झारखंड में पेसा का प्रस्ताव मजबूती से लागू करना नहीं आसान

साल 1996 पेसा एक्ट बना। झारखंड को बने हुए 22 साल हो गए, लेकिन राज्य में आज तक इसकी नियमावली नहीं बन पाई थी
फोटो : कुंदन पांडे/सीएसई
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पंचायती राज विभाग ने झारखंड पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) पेसा का प्रारूप तैयार कर लिया है। अब सरकार इस पर आम जनों से विचार लेने जा रही है। तैयार प्रारूप के मुताबिक, ग्राम सभा का गठन होगा। ग्राम सभा अपने अनुसार शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, सार्वजनिक संपदा, ग्राम रक्षा, आधारभूत संरचना, समाजिक न्याय समिति बना सकेगी।

ग्रामसभा को उसके अंतर्गत आने वाले जमीन, तालाब, खनिज संपदा, बालू, वन, वनोपज इत्यादी के इस्तेमाल व रॉयल्टी पर अधिकार होगा। यानी ग्रामसभा उस बालू को बेच और इस्तेमाल कर सकेगी। मिलने वाले राजस्व को गांव के विकास में लगा सकेगी। किसी भी खनिज के खनन के लिए ग्रामसभा की अनुमति अनिवार्य होगी। वह खनन पट्टा भी ले सकेगी। इसके साथ ही तालाब में मछली, मखाना इत्यादी का उत्पादन कर सकेगी। इस पर सभी ग्रामीणों का बराबर अधिकार होगा। ग्राम सभा यह तय करेगी कि सभी ग्रामीण समान रूप से इसका लाभ ले सकें।  

इसके अलावा केंद्र व राज्य सरकार का वो नियम जो पांचवी अनुसूची वाले इलाकों की रूढ़िवादी प्रथाओं, परंपराओं को किसी तरह का नुकसान पहुंचा सकती है, उसे ग्रामसभा सर्वसम्मति से खारिज कर सकती है। किसी भी आदिवासी जमीन का अधिग्रहण तभी हो सकेगा, जब ग्रामसभा इसकी अनुमति देगी।

झारखंड सरकार के मुताबिक, 26.3 प्रतिशत आबादी यानी 86.45 लाख आदिवासी झारखंड में हैं। ऐसे गांव की संख्या 12,164 हैं जहां 50 प्रतिशत से अधिक आदिवासी निवास करते हैं। यही नहीं, राज्य के 24 में 14 जिले पांचवी अनुसूची वाले हैं, जहां 68.66 लाख आदिवासी हैं।

लेकिन बड़ा सवाल ये है कि पेसा को क्या झारखंड सरकार लागू कर पाएगी। इसके प्रारूप को तैयार करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले रतन तिर्की कहते हैं कि साल 1996 ये एक्ट बना। झारखंड को बने हुए 22 साल हो गए, लेकिन राज्य में आज तक इसकी नियमावली नहीं बन पाई थी। अब जाकर यह बनी है। आपत्ति आने के बाद इसे दोबारा सुधार किया जाएगा। उनका कहना है कि हेमंत सरकार इसे हर हाल में लागू करेगी क्योंकि यह उनके प्रमुख चुनावी वादों में से एक था।

वह आगे कहते हैं कि केंद्र सरकार की तरफ से पांचवी अनुसुची वाले इलाकों के विकास के लिए ट्राइबल सब प्लान के तहत हर साल 26,000 हजार करोड़ रुपए झारखंड को मिलता है। ये पैसा गांव के अंतिम आदिवासी तक पहुंचने के बजाय इस पैसे से यहां के नौकरशाह आईएएस क्लब बना लेते हैं। लेकिन अगर पेसा का प्रावधान लागू हो गया तो, ऐसा नहीं हो सकेगा।

पांचवी अनुसूची वाले इलाकों में पंचायत चुनाव या पंचायती राज का आदिवासियों का एक वर्ग लगातार विरोध करता आ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव से चुनी हुई ग्राम पंचायत और परंपरागत ग्रामसभा, जिसको मजबूत करने के लिए यह एक्ट लाया जा रहा है, दोनों एक साथ कैसे काम कर पाएगी?

