हंसराज विज की उम्र 83 साल हो चुकी है। थोड़ा ऊंचा सुनते हैं। याददाश्त भी कमजोर हो चली है, लेकिन लगभग 71 साल पहले का एक दिन वह नहीं भूलते। 10 जनवरी 1948, भारत की आजादी को 4 माह ही बीते थे। वह उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत (अब पाकिस्तान में) के बन्नू जिले में जहां रहते थे, वहां अचानक अफरातफरी मच गई। परिवार के लोग कहने लगे कि उन्हें घर छोड़ना पड़ेगा। पिता से सुना कि उन्हें हिंदुस्तान जाना पड़ेगा। वह अपने परिवार के साथ पेशावर पहुंचे और वहां से उन्हें एक ट्रेन में बिठा दिया गया। अगले दिन 11 जनवरी को चलती ट्रेन में कत्लेआम शुरू हो गया। बहुत से लोग मारे गए, उनके बुआ के बेटे को भी किसी ने गोली मार दी, लेकिन वह और उनका परिवार ट्रेन में छुपकर किसी तरह बच निकला। जैसे-तैसे वह एक कैंप में पहुंचे, जो राजधानी दिल्ली के पास फरीदाबाद में लगा था। देखते ही देखते वहां एक शहर खड़ा हो गया।
फरीदाबाद, यूं तो जहांगीर के जमाने का शहर है, लेकिन विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को बसाने के लिए इसी पुराने शहर के पास एक खाली इलाके को चुना गया, जिसे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने नाम दिया, न्यू इंडस्ट्रियल टाउन (एनआईटी) फरीदाबाद।
अनुमान है कि लगभग 80 लाख लोग पाकिस्तान से उजड़ कर भारत आए थे। इनमें से लगभग 80 हजार लोग उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत (नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस) के थे। इनमें से लगभग 30 हजार लोगों को पहले कुरुक्षेत्र फिर राजधानी दिल्ली से कुछ ही दूरी पर बसे फरीदाबाद (जो उस समय पंजाब की तहसील थी और अब हरियाणा में है) के रिफ्यूजी कैंप में ठहराया गया। खुद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू इस कैंप की देखरेख करते थे, क्योंकि सीमा प्रांत से आए ये लोग खान अब्दुल गफ्फार खान के अनुयायी थे। अब्दुल गफ्फार को सीमांत (फ्रंटियर) गांधी के नाम से जाना जाता था, वह महात्मा गांधी और नेहरू के काफी करीबी थे।
छात्र जीवन में भारत छोड़ो आंदोलन से जुड़े रहे और आजादी के बाद विस्थापितों के पुनर्वास में अपनी भागीदारी निभाने वाले एलसी जैन ने “द सिटी ऑफ होप, द फरीदाबाद स्टोरी” किताब में फरीदाबाद के बसने की पूरी कहानी लिखी है। वह लिखते हैं कि फरीदाबाद कई मामलों में देश के लिए मिसाल बन गया। यहां रह रहे लोगों ने खुद अपने लिए (सेल्फ हेल्प) घर बनाए, सड़कें, पार्क, स्कूल, अस्पताल बनाया। ये लोग उजड़कर आए थे, लेकिन उन्होंने सरकार की खैरात लेने से इनकार कर दिया और सरकार से कहा कि वे मजदूरी करेंगे और खुद अपने लिए शहर बनाएंगे। सोचिए, क्या यह ठीक वैसा ही नहीं है, जैसा फरवरी 2006 से शुरू हुए महात्मा गांधी नेशनल रूरल इम्प्लॉयमेंट गारंटी प्रोग्राम (मनरेगा) में हुआ। मनरेगा में लोगों से अपने गांव व उसके आसपास के इलाके विकसित करने का काम दिया जाता है।
