आज से ठीक एक साल पहले तक सरजू देवी के पास 10 गाय थीं। उनका पूरा परिवार दूध के काम में लगा था, लेकिन सितंबर 2022 लम्पी बीमारी की वजह से उनकी छह गाय मर गईं। वर्तमान में बची हुई चार में से दो गाय ही दूध देती हैं। वहीं, चारा इतना महंगा हो गया कि दूध बेचने के बाद भी गाय को पालना उनके लिए मुश्किल है। ऐसे वक्त में उन्हें पता चला कि राज्य सरकार ने एक योजना शुरू की है, जिसमें 100 दिन के काम की गारंटी दी जा रही है और काम भी गाय की देखभाल जैसा ही है। उन्होंने इस योजना के लिए खुद को पंजीकृत करा लिया। अब वह रोजाना राजस्थान के अजमेर नगर निगम के वार्ड-76 पंचशील स्थित कांजी हाउस जाती हैं, जहां शहर के आवारा पशुओं को रखकर देखभाल की जाती है। सरजू की ही तरह ही सात में चार गाय गंवाने वाली चोती बाई, नौ में से पांच गाय खोने वाली नौसर और चार में से दो गाय गंवाने वाली रमती भी इसी कांजी हाउस आकर काम करती हैं और इसके बदले मिलने वाली मजदूरी से परिवार पाल रही हैं।
ये महिलाएं 9 सितंबर 2022 को शुरू की गई इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना (आईजीआरवाई) की लाभार्थी हैं। योजना का मकसद गांवों में 100 दिन के रोजगार की गारंटी देने के लिए चल रही महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की तरह शहरों में भी लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है। पहले साल 100 दिन के काम की गारंटी दी गई थी, लेकिन वित्त वर्ष 2023-24 में इसे बढ़ाकर 125 दिन कर दिया गया है। राज्य सरकार ने इससे आगे बढ़ते हुए 18 जुलाई 2023 को विधानसभा में राजस्थान न्यूनतम आय गारंटी अधिनियम 2023 विधेयक प्रस्तुत किया। इसमें राज्य के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले हर वयस्क व्यक्ति को साल भर में कम से कम 125 दिन के रोजगार का अधिकार का प्रावधान किया गया है।
इस तरह राजस्थान शहरी रोजगार का अधिकार देने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। हालांकि इससे पहले झारखंड और ओडिशा ने 2020 में कोविड-19 की पहली लहर के बाद रोजगार गारंटी योजना शुरू की थी, ताकि लॉकडाउन के बाद अपने शहर-कस्बों में लौटे लोगों को काम दिया जा सके, जबकि केरल में 2011 से यह योजना चल रही है और हिमाचल प्रदेश में 2019 में इसकी शुरुआत हुई थी, परंतु रोजगार को अधिकार से जोड़ कर राजस्थान ने लंबी लकीर खींच दी है।
बेंगलुरु के अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट के प्रमुख अमित बसोले कहते हैं कि कोविड-19 के बाद से पूरे देश में शहरी आबादी के लिए गारंटीशुदा रोजगार कार्यक्रम की मांग जोर पकड़ रही है, जिसे कुछ राज्यों ने अपने स्तर पर शुरू कर दिया है। इसी मकसद से 5 अगस्त 2022 को संसद सदस्य बिनॉय विश्वम ने एक निजी विधेयक पेश किया था, जिसे “भगत सिंह राष्ट्रीय शहरी रोजगार गारंटी विधेयक” कहा गया। यह विधेयक वर्तमान में राज्यसभा में चर्चा के लिए लंबित है। बसोले का कहना है कि बेशक राज्यों की योजनाएं एक स्वागत योग्य कदम हैं, लेकिन उनमें मनरेगा जितनी प्रभावी होने की संभावना नहीं है क्योंकि मनरेगा संसद द्वारा पारित एक अधिनियम है। उनके मुताबिक व्यावहारिक अंतर यह है कि नई राज्य सरकारें योजनाओं को कभी भी बंद या कमजोर कर सकती हैं। ऐसा करने पर लोग रोजगार के लिए अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा पाएंगे। जैसे कि, मनरेगा से पहले भारत में बहुत से रोजगार कार्यक्रम थे, लेकिन मांग पर नौकरियां उपलब्ध कराने की विधायी गारंटी नहीं थी।
