धंसते जोशीमठ से उठते सवाल, सरकारों ने पहाड़ी राज्य के हिसाब से नहीं बनाया विकास मॉडल

7 फ़रवरी 2021 को धौलीगंगा में भीषण बाढ़ के क्या कारण थे, इससे आर्थिक नुकसान के अतिरिक्त परिस्थिकितंत्र को क्या नुकसान हुआ, इसका कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक आंकलन नहीं हुआ
जोशीमठ के सूरज कपरवाण ने कुछ दिन पहले ही लॉन्ड्री के लिए यह निर्माण किया था। फोटो: सनी गौतम
जोशीमठ के सूरज कपरवाण ने कुछ दिन पहले ही लॉन्ड्री के लिए यह निर्माण किया था। फोटो: सनी गौतम
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जोशीमठ में जो आज हो रहा है उसकी पठकथा तो कई सालों से लिखी जा रही थी, ये प्राकृतिक संसाधनों की लूट का खुला प्ररिणाम है। ये नाजुक परिस्थितिकीतंत्र के ऊपर आर्थिक तंत्र को तबज्जो देने का परिणाम है। हम सब जानते हैं कि हिमालय बहुत नाजुक पर्वतश्रृंखला है और इसका परिस्थितिकीतंत्र अतिसंवेदनशील है। हिमालय सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के पर्यावरण, समाज और अर्थव्यवस्था पर सीधा असर डालता है, वावजूद इसके लालच और मृगतृष्णा हमें इस सच को स्वीकारने से रोकती है।

अभी कुछ दिन पहले ही खबर आई थी कि इस साल लगभग 45 लाख तीर्थयात्रियों ने चार धाम की यात्रा की। उत्तराखंड सरकार और उसका पर्यटन विभाग इसको अपनी उपलब्धि की तरह पेश कर रहा है, लेकिन इन 45 लाख यात्रियों के कारण यहाँ की पारिस्थितिकी तंत्र को कितना नुकसान हुआ, कार्बन डाई ऑक्साइड का कितना उत्सर्जन हुआ, सडकों पर कितना कम्पन हुआ, और इन यात्रियों ने कितना मलमूत्र पैदा किया, और उस मलमूत्र या अन्य कचरे का निस्तारण कैसे और कहाँ हुआ, उस पर न कोई चर्चा हुई और न ही उसे कम करने की दिशा में कोई वैज्ञानिक प्रयास हुए ।

किसी रोज अगर किसी जगह सड़क पर मलबा आ जाता है, तो पर्यटकों को कोई दिक्कत न हो इसके लिए, तत्काल मलबा हटाने के लिए मशीने आ जाती हैं, लेकिन वह मलबा किस कारण सड़क पर आया या भूस्खलन का कारण क्या था, इससे परिस्थिकीतंत्र पर क्या प्रभाव पड़ा, इस पर कभी कोई चर्चा नहीं होती है।

अलकनंदा घाटी की दो भीषणतम बाढ़ों की आजकल बहुत चर्चा हो रही है, एक जो 1894 में आई थी और दूसरी जो 1970 में आई, इन दोनों बाढ़ों ने अलकनंदा घाटी को तहस-नहस कर दिया था । पर्वतीय क्षेत्रों में बाढ़ आना एक सामान्य सी घटना होती है, हालंकि कभी कभी बाढ़ की भयावता जनजीवन को तहस नहस कर देती है।

19वीं सदी में स्विज़रलैंड में अनेक भयानक बाढ़ों ने जनजीवन को तहस नहस कर दिया था। 1850 से 1900 के बीच स्विज़रलैंड में 9 भयंकर बाढ़ आई, जिसमें 1850, 1860, 1971 और 1874 की बाढ़ सबसे ज्यादा नुकसान दायक थी। 1868 की बाढ़ के बाद, स्विस फॉरेस्ट्री सोसाइटी के प्रोफेसर कार्ल कस्तोफर और एलियास लैंडोल्ट, सरकार और लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि इन बाढ़ों का सीधा कारण, पेड़ों का कटान है।

तत्पश्चात स्विस पर्वत श्रृंखलाओं के लिए विशेष नीति बनने लगी, और इसके परिणाम स्वरूप वर्ष 1914 में, यूरोप के पहले राष्ट्रीय उद्यान स्विस नेशनल पार्क की स्थापना हुई. इसका क्षेत्रफल लगभग 14,000 हेक्टेयर (लगभग 34,600 एकड़) है। कुछ विद्वानों का मानना है कि 1868 की बाढ़ ने स्विटज़रलैंड को बदल दिया था, नतीजतन 19 वीं सदी में प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित देश आज विश्व के विकसित देशों के श्रेणी में है।