हालांकि नेहरू नया शहर बनाने का काम पीडब्ल्यूडी से कराना चाहते थे, लेकिन तब तक सहकारिता आंदोलन को सरकारी जामा पहनाने के लिए इंडियन कॉपरेटिव यूनियन (आईसीयू) का गठन हो चुका था और कमला देवी चट्टोपाध्याय को अध्यक्ष बनाया गया। आईसीयू की ओर से पेशकश की गई कि नए शहर का निर्माण आईसीयू के माध्यम से कराया जाए, जिसे नेहरू ने मंजूरी दे दी।
नेहरू फरीदाबाद को लेकर बेहद संजीदा थे। उन्होंने पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर को 17 अप्रैल 1949 को पत्र लिखा, “शायद आपको पता होगा कि दिल्ली से 15 मील की दूरी पर फरीदाबाद में रिफ्यूजी कैंप है, जहां अब टाउनशिप बनाने की योजना है, लेकिन काम धीमी गति से चल रहा है, मैं चाहता हूं कि पंजाब इस काम में शामिल हो और पैसा केंद्र देगा। काम जल्दी पूरा करने के लिए फौज को भी शामिल किया जाए, यह कैंप के अलावा नई टाउनशिप बनाने का काम करे। दिल्ली से नजदीक होने की वजह से सारा काम दिल्ली से हैंडल किया जाएगा।”
25 मई 1,949 को कैबिनेट बैठक बुलाई गई और फरीदाबाद विकास बोर्ड के गठन को मंजूरी दे दी गई। इस निर्णय के बाद जून 10, 1949 को फरीदाबाद विकास बोर्ड का गठन कर दिया गया। बोर्ड का अध्यक्ष राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को नियुक्त किया गया। खुद नेहरू इसके आमंत्रित सदस्य थे। बोर्ड के मुख्य प्रशासक के तौर पर नेहरू ने सुधीर घोष को नियुक्त किया, वह महात्मा गांधी के बेहद करीबी थे और ब्रिटिश सरकार और गांधी के बीच संवाद स्थापित करने का काम करते थे।
आजादी के बाद देश का पहला शहर कैसा होना चाहिए, इसकी बानगी नेहरू के एक अन्य पत्र से दिखती है। 12 मई 1949 के इस पत्र का जिक्र भी एलसी जैन की किताब में है। नेहरू ने लिखा कि अब दो बड़े सवाल सामने हैं। पहला, टाउन की प्लानिंग और दूसरा, कितने लोगों के लिए टाउन बनाया जाए। प्लानिंग विभाग को ध्यान रखना होगा कि टाउनशिप में केवल घर ही नहीं होंगे, बल्कि वहां बच्चों के खेलने और विकसित होने के लिए मैदान की भी व्यवस्था करनी होगी और ओपन स्पेस भी छोड़ने होंगे। साथ ही, स्कूल, मार्केट के लिए भी जगह रखनी होगी। चूंकि आजादी के बाद का पहला औद्योगिक शहर बसाना जा रहा था। इसलिए यह जानना भी रोचक होगा कि उद्योगों के बारे में नेहरू क्या सोचते थे? उन्होंने लिखा, “टाउनशिप में कैसे छोटे-बड़े या दोनों तरह के उद्योग लगाए जाएं। अगर यह काम ध्यानपूर्वक प्लान नहीं किया गया तो वर्कर्स को रहने के लिए जगह नहीं मिल पाएगी और स्लम बस्तियां पनप जाएंगी। बड़े उद्योग बुरे नहीं हैं, लेकिन उन्हें अंडरटेकिंग देनी होगी कि वे अपने वर्कर्स के लिए क्वाॅर्टर बनाएंगे, जैसा यूरोप में होता है।”
सहकारिता की मिसाल