अच्छी शुरुआत
राजस्थान सरकार ने अपने बजट में 800 करोड़ रुपए के प्रावधान के साथ आईजीआरवाई की शुरुआत की, जो किसी राज्य द्वारा शहरी रोजगार गारंटी योजना के लिए अब तक का सबसे अधिक आवंटन है। सरकार की वेबसाइट के मुताबिक, 12 जुलाई 2023 तक इस योजना के तहत 5.60 लाख जॉब कार्ड बन चुके हैं और 18,484 कार्य पूरे हो चुके हैं।
अकेले उदयपुर में तब तक 6,769 जॉब कार्ड जारी किए जा चुके हैं। उदयपुर नगर निगम के सहायक अभियंता (एईएन) सुनील बोड़ा कहते हैं कि शहर का सौंदर्यीकरण अब तक किया गया आम काम है। शहर की दीवारों को रंगना, तालाबों की मरम्मत और पौधारोपण जैसे काम इस योजना के तहत कराए जा रहे हैं। इस योजना में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का नामांकन अधिक देखा जा रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि महिलाएं अपने घरों के नजदीक काम करना पसंद करती हैं, चाहे उन्हें थोड़ी कम मजदूरी मिले। आईजीआरवाई में यही वादा लोगों से किया गया है।
अब तक पेश आ रही चुनौतियों के बारे में पूछे जाने पर बोड़ा का कहना है कि फिलहाल इस योजना से केवल अकुशल काम ही कराया जा सकता है, जिस वजह से इसका दायरा सीमित हो गया है। दूसरी चुनौती मजदूरी की दर को लेकर है। मजदूरी दर कम होने के कारण कुशल या पुरुष मजदूर इस योजना से नहीं जुड़ते। वह कहते हैं कि इस योजना के तहत स्थायी नियुक्ति का प्रावधान अभी नहीं है। रोजगार सहायक आमतौर पर स्नातक होता है और उसका वार्ड में एक मजबूत नेटवर्क होता है। उन्हें मासिक वेतन 7,500 रुपए मिलता है, लेकिन एक साल की संविदा पर भर्ती किया जा रहा है। इसी तरह मेट की भर्ती भी संविदा पर आधारित है। मेट को 271 रुपए रोजाना मिलते हैं, जबकि उसके मातहत काम करने वाले मजदूर को उससे थोड़ा कम 259 रुपए मिलते हैं। कुशल श्रमिकों की मजदूरी 283 रुपए प्रतिदिन है।
इसके विपरीत, राजस्थान में अकुशल मजदूर की दिहाड़ी लगभग 500 रुपए रोजाना है। एक और चुनौती यह है कि नगर निगम के ठेकेदार भी लगभग ऐसा ही काम कराते हैं, लेकिन वे इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना से अधिक मजदूरी देते हैं, इससे जहां मजदूर मिलने में दिक्कत होती है, वहीं ठेकेदार भी इन कामों को रुकवाने में जोड़-तोड़ करते हैं। हालांकि अधिकारियों का कहना है कि ठेकेदारों के पास काम करने वाले मजदूर ज्यादातर बाहरी होते हैं, जबकि आईजीआरवाई में काम करने वाले मजदूर स्थानीय होते हैं। उन्हें जॉब कार्ड बनाते वक्त नगर निकाय के वार्ड का पता देना होता है। ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले दिहाड़ीदार मजदूरों को इस योजना में शामिल नहीं किया जाता।
यह सही है कि इस योजना के तहत मजदूरों को काफी कम वेतन मिल रहा है, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि इस योजना का असल मकसद उन लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना है, जिन्हें कहीं काम नहीं मिलता, ताकि वे निराश न हों और कम से कम अपने परिवार का भरण पोषण कर सकें। यह योजना कुछ महिलाओं के लिए अतिरिक्त आमदनी का जरिया बन गई है। उदयपुर के गांधी नगर में रहने वाली साजिदा कहती हैं कि वह घरों में खाना बनाने का काम करती हैं। वह अब सुबह-सुबह एक घर में जाकर खाना बनाती हैं और फिर 9.30 बजे साइट पर पहुंच जाती है। यहां साढ़े तीन बजे तक काम करती है। फिर घर जाकर आराम करती है और शाम को एक घर में रात का खाना बनाती हैं। इससे उसकी आमदनी बढ़ गई है। परिवार में तीन बच्चे हैं। यह पैसा उनकी पढ़ाई-लिखाई में काम आ रहा है।
