जोशीमठ धंसाव के बाद राष्ट्रीय आपदा कानून पर क्यों उठ रहे हैं सवाल?

क्या मौजूदा आपदा प्रबंधन कानून और उसके 18 बरस पुराने प्रावधान, वर्तमान और भावी आपदाओं के मद्देनजर पर्याप्त हैं?
फोटो: सन्नी गौतम
फोटो: सन्नी गौतम
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जनवरी 2023 के शुरुआत से जोशीमठ सहित हिमालय क्षेत्र के अन्य शहरों - क़स्बों और गांवों में दिखती प्राकृतिक आपदा और उसके राजनैतिक नजरिये ने मौजूदा व्यवस्था पर जो सवाल खड़े किये हैं - और उन सवालों के जो आधे-अधूरे जवाब मिले हैं, उसने प्रभावित क्षेत्रों को 'राष्ट्रीय आपदा' घोषित करने जैसे 4 दशक पुराने मांग को एक बार फिर समाज और सरकार के समक्ष जिन्दा कर दिया है।

हाल ही में जोशीमठ और हिमालय क्षेत्र के लगातार गंभीर होते संकट को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने वाली याचिका पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय का सुनवाई से इनकार करना निश्चित ही लाखों लोगों की उम्मीदों का असामयिक अवसान है।

प्राकृतिक आपदाओं से प्रतिवर्ष प्रभावित लाखों-करोड़ों लोगों की अपेक्षाए बस इतनी ही थीं/ है कि प्रकृति से छेड़छाड़ का जो अपराध उन्होंने किया ही नहीं, कम से कम उसकी सजा तो न मिले। सत्य तो यह है कि यदि व्यवस्थातंत्र और न्यायतंत्र मिलकर आपदायें ऱोक नहीं सकती तो समाज अपना मार्ग कदाचित खुद बना लेगा। लेकिन भारत जैसे लगातार प्राकृतिक आपदा का सामना करते देश में - राज्य और माननीय न्यायालय से न्याय की उम्मीद करना तो नागरिक का स्थापित अधिकार है।

वर्ष 2021 में काउंसिल फॉर एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर द्वारा किया गया शोध कहता है कि - भारत के 35 राज्य तथा केंद्र शासित क्षेत्रों में से 27, जलवायुवीय परिवर्तनों और उससे होने वाले प्राकृतिक आपदाओं की दृष्टि से संवेदनशील हैं। अर्थात भारत का लगभग 74 फ़ीसदी क्षेत्र प्रत्यक्ष रूप से आपदा प्रभावित है अथवा हो सकता है।

लेकिन इस प्राकृतिक (और बहुत हद तक मानव निर्मित) आपदा और उसके सामाजिक - आर्थिक - मनोवैज्ञानिक और पर्यावरणीय प्रभावों और उसके संभावित समाधानों को आखिर किस नजरिये से देखा- समझा और सुलझाया जाये, अब तक समाज और सरकार दोनों यह तय कर पाने में असमर्थ ही रहे हैं।

सवाल शेष है कि - भारत के दो-तिहाई क्षेत्र और करोड़ों लोगों के अस्तित्व, आजीविका और अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्राकृतिक आपदाओं के समाधानों के प्रति जवाबदेह नैतिक - राजनैतिक और न्यायिक प्रतिक्रिया आखिर कब, कैसे और कौन तय करेगा ? क्या मौजूदा आपदा प्रबंधन क़ानून और उसके 18 बरस पुराने प्रावधान, वर्तमान और भावी आपदाओं के मद्देनजर पर्याप्त हैं?

क्या आपदा प्रबंधन क़ानून (2005) की अपर्याप्तता को समाप्त करना व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की सामूहिक जवाबदेही नहीं है ? क्या आपदाओं का सामना करने के लिये मौजूदा सरकारी वित्तीय प्रावधान - उनके मानक और निर्धारण की (राज)नीति निष्पक्ष और न्यायसंगत हैं ? और सबसे महत्वपूर्ण आपदाओं से प्रभावित अंतिम व्यक्ति को न्याय सुनिश्चित करने का माध्यम क्या है/ होना चाहिये ?

आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में असम राज्य के विख्यात छात्र आंदोलन के दौरान एक महत्वपूर्ण मांग थी कि -असम के ब्रह्मपुत्र घाटी में हर बरस आने वाले बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाये। दरअसल इस मांग के पीछे तर्क यही था कि हर बरस बाढ़ से न केवल हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि समाप्त हो जाती है - बल्कि बाढ़ और भूमि कटाव के चलते लाखों परिवार तबाह होते हैं और उनकी आजीविका का भी गंभीर संकट खड़े हो जाता है।

बाढ़ और भूमि कटाव के इस विकराल समस्या को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के मांग को प्रमुख आधार बनाकर वर्ष 1985 में भारत सरकार - असम सरकार तथा 'ऑल आसाम स्टूडेंट यूनियन - आसू' के मध्य करारनामा हुआ जिसे 'असम समझौता' (असम एकॉर्ड) के नाम से जाना जाता है। सत्य यह है कि असम समझौते के 7वें अनुच्छेद में असम में बाढ़ से प्रभावित लाखों लोगों की उम्मीदों के साथ इस आपदा के राजनैतिक समाधानों का जनमत भी दर्ज है।

असम समझौते के 38 बरस हो चुके हैं और बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग करने वालों की अगली पीढ़ी न्याय की प्रतीक्षा में है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (भारत सरकार) की मौजूदा रिपोर्ट के अनुसार असम में वर्ष 1952 से अब तक लगभग 1 करोड़ लोग प्रभावित हुये हैं और अनुमानतः 71,717 लाख रुपयों की संपत्ति का नुकसान हुआ है।

और इस बीच लगभग 4700 वर्ग किलोमीटर भूमि बाढ़ से होने वाले कटाव में समाप्त हो गयी। यदि इस आपदकारी नुकसान का सामाजिक - आर्थिक - राजनैतिक और पर्यावरणीय मूल्य का आंकलन और उसके समाधान नहीं किये जा सके हों तो उसे सरकार की 'अक्षम्य राजनैतिक अक्षमता' कहा जा सकता है - लेकिन बावजूद इसके यदि असम में होने वाले बाढ़ और भूमि कटाव को अब तब राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया गया है तो इसे 'अक्षम्य राजनैतिक अपराध' माना ही जाना चाहिये।

इसके आगे सवाल हो सकता है कि आखिर इस अक्षम्य अपराध के आरोपी कौन हैं ?

भारत सरकार द्वारा गठित 10 वे वित्त आयोग (वर्ष 1995-2000) द्वारा प्रस्ताव दिया गया कि यदि किसी प्राकृतिक अथवा दुर्लभ आपदा के कारण राज्य का एक-तिहाई जनजीवन प्रभावित होता है तो उसे 'राष्ट्रीय आपदा' माना जा सकता है, किन्तु रिपोर्ट में इसे परिभाषित नहीं किया गया।

इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित 'आपदा प्रबंधन के लिये राष्ट्रीय समिति' से अपेक्षा की गयी कि वह राष्ट्रीय आपदा के पैमाने तय करे - किंतु ऐसा नहीं हो सका और लाखों लोगों की उम्मीदें दफ़न कर दी गयीं।

कालांतर में भारत सरकार द्वारा आपदा प्रबंधन क़ानून लागू (2005) किया गया और आपदा को परिभाषित भी किया गया लेकिन एक बार फ़िर 'राष्ट्रीय आपदा' घोषित किये जाने के पैमाने जाने-अनजाने तय नहीं किये गये।

1 जुलाई 2019 को बोडोलैंड पीपल फ्रंट के बिस्वजीत दईमारी द्वारा राज्यसभा में पूछे गये सवाल के जवाब में भारत सरकार के जलशक्ति और सामाजिक न्याय मंत्रालय के राज्यमंत्री रतनलाल कटारिया ने जवाब दिया कि - असम के बाढ़ को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया सकता।

विगत वर्ष भारत सरकार के राज्यमंत्री किरन रिजुजू द्वारा संसद में बताया गया कि अब तक किसी मौजूदा क़ानून अथवा नीति में प्राकृतिक आपदा को 'राष्ट्रीय आपदा' घोषित किये जाने के प्रावधान नहीं सुनिश्चित किये जा सके हैं। यहाँ तक कि नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फंड अथवा स्टेट डिजास्टर रिस्पांस फंड के दायरे में भी 'राष्ट्रीय आपदा' परिभाषित नहीं है।

स्वाधीनता के बाद असम जैसे संवेदनशील राज्य से शुरू हुआ आपदा का यह संक्षिप्त इतिहास वास्तव में आजादी का अमृत महोत्सव मनाते देश में जोशीमठ के बेबस लोगों तक आकर समाप्त नहीं होता है। अभी कथ्य, कथा और कथानक शेष हैं।

इसलिये कि आपदा को अवसर मानने - समझने वाला देश शनैः शनैः अवसरों को आपदाओं में अपघटित करते जा रहा है। सरकार और समाज दोनों को अब यह समझना ही होगा कि 'राष्ट्रीय आपदा' का अर्थ केवल पैसों और राहत सामग्रियों की भीख नहीं है - होनी भी नहीं चाहिये।

राष्ट्रीय आपदा घोषित करने के निहितार्थ यह होने ही होंगे कि समाज, और समाज से जनमीं निर्वाचित सरकारें अब तो प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने के लिये अपनी दृष्टि और दिशा में अंतिम और निर्णायक प्रायश्चित करें - आज और अभी।

(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)

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