रिफ्यूजी कैंप का प्रशासन फौज के पास था। यह विस्थापितों को अखर रहा था। उन्होंने इस बारे में अपने नेताओं से बात की। पंडित नेहरू को भी इस बारे में पता चला तो उन्होंने एक सलाहकार समिति बनाने के निर्देश दिए। इस समिति का अध्यक्ष सालार सुखराम को बनाया गया। उनके 81 वर्षीय पुत्र जमनलाल विज याद करते हैं, “समिति के 11 सदस्यों का चुनाव किया गया था, जो आजाद देश में होने वाला पहला चुनाव था।” इसका जिक्र भी जैन की किताब में भी मिलता है। विज कहते हैं कि सारी प्रशासनिक तैयारियों के बाद 17 अक्टूबर 1949 को न्यू टाउन फरीदाबाद की नींव रखी गई। सलाहकार समिति को शहर के निर्माण के साथ-साथ कानून व्यवस्था बनाए रखने की भी जिम्मेदारी दी गई। लोगों से कहा गया कि वे अपनी क्षमता के मुताबिक, सहकारी संस्थाएं बनाएं। सात लोगों ने मिलकर सहकारी समिति बनाई और इंडियन कोऑपरेटिव यूनियन में अपना रजिस्ट्रेशन कराया। उन सहकारी संस्थाओं को ठेका देना शुरू किया गया। ये सहकारी संस्थाएं जिन लोगों से काम कराती थी, उन्हें डेढ़ रुपए प्रतिदिन मजदूरी दी जाने लगी।
फरीदाबाद में रहने वाले वरिष्ठ कथाकार ज्योति संग बताते हैं, “नेहरू को शहर से इतना लगाव था कि फरीदाबाद विकास बोर्ड की कुल 24 बैठकों में से 21 में उन्होंने हिस्सा लिया था। शहर में 233 वर्ग गज के 5,196 मकान बनाने का निर्णय लिया गया। इसके लिए पांच करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया गया, लेकिन चूंकि लोग खुद अपने शहर का निर्माण कर रहे थे, इसलिए 4.64 करोड़ रुपए की लागत आई और बाकी पैसा सरकार को वापस कर दिया गया।” एक मकान की कीमत 1,800 रुपए रखी गई और लोगों से कहा गया कि से 11 रुपए 14 आने की मासिक किस्त के हिसाब से पैसा लौटाएं। शहर को पांच सेक्टर में बाटा गया। इन्हें नेबरहुड (एनएच) कहा गया। एनएच-4 को सरकारी कार्यालय और उनके अधिकारी-कर्मचारियों के आवास के लिए छोड़ दिया गया। शहर से कुछ दूरी पर एक पावर हाउस बनाया गया। लगभग 20 मील की सड़कें बनाई गईं। इसके अलावा आठ बड़े स्कूल, एक बड़ा अस्पताल, स्वास्थ्य केंद्र, वाटर वर्क्स, ड्रेनेज सिस्टम, एक सिनेमा घर और एक इंडस्ट्रियल सेक्टर बनाया गया। यह सब काम केवल 2.5 साल में पूरा हो गया। देखते ही देखते फरीदाबाद ने औद्योगिक नगरी के रूप में देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पहचान बना ली।
संग कहते हैं कि पाकिस्तान से आए हम लोग विस्थापित थे, जिन्हें शरणार्थी कहा जाता था, लेकिन हम लोग खुद को पुरुषार्थी कहलाना पसंद करते थे। जो लोग सहकारी संस्था बनाकर शहर का निर्माण कर रहे थे, उनके काम की तारीफ दिल्ली में भी होने लगी और उन्हें दिल्ली के कई इलाकों में निर्माण कार्य के लिए बुलाया जाने लगा। फरीदाबाद में सबसे पहले “बाटा शू” फैक्ट्री लगी थी। देखते ही देखते सैकड़ों फैक्ट्रियां लगने लगीं। जो लोग अपना सब कुछ छोड़कर आए थे, उनमें से कुछ लोगों ने अपनी फैक्ट्रियां लगाई और आज इनमें से कई देश के बड़े उद्योगपति हैं। उनमें से लखानी उद्योग समूह के केसी लखानी एक हैं।