इस योजना ने महिलाओं के समक्ष रोजगार का एक विकल्प खड़ा कर दिया है। मल्ला तलाई में रहने वाली लगभग 34 वर्षीय शैयदा बानू कहती हैं, “पहले लोगों के घरों में खाना बनाती थी। जब कोरोना फैला और लॉकडाउन लग गया तो काम छूट गया। आज भी उन दिनों की याद करके डर लगता है। बड़ी मुश्किल से घर चला। इस योजना में काम करके लग रहा है कि सरकार हमारे बारे में भी सोचती है। पति पेंटर हैं। दिहाड़ी पर काम करते हैं। कभी उन्हें भी काम नहीं मिलता, लेकिन अब यहां काम मिल जाता है तो चिंता नहीं रहती। पहले 15 दिन के 3,300 रुपए मिल चुके हैं। मेरे दो बेटे, एक बेटी है। इस पैसे से बच्चों के स्कूल की फीस भर दी है।”
मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि जल संरक्षण के प्रति बदलती सोच माना जाता है। इंदिरा गांधी रोजगार गारंटी योजना में भी जल संरक्षण संबंधी कार्यों को प्राथमिकता दी जा रही है। अजमेर के एक छोर में पांच सौ वर्ष पूर्व बना चौरसियाबास तालाब शहर के लिए पीने का पानी और आसपास के इलाकों में खेती के लिए सिंचाई का काम करता था। लगभग डेढ़ हजार बीघे में फैला यह तालाब सिकुड़ता जा रहा था, लेकिन जब डाउन टू अर्थ संवाददाता यहां पहुंचा तो लगभग 200 से महिलाएं तालाब के तीन ओर से काम कर रही थीं। उन्होंने कई बीघे में सालों से पनप रही झाड़ियों को साफ किया और अब वहां छोटे-छोटे गड्ढे (पिट्स) बनाए जा रहे हैं, इन पिट्स को चैनल से जोड़ा जा रहा है ताकि बारिश आने पर यदि तालाब भर कर बाहर निकले तो इन गड्ढों में भी पानी भर जाए। अजमेर नगर निगम के कनिष्ठ अभियंता धर्मेंद आनंद बताते हैं कि कुछ समय पहले आई बारिश का असर इस तालाब में दिख रहा है। जहां पहले पानी नहीं दिखता था, अब पानी रुक गया है। उम्मीद है, इससे क्षेत्र का भूजल स्तर बढ़ेगा।
इस योजना को कार्यान्वित करने में अजमेर एक अच्छा उदाहरण पेश कर रहा है। यहां भी महिलाएं इस योजना से जुड़ रही हैं। सरजू देवी कहती हैं कि बुरे समय में यह योजना बहुत काम आ रही है। अजमेर नगर निगम के अधीक्षक अभियंता राकेश कुमार शर्मा बताते हैं कि जेल में बंदियों के जॉब कार्ड बनवाए गए हैं, जो जेल की रंगाई-पुताई, मरम्मत आदि का काम कर रहे हैं। अजमेर नगर निगम को भी 20 करोड़ रुपए का बजट जारी किया गया है। यहां 11,547 से अधिक जॉब कार्ड बन चुके हैं और 2,374 मजदूर काम शुरू कर चुके हैं। इसके अलावा 68 मेट और सात रोजगार सहायक हैं। योजना में युवा शिक्षितों को भी रोजगार मिल रहा है। तीन एमआईएस (मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम) मैनेजर, तीन लेखा सहायक हैं और पांच तकनीकी सहायक काम कर रहे हैं।
राजस्थान में सब कुछ ठीक ही चल रहा है, ऐसा भी नहीं है। दस सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों द्वारा संचालित तेलंगाना स्थित गैर-लाभकारी संस्था सेंटर फॉर रिसर्च इन स्कीम्स एंड पॉलिसीज की एक हालिया रिपोर्ट “इंदिरा गांधी शहरी रोजगार गारंटी योजना कनकरंट इवेल्यूशन 2023” में राजस्थान के शहरी रोजगार गारंटी योजना की दो चुनौतियों को उजागर किया गया है। एक, भुगतान में देरी और दूसरा, सीमित कर्मचारी प्रशिक्षण। अध्ययन में कहा गया है कि 38 प्रतिशत मजूदरों ने भुगतान में देरी की शिकायत की। अध्ययन टीम ने शहरी स्थानीय निकाय में योजना के लिए विशेष रूप से चुने गए 56 कर्मियों (जूनियर टेक्निकल असिस्टेंट, एमआईएस स्टाफ, लेखा सहायक और रोजगार सहायक) का साक्षात्कार लिया और पाया कि उनमें से 60 प्रतिशत ने कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया था। परिणामस्वरूप, डेटा अपडेशन में देरी हो रही है और मजदूरों को मजदूरी देर से मिल रही है।
