गरीब कल्याण योजना: विकास के सवाल और योजनाओं का मानसून

गरीब कल्याण योजना तभी प्रासंगिक हो सकती है जब आजीविका के लिए उनके जल, जंगल और जमीन जैसे संसाधनों पर उनका अधिकार हो
साभार: विक्रम, एकता परिषद
साभार: विक्रम, एकता परिषद
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मौजूदा महामारी के दौर में जब मजदूरों और श्रमिकों के हालात हम सबके - समाज और सरकार के सामने जाहिर हैं, तब यह सवाल सहज ही हमारे सामने आता है कि आखिर किन परिस्थितियों ने उन्हें इन हालातों तक पहुंचाया है? गांवों से उखड़ते हुए ये लोग आखिर कौन हैं? क्यों तमाम अनिश्चितताओं के बीच भी कमाने-खाने के लिये ये सब हजारों मील दूर पलायन करते हैं? क्या इनके पास स्थानीय स्तर पर आजीविका के कोई अन्य संसाधन नहीं हैं

इन असहज सवालों का कोई सहज जवाब सरकार और समाज दोनों के पास नहीं है। एक बेहतर कल की तलाश में श्रमिकों को पलायन के लिये प्रेरित या मजबूर करती परिस्थितियां और उसके लगभग अप्रत्याशित परिणाम वास्तव में यह सिखाता और दिखाता है कि उन लाखों श्रमिकों के अधिकार,  न्याय और सम्मान के लिए अभी भी बहुत कुछ बदला जाना शेष है। यह कानून और नीतियां मात्र नहीं, बल्कि उस पूरे दृष्टिकोण को बदलने से शुरू होना होगा -जिसके पीछे समाज, सरकार और हम सब खड़े हैं।

बहरहाल, योजनाओं के मानसून में आज 'श्रमिक, ग्रामीण समाज और उनके विकासके सवालों का केंद्र में होना एक प्रासंगिक पहल तभी साबित होगा, जब इसे ग्रामीण समाज के अपने जल जंगल और जमीन जैसे संसाधनों के अनियंत्रित दोहन के इतिहास, और पलायन के वर्तमान  के वास्तविकताओं की समग्रता में देखा जाएगा। यदि ऐसा नहीं होता तो इसे एक बार फिर ग्रामीण भारत को विकास की प्रयोगशाला में बदलने का प्रयास मान लिया जागा। ग्रामीण भारत के विकास का आधा-अधूरा दृष्टिकोण अब तक सुलझे-उलझे आसान प्रयोगों की प्रयोगशाला ही साबित होती रही है। अन्यथा आजादी के सात दशकों में बेहिसाब योजनाओं, नीतियों और प्रयोगों के परिणाम आज इतने अनिश्चित, अप्रासंगिक और अर्थहीन नहीं होते। पलायन की अनिश्चित परिस्थितियां और निश्चित त्रासदी इन अपूर्ण प्रयोगों का ही लगभग पूर्ण उदाहरण  है।

नई नवेली 'गरीब कल्याण योजना' के राजनैतिक दर्शन को व्यवहार में बदलने के लिए आखिर जिन रास्तों का प्रयोग किया जाएगा।  वास्तव में, वही उसके प्रभाव अथवा अभाव का पैमाना बनेगा। गांवों के श्रमिकों के माध्यम से गांवों में ही आधारभूत सुविधाओं के निर्माण और स्थानीय रोजगार सुनिश्चित करने की योजना, सरकार के लक्ष्यपूर्ति का माध्यम होगी या श्रमिकों के आजीविका का साधन बनेगी अथवा दोनों के साझे सपने पूरे होंगे, यह तो कुछ बरस बाद ही मालूम होगा।

मूल मुद्दा है और रहेगा कि गरीब कल्याण के सपने को साकार करने के लिए बनाये जाने वाले भवन क्या आत्मनिर्भरता और आजीविका की ओर लोगों को आगे बढ़ायेंगे  अथवा नहीं। गांवों की आधारभूत संरचनायें अब तक तो सरकार के विकास योजनाओं की ही  प्रतीक मानी जाती रही  हैं।  आज भी बहुसंख्यक ग्रामवासी अपने अस्मिता और आजीविका  के दृष्टि से  'जल जंगल और ज़मीन' पर अधिकारों को ही विकास का सर्वोपयुक्त पैमाना मानते हैं। 

ग्रामीण भारत के लिये ग़रीब कल्याण योजना का स्वरुप क्या होना चाहिये ? बेहतर होता इसे निर्धारित करते समय स्वयं भारत सरकार द्वारा, पूर्व में गठित कुछ समितियों की रिपोर्टों के कुछ  महत्वपूर्ण  संदर्भ और सुझाव अपनाये  जाते।  भारत जैसे सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक विविधता वाले देश में स्थानीय अधिकारों और आवश्यकताओं को केंद्र बिंदु में होना चाहिए।

