधिक हो सकती है।

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च (पीआईके) और मर्केटर रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल कॉमन्स एंड क्लाइमेट चेंज (एमसीसी) से जुड़े शोधकर्ताओं ने भी अपने अध्ययन में खुलासा किया था कि यदि तापमान में हो रही वृद्धि जारी रहती है तो सदी के अंत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था को करीब 10 फीसदी का नुकसान झेलना पड़ सकता है।

वहीं यदि ट्रॉपिक्स की बात करें तो नुकसान का यह आंकड़ा 20 फीसदी को पार कर सकता है। इस बारे में शोधकर्ताओं का कहना है कि जिस तरह से तापमान में हो रही वृद्धि उत्पादकता पर असर डाल रही है।

भारतीय में भी आर्थिक विकास की धुरी को धीमा कर रहा जलवायु परिवर्तन

उससे विशेष तौर पर कृषि, निर्माण और उद्योग क्षेत्र पर असर पड़ रहा है और उनकी उत्पादकता में कमी आ रही है। इतना ही नहीं इसकी वजह से जिस तरह फसलों की उत्पादकता घट रही है उससे खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है।

वैज्ञानिकों के मुताबिक जलवायु में आता बदलाव न केवल वैश्विक बल्कि भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी व्यापक प्रभाव डाल रहा है। इस बारे में डेलावेयर विश्वविद्यालय के जलवायु केंद्र ने अपनी नई रिपोर्ट “लॉस एंड डैमेज टुडे: हाउ क्लाइमेट चेंज इस इम्पैक्टिंग आउटपुट एंड कैपिटल” में खुलासा किया था, कि 2022 में जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में जीडीपी को आठ फीसदी का नुकसान झेलना पड़ा था।

देखा जाए तो भारत की जीडीपी को हुआ यह नुकसान 2022 के दौरान उसमें हुई औसत वृद्धि से भी एक फीसदी अधिक है। गौरतलब है कि उस साल भारत के जीडीपी में सात फीसदी का इजाफा दर्ज किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार 2022 तक भारत की कैपिटल वेल्थ में भी 7.9 फीसदी की गिरावट आई है, जिसका मुख्य कारण बुनियादी ढांचे जैसी मानव-निर्मित पूंजी पर जलवायु परिवर्तन की पड़ती मार है।

जर्नल नेचर में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते भारत में अगले 26 वर्षों में कमाई 20 से 25 फीसदी तक घट जाएगी। इसका सीधा असर आम आदमी की जेब पर पड़ेगा।

वहीं हिमाचल प्रदेश, उत्तरखंड, और अरुणाचल प्रदेश में इस नुकसान के 10 से 20 फीसदी के बीच रहने का अंदेशा है। आर्थिक रूप से देखें तो यह नुकसान बढ़ते तापमान को दो डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने की लागत से भी छह गुणा अधिक है।

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