बिना मत सह'मत': गुजरात की गठावन ग्राम पंचायत क्यों बनी मिसाल?

राज्य सरकार द्वारा समरस पंचायतों को आर्थिक प्रोत्साहन की योजना से भी कई दशक पहले से यह गांव समरस का मिसाल बन गया है
गुजरात का गांव गठामन देश की अन्य ग्राम पंचायतों के लिए एक मिसाल बन गया है। फोटो: राजू सजवान
गुजरात का गांव गठामन देश की अन्य ग्राम पंचायतों के लिए एक मिसाल बन गया है। फोटो: राजू सजवान
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जून  2025 में गुजरात में 4,564 ग्राम पंचायत चुनाव हुए। इस चुनाव की खास बात यह है कि इनमें 761 ग्राम पंचायतें ‘समरस’ चुनी गई। गुजरात की इन समरस पंचायतों सामान्य तौर पर निर्विरोध चुनी गई पंचायत कहा जाता है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब से राज्य में इन समरस पंचायतों को सरकार की ओर से आर्थिक रूप से प्रोत्साहित किया जा रहा है। इसे मॉडल मानते हुए कुछ राज्यों ने भी निर्विरोध पंचायतों को आर्थिक प्रोत्साहन देना शुरू किया है। डाउन टू अर्थ ने इनमें से कुछ पंचायतों का दौरा किया। पहले आपने पढ़ा जूनागढ़ के एक गांव की कहानी, अब पढ़ें एक और गांव की कहानी, जो समरस की असल मिसाल है -   

गठामन ऐसा गांव है, जहां हिंदू मुसलमान की आबादी लगभग समान है, लेकिन देश की आजादी के बाद से लेकर अब तक यहां कभी पंचायत चुनाव के लिए मतदान नहीं हुआ। लोग आपस में बैठकर सरपंच और उप सरपंच तय कर लेते हैं।

गुजरात के बनासकांठा जिले के पालनपुर तालुका का गांव गठामन एक मिसाल बन गया है। यहां की परंपरा यह है कि एक बार हिंदू समुदाय से सरपंच चुना जाएगा तो मुस्लिम समुदाय से उपसरपंच और अगली बार मुस्लिम समुदाय से सरपंच होगा तो हिंदू समुदाय से उपसरपंच चुना जाएगा।

इस बार जून 2025 में हुए चुनाव के लिए सरपंच पद महिलाओं के लिए आरिक्षत किया गया था, इसलिए इस बार राउफाबेन इमरान पटेल को सरपंच बनाने का फैसला दोनों समुदाय की ओर से लिया गया। जबकि उपसरपंच तय होना शेष है।

गठावन का ग्राम पंचायत भवन। फोटो: राजू सजवान
गठावन का ग्राम पंचायत भवन। फोटो: राजू सजवान

71 वर्षीय इब्राहिम कहते हैं, “आजादी के बाद से ही हमारे बुजुर्गों ने फैसला लिया था कि पंचायत के लिए गांव में कभी चुनाव नहीं होंगे। पहला चुनाव 1955 में हुआ तो हमने आपस में मिल बैठकर एक सरपंच चुन लिया। हम इस परंपरा को अब तक निभा रहे हैं”।

लगभग 7,000 आबादी वाले इस गांव में लगभग 4600 मत हैं, लेकिन पंचायत चुनाावों में इन मतों का इस्तेमाल नहीं होता। इससे पहले 2017 में कुंवर जी डालवाडिया सरपंच और उमर भाई सेलिया उपसरंपच घोषित किया गया था। डालवाडिया कहते हैं, “समरस योजना के तहत ग्रांट से पहले ही हम समरस (समरसता) को मानते हैं। यहां तक कि 2012 से ही पंचायत को समरस की ग्रांट नहीं मिल रही है, लेकिन समरस तरीके से पंचायत का चयन थमा नहीं है।”

गांव का सालाना बजट लगभग 32 लाख रुपए का है। डालवाडिया कहते हैं कि सरकार की ओर से 2012 में मिली राशि का उन्हें सही से याद नहीं है, लेकिन उस राशि से सड़कों का काम हुआ था। हम भी चाहते थे कि हमारे कार्यकाल में पैसा सरकार की ओर से मिले, परंतु पैसा नहीं आया।

दरअसल पंचायत में 10 वार्ड हैं। इनमें से एक वार्ड अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित है, जबकि गांव में एक भी एसटी नहीं रहते, इस वजह से यह सीट खाली रहती है और अगर पूरी पंचायत समरस घोषित नहीं होती है या कोई सीट खाली रहती है तो समरस के तहत ग्रांट नहीं मिलती। यही वजह है कि गठामन को ग्रांट नही मिल रही है।

पूर्व उपसरपंच उमर भाई कहते हैं कि गांव में बहुत पहले एक सरकारी कर्मचारी आए थे, जिन्होंने अपना नाम मतदाता सूची में शामिल करवा लिया था लेकिन कुछ समय बाद उनका तबादला हो गया। तब से गांव में कोई भी एसटी नहीं रहता, लेकिन तब से ही एक वार्ड आरक्षित कर दिया गया।

पंचायत के भरसक प्रयास के बावजूद उनका नाम मतदाता सूची से नहीं हट रहा है और पंचायत को ग्रांट नहीं मिल रही है। हालांकि गांव के लोगों का कहना है कि बेशक उनके गांव को समरस की ग्रांट न मिले, लेकिन वे अपनी पूर्वजों की परंपरा को यूं ही निभाते रहेंगे।

ऐसे चुना जाता है सरपंच

लगभग 70 वर्षीय अबू बकर चुनाव का तरीका बताते हुए कहते हैं, “ जैसे ही पंचायत के कार्यकाल के पांच साल पूरे होते हैं तो जिस भी समुदाय का सरपंच बनने की बारी होती है। सबसे पहले उस समुदाय की बैठक होती है। जैसे कि इस बार मुस्लिम समुदाय का सरपंच बनना था तो सबसे पहले मुस्लिम समुदाय की बैठक हुई। आपसी रजामंदी के बाद इमरान खान की पत्नी राउफाबेन को सरपंच बनाने का निर्णय सर्वसम्मति से लिया गया। फिर अगले दिन हिंदू धर्म के लोगों के साथ सामूहिक बैठक हुई। बैठक में मुस्लिम समुदाय ने अपने निर्णय की जानकारी दी और सर्वसम्मति से इसे मान लिया गया।“

गांव के लोगों को गर्व है कि हिंदू मुस्लिम एकता की मिसाल के तौर पर उनके गांव का नाम लिया जाता है। 

गांव में ज्यादातर परिवारों की आर्थिक स्थिति ठीक है। वैसे तो ग्रामीणों के पास खेती की जमीन भी है, लेकिन ज्यादातर लोग घड़ी साजी (घड़ी की मरम्मत) का काम भी करते हैं। यह उनका पुश्तैनी काम है।

ग्रामीण बताते हैं कि लगभग हर परिवार से कोई न कोई सदस्य मुंबई में है। पहले लोग वहां घड़ी का काम करते थे, लेकिन पिछले कुछ सालों से घड़ी का काम कम होने के कारण युवा मोबाइल ठीक करने के काम में लग गए हैं।

कल पढ़ें एक और गांव की कहानी

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