वर्ष 2001 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ नारायणन के निर्देशन में  गठित 'राज्यपाल समिति' द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समाज के विकास के लिये विस्तृत और बेहद महत्वपूर्ण रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी गयी थी। डॉ पीसी अलेक्सेंडर की अध्यक्षता में गठित इस समिति के अनुसार 'अधिकारों की मान्यता' को ही विकास का मानक माना जाना चाहिए।

इस कड़ी में दूसरी महत्वपूर्ण रिपोर्ट योजना आयोग (भारत सरकार) के निर्देशन में श्री डी बंदोपाध्याय समिति के द्वारा वर्ष 2006-07 में भारत सरकार को सौंपी गयी थी।  समिति नें पूरी स्पष्टता से साथ लिखा कि ग्रामीण भारत में विपन्नता और उससे उपजे असंतोष से निपटने का सबसे कारगर माध्यम होगा कि सरकारें उनके 'जल जंगल और जमीन' के अधिकारों को सर्वोच्च प्राथमिकता दें।

उपरोक्त दोनों रिपोर्ट सहित अन्य कई रिपोर्टों में 'अधिकारों' के ढांचे को मजबूती देने की वकालत तो की गयी, लेकिन सरकारों के द्वारा विकास का अर्थ आधारभूत ढांचे की मजबूती ही मान ली गयी। आज भी जाने अनजाने ग्रामीण विकास के अनेक योजनाओं का लक्ष्य, ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत संरचनाओं का विकास माना जा चुका है। दुर्भाग्य से विकास के इस परिभाषा में प्रकृति केंद्रित आजीविका के लिये  स्थानीय संसाधनों पर उनके अधिकारों का अध्याय, अप्रासंगिक मान लिया गया। 

इसका सबसे नवीनतम उदाहरण है - उत्खनन से प्रभावित क्षेत्र और लोगों के विकास के लिये गठित 'जिला खनिज़ न्यास' और उसके द्वारा संचालित योजनाओं का जमीनी प्रभाव। छत्तीसगढ़ के कोरबा और मध्यप्रदेश के सिंगरौली जिले के उत्खनन प्रभावित क्षेत्रों में विकास के तर्कों के साथ जिस सड़कों, रेलवे आदि आधारभूत व्यवस्थाओं का विस्तार किया गया। उसने लोगों का विकास नहीं, बल्कि खनिज संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को आसान बनाया इन स्थानों पर विकास की कीमत वास्तव में लोगों के अधिकारों को नजरअंदाज करते हुए जारी है, ऐसा बहुसंख्यक प्रभावित वर्ग मानता है। और फिर यदि इन गांवों में सुविधाओं के नाम पर पाठशाला, पंचायत भवन और अस्पताल बना भी दिया जाये तो यह अधिकार विहीन  समाज के लिये एक अनमना  समाधान ही साबित होगा।

आज गरीब कल्याण योजना के जिस प्रारूप की जरूरत है, उसकी बुनियाद यह होनी ही चाहिये कि बहुसंख्यक ग्रामीण समाज अपने 'जल जंगल और जमीन' के अधिकारों को हासिल कर सके। यह इसलिए जरूरी मात्र नहीं कि उनकी आजीविका का केंद्र ये स्थानीय संसाधन हैं, बल्कि ऐसा इसलिये अपरिहार्य है कि इन संसाधनों का अधिकारपूर्वक विकास ही ग्रामीण भारत के विकास का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र है।

आज ग़रीब कल्याण योजना के केंद्र में जल जंगल और जमीन को अधिकारपूर्वक संरक्षित और सुरक्षित रखने के समाज केंद्रित प्रयासों का प्रोत्साहन होना चाहिए। भारत के हजारों गांव जिन्होंने ऐसा करके दिखाया वही वास्तव में ग्रामीण विकास के सर्वोत्तम मॉडल साबित हुये हैं। अच्छा होता गरीब कल्याण योजना यदि इन जनकेन्द्रित मॉडल को अपनाते हुये बहुसंख्यक ग्रामीण और श्रमिक समाज के कल्याण का सरल मार्ग अपनाती।

अब तक भूमि को अधिग्रहित करके उन्हें बेजमीन कर देने की प्रक्रिया हो या उनके जंगलों को वन संरक्षण के नाम पर हथियाने के प्रक्रम हों - ये ही/भी उनकी विपन्नता के मूल कारण थे और हैं। इसीलिये ऐसे हाशिये पर खड़े कर दिये गये ग्रामीण समाज के लिये, गरीब कल्याण योजना तभी प्रासंगिक हो सकती है जब आजीविका के लिए उनके जल जंगल और ज़मीन जैसे संसाधनों पर उनका अधिकार स्थापित कर दिया जाये। ज़रूरत ग्रामीण विकास योजना के दृष्टिकोण को व्यापक और वास्तविक बनाने की है। शेष विकास के पैमाने और क्या होंगे - बेहतर होगा यह ग्रामीण समाज के विवेक पर छोड़ दिया जाए।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)

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