10 साल के सबक
केरल की अय्यंकाली शहरी रोजगार गारंटी योजना (एयूईजीएस) एकमात्र ऐसी योजना है, जो एक दशक से अधिक पुरानी है। लगभग 3.2 लाख परिवार इसके लाभार्थी हैं। बेशक इस योजना का डिजाइन मनरेगा जैसा ही है, लेकिन कार्यान्वयन में अंतर है। कम मजदूरी के चलते शहरो के लोग इस योजना में दिलचस्पी कम दिखा रहे हैं। यहां तक कि इस योजना में अपना नामांकन कराने के बावजूद इसलिए काम नहीं करते, क्योंकि वहां दूसरे काम भी उपलब्ध हैं।
कई दफा जब स्थानीय निकायों के पास सीजनल काम होता है तो मजदूर नहीं मिलते। मसलन, मॉनसून से पहले स्थानीय निकायों को ऐसे कार्य करने के लिए स्थायी मजदूरों की जरूरत होती है जो महामारी और जलजनित बीमारियों को फैलने से रोक सकें, लेकिन उस समय मजदूर नहीं मिलते। इस योजना को बजट की कमी और सीमित खर्च का भी सामना करना पड़ रहा है। जब यह योजना लॉन्च हुई तो उस समय 20 करोड़ रुपए सालाना बजट का आवंटन हुआ था, लेकिन इसमें से 60.41 लाख रुपए ही मिले। और इसका भी सिर्फ 17 फीसदी ही खर्च हुआ। साल 2016 तक योजना के लिए वार्षिक आवंटन अधिकतम 7.5 करोड़ रुपए रहा, लेकिन खर्च मुश्किल से 50 प्रतिशत के आसपास हुआ। पिछले सात वर्षों से वार्षिक आवंटन लगभग 50 करोड़ रुपए हो रहा है।
राज्य सरकार के अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं कि यह योजना अपने उद्देश्यों को हासिल करने में विफल रही है। यहां तक कि कुदुम्बश्री गरीबी उन्मूलन मिशन के तहत घरों का निर्माण करने के लिए भी मजदूर नहीं मिले। केवल सबसे गरीब लोग ही नामांकन कर रहे हैं, क्योंकि लोग इसे अंतिम उपाय के रूप में उपयोग कर रहे हैं। केरल के पूर्व वित्त मंत्री टीएम थॉमस इसाक का कहना है कि हालांकि राज्य सरकार कई सीमाओं से बंधी है, बावजूद इसके राज्य सरकार इस योजना को लगातार आगे बढ़ा रही है। इससे दूसरे राज्यों को भी इसी तरह की योजनाएं शुरू करने के लिए प्रेरणा मिली है।
केरल ने हाल ही में एयूईजीएस के लाभार्थियों को मनरेगा वेलफेयर फंड से जोड़ा है। इस फंड में मजदूरों के लिए पेंशन, चिकित्सा सहायता और उनके बच्चों के लिए शैक्षिक सहायता का प्रावधान है। राज्य के स्थानीय स्वशासन मंत्री एम बी राजेश कहते हैं, “हमने शहरी रोजगार गारंटी योजना पर अपना ध्यान फिर से केंद्रित किया है।” केरल सरकार ने इस योजना को वेलफेयर फंड से जोड़ा है, ताकि अधिक से अधिक शहरी गरीब इस योजना की ओर आकर्षित हों और स्थानीय निकाय परियोजनाओं और विकासात्मक पहलों को पूरा करने में उनकी सेवाओं का उपयोग किया जा सकेगा।
योजना के तहत रोजगार उपलब्ध कराने में निजी क्षेत्र को भी शामिल करने का प्रयास किया जा रहा है। इस्साक कहते हैं, “हम जल्द ही गरीब शहरी युवाओं के लिए प्रशिक्षण सुविधाएं शुरू कर रहे हैं, जो कॉर्पोरेट घराने और औद्योगिक इकाइयों के द्वारा की जा सकती हैं। शहरी गरीबों को ग्रामीण क्षेत्रों में भी काम मिल सके, ऐसे भी प्रयास किए जा रहे हैं, क्योंकि कुछ कामों के लिए गांव से बाहर के अतिरिक्त मजदूरों की जरूरत होती है। नगर पालिकाओं और शहरी पंचायतों को शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रमों के तहत क्या करना है, यह तय करने की छूट भी दी जा सकती है।”
नए सिरे से देखने की जरूरत