इस पर प्रारूप समिति के एक और सदस्य सुधीर पाल कहते हैं कि अगर कुछ आदिवासी समूह जो ग्रामसभा के अलावा विधानसभा और लोकसभा को बिल्कुल ही महत्व नहीं देते, उनके विचारों में लचीलापन नहीं आया तो दिक्कत हो सकती है। पंचायत चुनाव से चुने हुए प्रतिनिधियों और ग्रामसभा के बीच सामंजस्य बिठाना होगा। ग्राम सभा को यह आसानी से मान लेना चाहिए कि उनकी परंपरागत व्यवस्था को किसी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा।

वह इसे समझाते हुए कहते हैं, ग्रामसभा की भूमिका विधायिका की होगी और ग्राम पंचायत की भूमिका कार्यपालिका की होगी। यानी किसी सरकारी योजना को कहां लागू करना है, लाभुक कौन होगा इसका निर्णय ग्रामसभा लेगी और उसे लागू करने का जिम्मा ग्राम पंचायत का होगा।

पहली नजर में ऐसा होना भले ही आसान लग रहा हो, लेकिन ग्राम प्रधान और पंचायत के मुखिया व अन्य प्रतिनिधियों के बीच इस मसले पर पेंच फंसना फिलहाल तय दिख रहा है।

वन संरक्षण संसोधन विधेयक और पेसा में रार संभव

बता दें कि पेसा एक्ट पांचवी अनुसूची वाले दस राज्यों में से हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में लागू है। ओडिशा और झारखंड में इसे अब तक लागू नहीं किया गया है। दूसरी तरफ बीते 26 जुलाई को संसद के मॉनसून सत्र में ‘वन संरक्षण संसोधन विधेयक’ को लोकसभा में पारित कर दिया गया, जिसके मुताबिक गैर अधिसूचित वन क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण या विकास कार्य के लिए अब ग्राम सभा की अनुमति जरूरी नहीं होगी। ऐसे में पेसा के तहत ग्राम सभा को मिला अधिकार कितना कारगर रह पाएगा? वनाधिकार मामलों के विशेषज्ञ सुनील मिंज कहते हैं, अगर सरकार वन संरक्षण संसोधन विधेयक पास कर लागू कर देती है तो उसके अपने ही दोनों कानून में तालमेल नहीं रहेगा। ऐसे में पेसा शिथिल हो जाएगा। वह यह भी कहते हैं कि पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्र में केंद्र हो या राज्य सरकार, किसी की एक इंच भी जमीन नहीं है।  

ये भी हैं प्रावधान

नियमावली के चैप्टर 4 में लिखा है कि ग्राम सभा भारतीय दंड संहिता 1860 के अंतर्गत आने वाले मुद्दों पर स्थानीय स्तर पर सुनवाई कर सकती है। इसके तहत दंगा-फसाद, चोरी, अश्लील कार्य या गाना, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए शब्दों का इस्तेमाल इत्यादी पर सुनवाई कर सकती है। यानी जिन मामलों में आईपीसी के तहत कारावास या 6 महीने से अधिक की सजा न हो, उसमें सुनवाई कर सकती है। ग्रामसभा अधिकतम 5,000 रुपए का दंड लगा सकती है।  

वहीं चैप्टर आठ में लिखा है कि लघु खनिज (बालू, ईंट, पत्थर, मिट्टी) के खनन पट्टे की स्वीकृति के लिए पहले अनुसुचित जाति के सहयोग समिति को प्राथमिकता दी जाएगी। यानी इसके लिए अगर किसी गांव में आदिवासियों का कोई कोऑपरेटिव चल रहा है तो पहले उसे प्राथमिकता दी जाएगी। अगर वह नहीं है तो किसी शेड्यूल ट्राइब को, अगर वह भी नहीं है तो किसी अनुसूचित जाति को और अगर वह भी नहीं है तब किसी कंपनी को दी जाएगी।

बहरहाल आपत्तियों के आने में अभी एक महीने का समय है। देखना होगा कि आपत्तियों को सरकार कैसे लेती और और उसका समाधान कैसे करती है। अगर हेमंत सोरेन सरकार इसे लागू कर देती है तो आगामी चुनावों में उसे आदिवासी वोटों का खासा लाभ मिलना तय है।  

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