पॉलीक्राइसिस के नए साल किस करवट बैठेंगे मतदाता?

2024 में जब दुनिया का हर दूसरा शख्स मतदान करेगा तो क्या असल संकट के मुद्दे उसके जेहन में होंगे?
फोटो़: आईस्टॉक
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साल 2024 दुनियाभर के मतदाताओं का साल है। आप कह सकते हैं कि यह चुनावी महाकुंभ वाला साल है। 2024 में संयुक्त रूप से 44.2 ट्रिलियन (खरब) सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वाले भारत और अमेरिका सहित करीब 40 देशों के करीब 3.2 बिलियन (320 करोड़) लोग इस चुनावी महाकुंभ में मतदान के रूप में आहुति देंगे।

अगर काउंटी (भारत में राज्य) और स्थानीय निकायों के चुनावों को भी इसमें शामिल कर लिया जाए तो करीब 76 देशों में मतदान होगा। या यह भी कह सकते हैं कि दुनिया में हर दूसरा शख्स मतदान करेगा। चुनाव पर नजर रखने वाली बहुत सी एजेंसियों का मानना है कि एक साल में पहले कभी इतने अधिक लोगों ने मतदान नहीं किया।

यह पॉलीक्राइसिस यानी “बहुसंकट” का भी समय है। इसका आशय है कई विनाशकारी घटनाओं का एक साथ लगातार घटित होना। मसलन मौजूदा समय में जलवायु आपातकाल ने हर देश और हर नागरिक के सामने खतरा पैदा कर दिया है, पर्यावरण के क्षरण और सामूहिक विलुप्ति ने प्रकृति को अक्षम कर दिया है और साथ ही दशकों की प्रगति के बाद गरीबी व भुखमरी बढ़ने से विश्व अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है।

इनमें कई देश ऐसे हैं जो गरीबी के बीच महामारी से लड़ते हुए खुद को उबारने का संघर्ष कर रहे हैं।  अस्तित्व के संकट के अलावा दुनिया कई युद्धों से भी जूझ रही है है और आपस में जुड़ी वैश्विक प्रणालियां ध्वस्त हो रही हैं। देश भी अपने समाज को कई ध्रुवों में बंटता देख रहे हैं। यह ऐसा भी समय है जब विश्व में सबसे अधिक युवा जनसंख्या है। इस लिहाज से देखें तो 2024 वह महत्वपूर्ण मोड़ है, जब लोगों की ताकत लोकतंत्र की कटौती पर परखी जाएगी।

यदि लोकतंत्र में चुनाव स्वीकृति देने का पहला कदम है तो इस बहुसंकट के दौर में दुनिया कैसी प्रतिक्रिया देगी या मतदान करेगी? क्या जलवायु परिवर्तन, महामारी, गरीबी एवं भुखमरी जैसे संकट हमारे चुनावी निर्णयों को निर्धारित करेंगे? क्या ध्रुवीकृत मतदाता इन संकटों को अपना एजेंडा नहीं बनाएंगे और अपनी वैचारिक नजदीकी के मुताबिक मतदान करेंगे? यदि मतदाता अपनी वैचारिक नजदीकी के अनुसार व्यवहार करते हैं तो निर्वाचित सरकारें किस उद्देश्य की पूर्ति करेंगी? जैसे-जैसे समय गुजरेगा हमारे पास संबंधित चुनाव और उसके संदेशों का देश-वार मूल्यांकन होगा।

लेकिन एक और संदर्भ है जिसका इन चुनावों में अध्ययन किया जाना चाहिए। वह है लोकतंत्र की स्वीकार्यता और उपयोगिता। इसमें शक नहीं है कि लोकतंत्र को अब भी  प्राथमिकता दी जाती है। यह बात फ्रीडम हाउस द्वारा किए गए “फ्रीडम इन द वर्ल्ड” मूल्यांकन से भी स्पष्ट होती है। इसके नवीनतम मूल्यांकन के अनुसार, 1973 में जब इस तरह का पहला सर्वेक्षण आयोजित किया गया था, तब 148 देशों में से केवल 44 को “आजाद” के रूप में वर्गीकृत किया गया था। वर्तमान में यह संख्या 84 (195 देशों में से) है।

ओपन सोसाइटी फाउंडेशन ने अपने “ओपन सोसाइटी बैरोमीटर” शीर्षक से 2023 में किए गए सर्वेक्षण में पाया था कि औसतन 86 प्रतिशत उत्तरदाता लोकतांत्रिक राज्य में रहना चाहते हैं। सर्वेक्षण में कहा गया है कि लोग अभी भी आम चुनौतियों के समाधान में इसकी (लोकतंत्र) क्षमता पर विश्वास करते हैं।

सर्वेक्षण में आम चुनौतियों में स्कूलों और अस्पतालों का निर्माण, पर्यावरण की रक्षा और अपराध को कम करना जैसी “अनिवार्यताएं” शामिल थीं। सर्वेक्षण में एक और चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आई जो लोकतंत्र या चुनी हुई सरकारों पर कम होते भरोसे का संकेत देती है।

सर्वेक्षण में पाया गया कि 56 वर्ष और उससे अधिक आयु के एक-चौथाई से अधिक उत्तरदाताओं ने “मजबूत” नेताओं का समर्थन किया, जो विधानसभाओं और चुनावों को नजरअंदाज करते हैं। युवा उत्तरदाताओं में से एक महत्वपूर्ण प्रतिशत की राय भी यही है।

सर्वेक्षण में पाया गया कि 36-55 आयु वर्ग में यह आंकड़ा 32 प्रतिशत था और 18-35 आयु वर्ग में यह 35 प्रतिशत था। “ क्या वे किसी अन्य प्रकार की सरकार की तुलना में लोकतंत्र को प्राथमिकता देते हैं?” इस प्रश्न के उत्तर चिंताजनक थे। 56 वर्ष और उससे अधिक आयु वर्ग के लगभग 71 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने लोकतंत्र को प्राथमिकता दी, जबकि 36 वर्ष से कम आयु के केवल 57 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने शासन के अन्य रूपों की तुलना में लोकतंत्र को बेहतर पाया। सर्वेक्षण का निष्कर्ष था, “शायद इससे हमें हैरान नहीं होना चाहिए।

आज के युवा बड़े हो गए हैं और उनका राजनीतिकरण हो गया है क्योंकि पॉलीक्राइसिस का युग सामने है जिसमें जलवायु, आर्थिक, तकनीकी और भू-राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ी है। इसने एक-दूसरे को मजबूती से जोड़ दिया है। इसलिए, भले ही दुनिया के ज्यादातर लोगों का लोकतंत्र पर यकीन हो पर इस यकीन में जबर्दस्त सेंधमारी हुई है। इन निष्कर्षों से पता चलता है कि यह यकीन आगे आने वाली हर पीढ़ी के साथ कमजोर हो सकता है।

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