कुल्लू दशहरे में अब नहीं रही पहले जैसी रौनक, हस्तशिल्पियों में निराशा

अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में कारीगरों को नहीं मिल रहे खरीददार, हाथ से बने सामान के लिए खरीददारों का रूझान घट रहा है
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में बांस और लकड़ी के सामान को बेचने के लिए आई स्थानीय व्यापारी । फोटो: रोहित पराशर
अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में बांस और लकड़ी के सामान को बेचने के लिए आई स्थानीय व्यापारी । फोटो: रोहित पराशरspiu shimla
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देव आस्था और स्थानीय उत्पादों के व्यापार के लिए देश-दुनिया में ख्याति प्राप्त अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का स्वरूप बदलता जा रहा है।

कभी हाथ से बने हुए कृषि के औजारों, मिट्टी के बर्तनों, बांस और लकड़ी से बनी घरेलु वस्तुओं व साज सजा के सामानों व हथकरघा उत्पादों के व्यापार के मुख्य केंद्र रहे इस अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में अब स्थानीय कारीगरों को निराशा ही हाथ लग रही है।

आधुनिकता के दौर में इस मेले में से पशुओं का कारोबार तो पूरी तरह से बंद हो गया है। कभी इस मेले में गाय, बैल और भेड़ बकरियों का भी व्यापार हुआ करता था, लेकिन अब जिस स्थान पर पशुओं का मेला सजता था वहां पर मेले में आने वाले लोगों के वाहनों के लिए पार्किंग की व्यवस्था की गई है।

हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में 13 से 19 अक्टूबर तक मनाए जा रहे अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में ई कामर्स कंपनियों और प्लास्टिक के सामान और कारखानों में बने अन्य उत्पादों की मांग खब बढ़ती जा रही है।

अक्टूबर माह में होने वाले इस मेले में जब घाटी में कृषि-बागवानी से संबधित कार्य पूरे हो जाते हैं तब यहां के लोग इस मेले में अगले कृषि सीजन के लिए कृषि औजारों की खरीद के लिए आते थे, लेकिन कृषि में यंत्रों और मशीनों के प्रयोग से हाथ से बने कृषि उपकरणों की दुकानें घटती जा रही हैं और कृषि में बढ़ती मशीनों के प्रयोग को देखते हुए नामी कंपनियों के स्टॉलों की संख्या साल-दर साल बढ़ती जा रही है।

मेले में हाथ से सामान तैयार करने वाले स्थानीय कारोबारियों को खरीददारों की दरकार है।

मिट्टी के बर्तन और लकड़ी का घरेलु सामान बनाने वाले बजौरा के कारीगर देवेंद्र डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि उनका परिवार दशकों से अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे में दुकानें लगाते आए हैं।

पहले हमारे बनाए हुए उत्पादों की बहुत मांग होती थी, लेकिन जब से ऑनलाइन ई कॉमर्स कंपनियों का चलन बढ़ा है, तब से हमारे सामान को अधिक खरीददार नहीं मिल रहे हैं।

वह कहते हैं कि आधुनिकता की होड़ में अब लोग ऑनलाइन ज्यादा सामान खरीद रहे हैं इससे कई कारीगर इस काम को छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं।

अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे को शुरू हुए चार दिन का समय गुजर गया है लेकिन अभी भी दशहरे में स्थानीय कारीगरों को उतने खरीददार नहीं मिल पा रहे हैं जिससे की वह मेले में स्टॉल, बिजली और अन्य खर्चाें की भरपाई कर सके। बांस से बने उत्पादों को बेचने के लिए मेले में पंडोह से पहुंची अनारकला ने बताया कि मेले में बहुत कम खरीददार उनके पास आ रहे हैं।

वह कहती हैं कि लोग हमारे उत्पादों को छोड़ कारखानों में बने प्लास्टिक के सामान को खरीदना ज्यादा पसंद करते हैं। उन्होंने बताया कि वे बहुत मेहनत से अपने उत्पादों को तैयार करते हैं लेकिन अब खरीददार न मिलने से उन्हें निराशा हाथ लग रही है। अनारकला कहती हैं कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो मंहगाई के इस दौर में कारीगरों को कोई और काम देखने पर मजबूर होना पड़ेगा।

आधुनिकता और ई कॉमर्स कंपनियों के लोक लुभावन ऑफर्स का असर केवल हाथ से बने घर की साज सज्जा के सामान, कृषि उपकरणों पर ही नहीं पड़ा है बल्कि कुल्लू क्षेत्र के हथकरघा कारीगरों पर भी बहुत बुरी तरह पड़ा है।

कुल्लू के शॉल, मफलर और अन्य हाथ से बने कपड़ों की भारी मांग एक समय में हुआ करती थी लेकिन अब हथकरघा कारीगरों और बुनकरों को भी उचित खरीददार नहीं मिल पा रहे हैं। स्वेटर, शॉल, टोपी बनाने वाले स्थानीय कारोबारी राजू कहते हैं कि अब मेला वैसा नहीं रहा, जैसे पहले हुआ करता था।

इसमें आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। लोग अब हाथ से बने सामान को कम पसंद कर रहे हैं। ई कॉमर्स कंपनियों के आ जाने से उनके काम पर बहुत असर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे के दौरान पूरी कुल्लू घाटी से लोग सर्दियों के सामान की खरीददारी के लिए आते हैं लेकिन अब मेले के बदलते स्वरूप के चलते कारीगरों की चिंताएं बढ़ती जा रही हैं और हाथ से बने सामानों और इनकी कला को भविष्य के लिए संजोए रखना एक चुनौती बनती जा रही है।

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