मनरेगा मजदूरों का 1200 करोड़ रुपया फंसा, काम के बाद भी भुगतान रद्द

मनरेगा में मजदूरी करने के बाद भी आधार या बैंक खाते की जानकारी सही न होने के कारण भुगतान रद्द हो जाता है
काम करने के बाद भी मनरेगा मजदूरों को उनकी मजदूरी नहीं मिल रही है। फोटो: श्रीकांत चौधरी
काम करने के बाद भी मनरेगा मजदूरों को उनकी मजदूरी नहीं मिल रही है। फोटो: श्रीकांत चौधरी
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कोरोना आपदा के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा पर सरकार ही नहीं, बल्कि ग्रामीणों का भरोसा बढ़ा। अपना पेट भरने के लिए गांवों में पहुंचें प्रवासियों और ग्रामीणों ने मनरेगा का काम भी किया, लेकिन काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो क्या होगा? आंकड़े बताते हैं कि वित्त वर्ष 2020-21 यानी कोरोना काल में मनरेगा का 123 करोड़ रुपया (लगभग 73 लाख ट्रांजेक्शन) का भुगतान रद्द कर दिया गया है। स्वयंसेवी संगठन पीपुल्स एक्शन फॉर इम्प्लायमेंट जनरेशन गारंटी (पीएइजी) की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले पांच साल के दौरान मजदूरों का लगभग 1,200 करोड़ रुपया फंसा हुआ है। जिसके बारे में किसी की जवाबदेही नहीं है।

दरअसल, मनरेगा के तहत प्रावधान किया गया है कि मजदूरों को भुगतान मिलने में 15 दिन से अधिक समय नहीं लगना चाहिए। इसलिए व्यवस्था की गई है कि ग्रामीण विकास विभाग के स्थानीय अधिकारी हर सप्ताह जितना काम होता है, उसका एक फंड ट्रांसफर ऑर्डर (एफटीओ) जनरेट करते हैं। यह एक तरह का डिजीटल चेक या पेऑर्डर होता है। यह एफटीओ ऑनलाइन केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय से सीधे पब्लिक फंड मेनजमेंट सिस्टम (पीएफएमएस) तक पहुंच जाता है। लेकिन यदि भुगतान की प्रक्रिया “आधार” पर आधारित होती है (जो कि अब लगभग सभी राज्यों में है) तो मजदूरी का भुगतान नेशनल पेमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के माध्यम से मजदूर के बैंक खाते में पहुंच जाता है।

पीएइजी से जुड़े राजेंद्रन बताते हैं कि इस प्रक्रिया के बावजूद मजदूर तक उसकी मजदूरी नहीं पहुंच रही है। जैसे ही, स्थानीय अधिकारी एफटीओ जनरेट किया जाता है, उससे यह मान लिया जाता है कि मजदूर को भुगतान मिलने में देरी नहीं हुई है, लेकिन हकीमत में मजदूर के खाते तक पैसे नहीं पहुंचते हैं। इसकी चार प्रमुख वजह सामने आई हैं। एक, मजदूर के बैंक खाते का नंबर सही नहीं है तो उस भुगतान का एफटीओ जनरेट होने के बावजूद रिजेक्ट कर दिया जाता है। दूसरा, किन्ही कारणों से बैंक खाता फ्रीज कर दिया गया है तो पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है। तीसरा, बैंक ने खाता बंद कर दिया है तो भी पेमेंट रिजेक्ट कर दी जाती है, लेकिन चौथा सबसे बड़ा कारण यह है कि मजदूर ने जो खाता अपने जॉब कार्ड में दर्शाया है और उस खाते को अपने आधार नंबर से लिंक नहीं किया है तो भी मजदूरों का भुगतान रद्द कर दिया जाता है।

मनरेगा की वेबसाइट पर अपलोड एमआईएस रिपोर्ट बताती है कि वित्त वर्ष 2020-21 में 14 सितंबर 2020 तक 3.04 करोड़ ट्रांजेक्शन जनरेट हुए। इसमें से 73,04,712 ट्रांजेक्शन रिजेक्ट हुए हैं। जो लगभग 123 करोड़ रुपया बनता है।

राजेंद्रन बताते हैं कि उनकी संस्था ने पिछले पांच साल और इस साल के जुलाई माह तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया तो पाया कि हर 23 वें भुगतान (ट्रांजेक्शन) में से एक भुगतान रिजेक्ट हो रहा है और इस अवधि के दौरान लगभग 5 करोड़ ट्रांजेक्शन रिजेक्ट किए गए, जो लगभग 4,800 करोड़ रुपए बनता है। इन ट्रांजेक्शन को रिजनरेट तो किया गया, लेकिन अभी भी  लगभग 1,200 करोड़ रुपया मजदूरों का नहीं मिला है। वह कहते हैं कि हालांकि यह कहना भी पूरी तरह सही नहीं है कि ट्रांजेक्शन रिजनरेट होने के बावजूद मजदूरों को पैसा मिल ही गया होगा। क्योंकि मनरेगा की वेबसाइट पर जो जानकारी दी गई है, उसमें यह तो बताया गया है कि ट्रांजेक्शन रिजेक्ट होने के बाद रिजनरेट कर दी गई है, लेकिन पेमेंट प्रोसेस्ड हो गई है, यह जानकारी उपलब्ध नहीं है।

