महंगाई की मार: खाद्य कीमतों में 10 फीसदी के उछाल से आय में आ सकती है 5 फीसदी की गिरावट

दुनिया भर में जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है वो किसी से छुपी नहीं है। बढ़ती कीमतों ने लोगों की रोजमर्रा की समस्याओं को और बढ़ा दिया है। इसकी सबसे ज्यादा मार समाज के कमजोर तबके पर पड़ रही है
महंगाई की मार: खाद्य कीमतों में 10 फीसदी के उछाल से आय में आ सकती है 5 फीसदी की गिरावट
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दुनिया भर में जिस तरह से महंगाई बढ़ रही है वो किसी से छुपी नहीं है। बढ़ती कीमतों ने लोगों की समस्याओं को और बढ़ा दिया है, जिसका सबसे ज्यादा खामियाजा समाज के गरीब तबके को उठाना पड़ रहा है।

इस पर संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास संगठन (यूएनसीटीडी) द्वारा जारी ताजा विश्लेषण से पता चला है कि खाद्य कीमतों में 10 फीसदी के उछाल से, निर्धन परिवारों की आय में 5 फीसदी की गिरावट आ जाती है। देखा जाए तो यह राशि इतनी है जितनी वो परिवार आमतौर पर अपनी स्वास्थ्य देखभाल सम्बन्धी जरूरतों पर खर्च करता है।

यूएनसीटीडी के अनुसार दुनिया भर में तेजी से आसमान छूती महंगाई और बढ़ता कर्ज बड़ी समस्या बन चुका है। इसके साथ-साथ खाद्य पदार्थों और ऊर्जा साधनों की बढ़ती कीमतों के चलते करोड़ों लोग जीवन यापन के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। पिछले दो साल महामारी से जूझने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति भी नाजुक हो चुकी है।  

ऊपर से यूक्रेन में जारी युद्ध और जलवायु में आते बदलावों ने स्थिति को बद से बदतर बना दिया है। आंकड़ों की मानें तो आज 60 फीसदी मजदूरों की वास्तविक आय महामारी से पहले की तुलना में कम है। इतना ही नहीं दुनिया के 60 फीसदी सबसे कमजोर देश कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं। अनुमान है कि अफ्रीका में 5.8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बस थोड़ा ऊपर हैं। वहीं वैश्विक स्तर पर 410 करोड़ लोग सामाजिक सुरक्षा के दायरे से बाहर हैं। 

वहीं संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ फूड सिक्योरिटी एंड न्यूट्रिशन इन द वर्ल्ड’ से पता चला है कि 2021 में करीब 82.8 करोड़ लोग भुखमरी का शिकार थे। यह आंकड़ा कितना विशाल है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि यह भारत की करीब 59 फीसदी आबादी के बराबर है।

वहीं 230 करोड़ लोगों को दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हो रही है। जिन लोगों को खाना मिल भी रहा है उनकी स्थिति भी कोई ख़ास अच्छी नहीं है। पता चला है कि स्वस्थ आहार दुनिया में 310 करोड़ लोगों की पहुंच से बाहर है।

देखा जाए तो एफएओ द्वारा जारी फूड प्राइस इंडेक्स करीब-करीब रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुका है और पिछले साल की तुलना में इस समय 20.8 फीसदी ज्यादा है। यही हाल ऊर्जा क्षेत्र का भी है। जहां कच्चे तेल की कीमत 120 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई है। वहीं ऊर्जा कीमतों में भी 2021 की तुलना में इस साल 50 फीसदी वृद्धि की आशंका है। ऐसा ही कुछ उर्वरकों के साथ भी हो रहा है जिनकी कीमतें 2000 से 2020 के औसत की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा हो चुकी हैं।

आग में घी का काम कर रहा है जलवायु में आता बदलाव

देखा जाए तो एशिया और अफ्रीका में रहने वाले 9 करोड़ लोग, जो पहले बिजली इस्तेमाल कर रहे थे अब स्थिति यह है वो अपनी ऊर्जा सम्बन्धी बुनियादी जरूरतों का भुगतान नहीं कर सकते हैं। इस तरह जलवायु परिवर्तन के चलते हर साल करीब 2 करोड़ लोगों को मजबूरी में विस्थापित होना पड़ रहा है। अनुमान है कि जलवायु से जुड़ी आपदाओं की वजह से वैश्विक अर्थव्यवस्था को हर साल 41.6 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है।

नतीजन इसका असर न केवल खाद्य उत्पादों की बढ़ती कीमतों पर पड़ रहा है साथ ही उत्पादन में भी गिरावट आ रही है। यह सब कुछ यहीं तक ही सीमित नहीं रहेगा, इसका असर अगले सीजन में भी बढ़ी कीमतों के रूप में सामने आएगा।

यदि आम लोगों के जनजीवन पर पड़ते असर की बात करें तो बढ़ती महंगाई का मतलब है कि खाद्य उत्पादों और ऊर्जा कीमतों में इजाफा आ जाएगा, जिसका असर लोगों की वास्तविक आय पर पड़ेगा। उनके रहनसहन के स्तर में गिरावट आ जाएगी, जो अगले चलकर उनके भविष्य की संभावनाओं को भी प्रभावित करेगा।

अनुमान है कि इसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं और लड़कियों पर पड़ेगा। इसकी वजह से सामाजिक रुपरेखा में जो दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगें वो चिंताजनक हैं। बढ़ती गरीबी से लेकर असमानता की खाई कहीं ज्यादा गहरी हो जाएगी। शिक्षा के स्तर और उत्पादकता में गिरावट आ जाएगी, साथ ही लोगों की मजदूरी भी कम हो जाएगी। इसका असर सरकारों की इस तरह के संकटों से निपटने की क्षमता पर भी पड़ेगा जिससे सामाजिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ सकती है।

इस स्थिति से निपटने के लिए जहां कुछ परिवारों को अपने भोजन की गुणवत्ता से समझौता करना पड़ सकता है। वहीं बच्चों को शिक्षा से वंचित होने से लेकर स्वास्थ्य सम्बन्धी खर्चों के साथ समझौता करना पड़ रहा है। ऐसे में जब परिवार अपने खर्चों में कटौती करने की कोशिश करेंगें तो वो सस्ते उत्पादों की तरफ जाएंगें, जिनकी गुणवत्ता उतनी बेहतर नहीं होगी। नतीजन यह उन्हें आगे चलकर कहीं ज्यादा महंगा पड़ेगा।

इस मामले में यूएनसीटीडी की महासचिव रिबेका ग्रिन्सपैन का उपभोक्ता संरक्षण पर 18 से 19 जुलाई को हुई बैठक में कहना था कि सरकारों को अपने उपभोक्ताओं के संरक्षण के लिए दीर्घकालीन मिशन को जारी रखने की जरुरत है।

संगठन का कहना है कि एक तरफ विकसित देश हैं जिन्होंने अपने उत्पाद सुरक्षा ढांचें को मजबूत किया है। इसके लिए उन्होंने कानून उनके क्रियान्वयन, उत्पादों को वापस लेना सहित संचार अभियान जैसे उपायों को शामिल किया है।

वहीं दूसरी तरफ विकासशील देशों में इसको लेकर मौजूदा प्रणालियां जर्जर अवस्था में हैं, जो असुरक्षित उत्पादों के अभिशाप को नियंत्रित करने में असमर्थ रही हैं। ऐसे में इन प्रणालियों को मजबूत करने के साथ-साथ उत्पाद सुरक्षा को बेहतर बनाने के लिये, अन्तरराष्ट्रीय सहयोग की भी दरकार है।

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