इसके विपरीत 1894 की अलकनंदा की भीषण बाढ़ के बावजूद इस क्षेत्र में वृक्षों का व्यावसायिक कटान बदस्तूर जारी रहा था, उस वक्त देश अंग्रेजों का गुलाम था, अंग्रेजों को इस देश से अधिकतम फायदा लेना था, लेकिन 1970 की बाढ़ के समय तो देश आजाद हो चुका था, देश में हमारी खुद की सरकार थी।

1970 की अलकनंदा की भीषण बाढ़ का, जंगलों के अंधाधुंध कटान के साथ सीधा सम्बन्ध है, यह बात जनता को समझ आ गई थी, और इसी कारण 1974 में विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन हुआ। सरकार ने अनेक समितियां बनाई, जिनमें प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार समिति और महेश चंद मिश्रा समिति की रिपोर्ट पर आजकल काफी चर्चा चल रही है। प्रोफेसर वीरेंद्र कुमार समिति ने चिपको आंदोलन की पृष्ठभूमि में, अलकनंदा जलग्रहण क्षेत्र में हरे पेड़ों के व्यावसायिक कटान पर तत्काल रोक लगाने की सिफारिश की थी ।

इसके विपरीत वरिष्ठ नौकरशाह और गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर महेश चंद मिश्रा समिति ने जोशीमठ को लेकर आने सुझाव दिए थे, जिनमें प्रमुख थे कि यह क्षेत्र भारी निर्माण कार्यों के लिए संवेदनशील है, अर्थात भारी निर्माण कार्य न किया जाये।

इसके अतिरिक्त जोशीमठ शहर के जल निकासी, नदीतट को मजबूत करने, वृक्षारोपण, आदि की सलाह दी गई थी । लेकिन चूंकि इस समिति के अधिकतर सुझाव नेता-ठेकेदार-गठजोड़ के व्यावसायिक हितों के खिलाफ थे इसलिए इन पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई और इतने संवेदनशील क्षेत्र में लगातार निर्माण कार्यो को मंजूरी दी जाती रही है।

तपोवन जल विद्युत परियोजना और विष्णुगाड जल विद्युत परियोजना ने इस क्षेत्र को खोखला कर दिया, पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के साथ साथ फ़ौज की गाड़ियों के कंपंन और वजन से शहर की धारण क्षमता पूरी तरह चरमरा गई है।

कुछ साल पहले तक बड़े बांध बनाये जाते थे, जिससे बड़े पैमाने पर विस्थापन होता था, अब बड़े बांधों का स्थान रन ऑफ़ रिवर परियोजनाओं ने ले लिया है, जिसके लिए पानी को रोकर सुरंग में डाला जाता है, एक निश्चित दूरी के पश्चात प्राकृतिक रूप से पानी को ऊंचाई और गति मिल जाती है जिससे बिजली बनाई जाती है, सुनने में तो यह बहुत ही सरल और पर्यावरण हितेषी मॉडल दिखता है, लेकिन इसके लिए जो सुरंग खोदनी होती है, वह अक्सर उत्तराखंड हिमालय जैसे संवेदनशील और नये पहाड़ों की पारिस्थिकी तंत्र को नुक्सान पहुंचा रही है।

निसंदेह जोशीमठ की आपदा का प्रमुख कारण भी लगभग 12 किलोमीटर लम्बी सुरंग ही है। सुरंग में कितना पानी जायेगा, नदी के हिस्से में कितना पानी आएगा इसके लिए राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने स्पष्ट दिशा निर्देश देकर कहा है कि औसतन 15 से 20 प्रतिशत पानी नदी में छोड़ा जाना चाहिए अर्थात किसी भी स्थिति में नदी का कोई भी हिस्सा सूखा नहीं रहना चाहिए।

हालांकि धरातल पर इन दिशानिर्देशों की खुलेआम अवहेलना होती है। धरातल पर सच यह है कि कंपनियां अधिकतम पानी चूस लेती हैं और नदी का कई किलोमीटर का हिस्सा सूखा रहता है जिससे जलीय जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव के अतिरिक्त स्थानीय खेतों को सिंचाई के लिए पानी भी उपलब्ध नहीं हो पाता है।