डाउन टू अर्थ ने भी मनरेगा की एमआईएस रिपोर्ट की जांच की तो पाया कि बार-बार रिजनरेट होने के बाद भी पेमेंट प्रोसेस नहीं हो रही है। हरियाणा के फरीदाबाद जिले के गांव बिजोपुर में गुलिस्ता नामक एक मजदूर ने तालाब खोदने का काम किया। 16 जुलाई 2020 को पहली बार पेमेंट रिजेक्ट हो गई। कारण बताया गया कि जो बैंक खाता दर्शाया गया है, वह खाता है ही नहीं। लेकिन इस खाते का सही कराने की बजाय एक बार फिर से 24 जुलाई 2020 को ट्रांजेक्शन रिजनरेट कर दी गई। जो फिर रिजेक्ट हो गई। एक बार फिर से नौ सितंबर 2020 को ट्रांजेक्शन प्रोसेस की गई और फिर रिजेक्ट कर दी गई। इस बार कारण साफ-साफ लिखा गया कि जो बैंक खाता बताया जा रहा है, वह मैच नहीं कर रहा है। इस तरह 14 सितंबर 2020 तक गुलिस्ता को पैसा नहीं मिला है। जबकि मनरेगा एक्ट के तहत उसे 15 दिन के भीतर मजदूरी मिल जानी चाहिए। (देखें, मनरेगा वेबसाइट का स्क्रीन शॉट)

राजेंद्रन बताते हैं कि ऐसे बहुत से केस हैं। मजदूरों को उनकी मजदूरी का पैसा कई-कई साल से नहीं मिला। दिलचस्प बात यह है कि यह पैसा क्यों नहीं मिल रहा है, इसकी जिम्मेवारी लेने वाला भी कोई नहीं है। मजदूर जब अपनी मजदूरी के लिए सरपंच या स्थानीय अधिकारी के पास जाता है तो उसे बताया जाता है कि उन्होंने तो उसी सप्ताह एफटीओ जनरेट कर दिया था। बैंक में जाता है तो बताया जाता है कि बैंक के पास पैसा आया ही नहीं है। एनपीसीआई, जिसके पास पूरे देश के आधार लिंक्ड बैंक खातों की जानकारी है, उससे कोई सवाल कर नहीं सकता।  यानी कि मजदूरों को उनकी मजदूरी मिलेगी या नहीं, इसकी जिम्मेवारी भी तय नहीं है।

24 से 28 अगस्त 2020 के बीच केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित परफॉरमेंस रिव्यू कमेटी की वर्चुअल मीटिंग में भी यह मुद्दा उठ चुका है। बैठक में वर्ष 2020-21 में 17 अगस्त 2020 तक रिजेक्ट हुई ट्रांजेक्शन के बारे में बताया गया कि सात राज्यों में 60 फीसदी से अधिक बकाया भुगतान रिजनरेट नहीं हुआ है। इनमें सबसे अधिक मणिपुर में 92 फीसदी, बिहार में 72 फीसदी, ओडिशा में 70 फीसदी, झारखंड में 69 फीसदी और मिजोरम में 66 फीसदी मजदूरी का भुगतान रद्द होने के बाद रिजनरेशन के लिए भेजा गया है।

राजेंद्रन कहते हैं कि कोविड-19 महामारी के दौरान जब कहीं रोजगार नहीं मिल रहा था तो मनरेगा अकेली ऐसी योजना थी, जिसमें लोगों ने यह सोच कर काम किया कि कुछ तो पैसा हाथ में आएगा, लेकिन ऐसे बुरे वक्त में जब पूरा काम करने के बाद भी मजदूरी न मिले तो इन मजदूरों पर क्या बीती होगी? कई बार ऐसा भी होता है कि बैंक खाते का नंबर गलत लिखने के कारण एक सप्ताह की मजदूरी का भुगतान रिजेक्ट कर दिया जाता है, लेकिन अगले सप्ताह फिर उसी गलत खाते का एफटीओ जनरेट कर दिया जाता है, इस तरह अगर वह मजदूर 100 दिन भी काम कर ले तो उसे पूरा पैसा नहीं मिलता। इतना ही नहीं, अगर 15 दिन में भुगतान न मिले तो मनरेगा के तहत मुआवजा देने का प्रावधान है, लेकिन ऐसे मजदूरों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाता। वह कहते है कि सरकार इस मुद्दे को गंभीरता से ले और मजदूरों को उनकी मजदूरी हर हाल में 15 दिन के भीतर मिले, यह व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।

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