यूं तो भारत में राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तर पर कई शहरी रोजगार और कौशल विकास योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उनमें से कोई भी शहरों में बेरोजगारी की समस्या को समग्र रूप से रोकने में सक्षम नहीं है। विशेषज्ञों का कहना है कि एक प्रभावी गारंटी योजना ही एक व्यवहार्य विकल्प है। हालांकि, उनका कहना है कि मौजूदा राज्य-स्तरीय योजनाओं से लंबे समय तक समस्या से निदान में मदद मिलने की संभावना नहीं है। बसोले कहते हैं कि राजस्थान को छोड़कर अधिकांश राज्यों में योजना का आकार काफी छोटा है। इन राज्यों में सालाना बजट 100 करोड़ रुपए या उससे कम है। निजी संस्थानों में अस्थायी श्रमिकों के लिए प्रचलित दैनिक मजदूरी की तुलना में इन योजनाओं के तहत दी जाने वाली मजदूरी भी कम है। इसलिए मनरेगा के विपरीत शहरी मजदूरी पर कोई सामान्य प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है।
बसोले 2019 में “स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2019 स्ट्रेंथेनिंग टाउन्स थ्रू सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट: ए जॉब गारंटी प्रोग्राम फॉर अर्बन इंडिया” नामक रिपोर्ट के सह-लेखक हैं। रिपोर्ट में एक केंद्रीय योजना की मांग की गई है, जो 500 रुपए प्रतिदिन पर 100 दिनों के काम की गारंटी और शिक्षित युवाओं को 13,000 रुपए प्रति माह के वजीफे पर 150 दिनों का प्रशिक्षण देने की भी सलाह दी गई है। ऐसा करने से भारत के छोटे शहरों में तीन से पांच करोड़ मजदूरों को रोजगार मिल सकता है। इस योजना के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1.7 से 2.7 प्रतिशत तक निवेश की आवश्यकता होगी। हालांकि यह इस पर निर्भर करेगा कि रोजगार की गारंटी हर परिवार को दी जाए या हर वयस्क शहरी को।
इस योजना को सही मायने में लागू करने की जिम्मेवारी शहरी स्थानीय निकायों जैसे नगर निगम, नगर पालिका, नगर परिषद के पास रहेगी, लेकिन उनकी हालत किसी से छिपी नहीं है। बसोले के साथी लेखक एन. राजेंद्रन कहते हैं कि 74वें संवैधानिक संशोधन में शहरी स्थानीय निकायों की जो प्राथमिकता तय की गई थी, उसे व्यावहारिक ढंग से पूरा नहीं किया जा रहा है।, लेकिन शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम के माध्यम से इसे पूरा किया जा सकता है। यह विकेंद्रीयकृत लोकतंत्र के लिए अच्छी बात होगी। इससे स्थानीय निकायों को मजबूती मिलेगी और वे स्थानीय स्तर पर यह फैसला कर पाएंगे कि शहर-कस्बों में क्या काम होने चाहिए।
नवंबर 2020 में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज ने एक लेख में देश के लिए विकेंद्रीकृत शहरी रोजगार और प्रशिक्षण (डीयूईटी) योजना का प्रस्ताव रखा था। द्रेज ने सिफारिश की थी कि केंद्र सरकार जॉब स्टांप जारी कर सार्वजनिक संस्थानों जैसे स्कूलों, कॉलेजों, छात्रावासों, आश्रयों, जेलों, संग्रहालयों, नगर पालिकाओं आदि में वितरित करे। एक जॉब स्टांप को एक व्यक्ति-एक रोजगार दिवस माना जाए, जो एक निश्चित अवधि के लिए होगा। ये संस्थाएं मजदूरों को जॉब स्टांप देंगी, जिसे मजदूर बाद में भुना सकेंगे। इस तरह मजदूरों के खाते में सीधे मजदूरी पहुंच जाएगी। द्रेज ने मजदूरों को प्रशिक्षण देकर कुशल मजदूर तैयार करने की भी बात कही है।
अब सवाल यह उठता है कि केंद्र सरकार ने अब तक शहरी भारत को एक गारंटीशुदा रोजगार योजना की जरूरत पर विचार विमर्श तक नहीं किया है, ऐसे में राज्य सरकारों की यह पहल कैसे कारगर सिद्ध होगी?