7 फ़रवरी 2021 को धौलीगंगा में भीषण बाढ़ आई, जिससे निर्माणाधीन तपोवन जल विद्युत को भारी क्षति पहुंची, 200 से अधिक लोग इस आपदा का शिकार हुए, इसकी सुरंग में पानी भर गया और विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की भूमि रैणी गांव को भी इससे भारी नुकसान हुआ, घरों और खेतों में दरारें आ गई और यह गांव पिछले दो साल से सुरक्षित स्थान पर विस्थापन का इन्तजार कर रहा है।

इस बाढ़ के क्या कारण थे, इससे आर्थिक नुकसान के अतिरिक्त परिस्थिकितंत्र को क्या नुकसान हुआ, इसका कोई स्वतंत्र वैज्ञानिक आंकलन नहीं हुआ, और परियोजना का काम दुबारा शुरू हो गया, संभवतः इसी का खामियाजा आज जोशीमठ भुगत रहा है।

आजकल उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में चारों तरफ भारी निर्माण कार्य चल रहा है। तथाकथिक ऑल वेदर रोड के लिए 889 किलोमीटर सडकों को चौड़ा किया जा रहा है, जिसके लिए पहाड़ों को 90 डिग्री तक सीधा काटा जा रहा है, लाखों पेड़ कट चुके हैं, लाखों टन मलबा पैदा हो चुका है,लगभग 150 से अधिक नए भूस्खलन क्षेत्र पैदा हो गए हैं।

यह परियोजना पर्यावरण कानूनों का खुला उल्लंघन है। सरकार भले ही कुछ भी दावे करे पर सच यह है कि परियोजना की घोषणा आननफानन में राजनीतिक लाभ के लिए की गई थी, और फिर घोषणा होने के पश्चात कागजी कार्रवाई की गई।

इस परियोजना के कारण पारिस्थिकीतंत्र को कितना नुकसान हो रहा है इसका न कोई आंकलन कर रहा है और न ही इस पर कोई चर्चा चल रही है, पर्यावरणविदों और भूगर्भ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सड़क परियोजना उत्तराखंड हिमालय की छाती पर उग आया एक नासूर है जो समय के साथ नुक्सान दायक होता चला जायेगा।

इसी प्रकार रेल परियोजना के अंतर्गत जो सुरंगें बन रही हैं उनके कारण अनेक गांवों का जीवन और रोजगार खतरे में पड़ गया है, जल स्रोत सूख गए हैं, कृषि उपज घट रही है, घरों पर दरारें आ रही हैं। लेकिन यह सब चीजें तो एक झांकी मात्र है, जबकि समस्या बहुत गहरे तक समाई हुई है। और इसी समस्याग्रस्त सोच के कारण जो नीतियां बन रही हैं वे अन्तःत हिमालय के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही हैं।

यह सच है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में कुछ हिस्सा पर्यटन पर आश्रित है, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पर्यटन के अलावा बाकी कुछ हो ही न। बहुत कुछ है लेकिन संभवतः नीति निर्माताओं की सोच पर्यटन से आगे बढ़ ही नहीं पा रही है।

आज जब हिमालय विशेषकर उत्तराखंड के लिए नीति निर्माण की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले उत्तराखंड राज्य के निर्माण के पीछे के असली कारण को समझना होगा। उत्तराखंड राज्य निर्माण के पीछे सिर्फ राजनैतिक कारण ही नहीं थे, बल्कि सबसे प्रमुख कारण था विकास का स्थानीय मॉडल विकसित करने की आवश्यकता।

देश के मैदानी क्षेत्रों से अलग, पर्वतीय राज्य की भौगोलिक और पारिस्थिकी को आधार मानकर एक स्थानीय विकास मॉडल को विकसित करने की आवश्यकता ही उत्तराखंड राज्य आंदोलन की प्रमुख वजह थी। लेकिन अफ़सोस की बात है कि नए राज्य के उत्तर प्रदेश के विकास मॉडल की ही छायाप्रति यहाँ पर लागू कर दी। नतीजतन राज्य के दूर दराज के पर्वतीय क्षेत्रों का विकास तो नहीं हो पाया बल्कि उत्तराखण्ड मंत्री - मुख्यमंत्री बनाने की फैक्टरी बन चुका है।

आज जोशीमठ एक चेतावनी भी दे रहा है कि इस भोगवादी - पूंजीवादी विकास मॉडल के इतर, स्थानीय आवश्यकताओं पर आधारित विकास मॉडल विकसित किया जाये। 

(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)

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