विश्वासघात का दस्तावेजीकरण
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

विश्वासघात का दस्तावेजीकरण

“ग्रेट निकोबार:कहानी विश्वासघात की” पुस्तक में देश की निमायक संस्थाओं द्वारा पिछले 5 सालों में की जा रही लीपापोती का दस्तावेजीकरण किया गया है
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“ग्रेट निकोबार:कहानी विश्वासघात की” आज के भारत की एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करती है जहां ऐसी आशंका है कि “राष्ट्रहित” के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया जाएगा और तमाम नियामक संस्थाएं जो पिछले कई दशकों के तमाम लोगों के परिश्रम और लगन से खड़ी हुई हैं वे “उच्चतम आदेश” के समक्ष नतमस्तक और रेंगती हुई नजर आ रही हैं।

किताब “ग्रेट निकोबार:कहानी विश्वासघात की” नियामक संस्थाओं द्वारा पिछले 5 वर्षों से की जा रही इन्हीं लीपापोतियों का मार्मिक दस्तावेजीकरण है जो यह बताता है कि हम आज के आर्थिक लाभ और सुरक्षा के लिए आने वाले कल की तमाम पीढ़ियों के भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ कर रहे हैं।

इस पुस्तक के पृष्ठ 31 पर “जोखिम की अनदेखी” शीर्षक से जानकी अंधेरिया लिखती हैं, “यूनाइटेड स्टेट्स जियॉलॉजीकल सर्वे के आंकड़ों के अनुसार 2010 से 2020 के बीच द्वीप के केंद्र से 150 किलोमीटर के दायरे में 4.0 से 6.6 की तीव्रता वाले 442 भूकंप आए। यह प्रतिवर्ष औसतन 44 से अधिक भूकंप हैं।”

इसी इलाके मे 2020 से एक बंदरगाह, हवाई अड्डा और साढ़े तीन लाख लोगों की बसाहट की योजना को अनुमति दिलाने का काम हो रहा है जिसके लिए क्षतिपूरक वृक्षारोपण दिल्ली के पास हरियाणा मे किए जाने का प्रस्ताव है और उसे अनुमति दे दी गई है। इसके लिए स्थानीय आदिवासियों के विरोध की वैसी ही अवहेलना की जा रही है जैसा आजकल भारत के किसी भी विकास योजना में अक्सर देखने को मिलता है।

यह पुस्तक विभिन्न जगह प्रकाशित 13 लेखों का संग्रह है जो इस कहानी के ऐतिहासिक, पर्यावरणीय, कानूनी और आदिवासी से जुड़े मुद्दों पर अलग-अलग खंड में विस्तार से प्रकाश डालता है। अनुवाद क्लिष्ट है और किताब बहुत महंगी है अतः यह किताब हिन्दी भाषी आम जनता के लिए बहुत सहज नहीं होगी जो दुखद है।

पर यह भारत के एक अत्यंत संवेदनशील क्षेत्र के आधुनिक इतिहास का यह अत्यंत महत्वपूर्ण व संवेदनशील दस्तावेजीकरण हर लाइब्रेरी में होनी चाहिए। अंग्रेजों ने जब अंडमान पोर्ट को विकसित किया था तब भारत गुलाम था पर अब जब स्वतंत्र भारत में निकोबार पोर्ट विकसित हो रहा है उसके लिए भारत के संविधान की किस तरह से धज्जियां उड़ाई जा रही हैं, इसे समझने के लिए यह पुस्तक अतुलनीय है।

भारत में पर्यावरणीय और स्थानीय विरोध के आधार पर किसी बड़ी परियोजना को रोकने के ओडिसा के नियमगिरी जैसे इक्का दुक्का उदाहरण ही मिलते हैं। नियमगिरी के डोंगरिया कोंध जनजाति की तरह ग्रेट निकोबार के शोम्पेन भी अति पिछड़ी जनजाति (पीवीटीजी) समूह के रूप में मान्य हैं यद्यपि नियमगिरी के विपरीत ग्रेट निकोबार के आदिवासियों के विरोध को यहां मान्य नहीं किया जा रहा है।

ग्रेट निकोबार में जो हो रहा है उसकी प्रतिध्वनि भारत के और हिस्सों में भी सुनाई देगी ऐसी आशंका है। उदाहरण के लिए मध्य भारत का अबूझमाड़ क्षेत्र जो पिछले लगभग 50 वर्षों से माओवादियों के कब्जे में रहा है वह अब उनके कब्जे से जल्द मुक्त होने जा रहा है ऐसा लगता है। अबूझमाड़िया आदिवासी भी डोंगरिया कोंध और शोम्पेन की तरह अति पिछड़े जनजाति (पीवीटीजी) समूह के रूप में मान्य हैं।

जैसा कि आप जानते हैं कि नियमगिरी मामले में जहां वेदांता कंपनी की ओर से ओडिशा के नियमगिरी पहाड़ पर बॉक्साइट खनन के प्रस्ताव पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला 2013 में आया था। इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि खनन की अनुमति पर अंतिम फैसला स्थानीय डोंगरिया कोंध और अन्य आदिवासी समुदायों की ग्राम सभाएं करेंगी। बाद में 12 ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से खनन का विरोध किया और परियोजना रद्द हो गई। अबूझमाड़ मे भारतीय सेना के लिए मैन्यूवरिंग रेंज बनाने का प्रस्ताव है जिसका अबूझमाड़िया आदिवासी विरोध कर रहे हैं।

ग्रेट निकोबार: कहानी विश्वासघात की , लेखक: पंकज सेखसरिया, अनुवाद: संघप्रिया मौर्य, प्रकाशक: औथर्स अपफ्रंट

अबूझमाड़िया आदिवासी जंगल के अधिकार के तहत हैबिटेट अधिकार के लिए आवेदन करने का सोच रहे हैं। वनाधिकार कानून मे हैबिटेट या पर्यावास अधिकार सिर्फ पीवीटीजी आदिवासी समूहों को ही दिया गया है। डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने हैबिटेट अधिकार के बगैर सामान्य वनाधिकार कानून से ही अपने जंगल और पहाड़ को बचा लिया था।

अबूझमाड़िया आदिवासी समूहों जैसे लोगों के लिए यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी साबित होगी, यह समझ बनाने के लिए कि क्या आज के नए भारत में शोम्पेन और अबूझमाड़िया आदिवासी समूहों की सोच के लिए कोई स्थान है? हिंदी में इस पुस्तक ने इस विषय की पहुंच को व्यापक बनाया है, जिससे ऐसे आम पाठकों के बीच जागरूकता और बहस की संभावनाएं बढ़ गई है।

यह पुस्तक पंकज सेखसरिया द्वारा संकलित एक संस्करण है। इसमें विभिन्न विशेषज्ञों द्वारा लिखी गई 13 लेखों की एक श्रृंखला शामिल है, जो ग्रेट निकोबार द्वीप पर प्रस्तावित मेगा विकास परियोजना की पर्यावरणीय, सामाजिक, कानूनी और भौगोलिकता की आलोचना प्रस्तुत करती है।

“होलिस्टिक डेवलपमेंट ऑफ ग्रेट निकोबार आइलैंड” नामक इस परियोजना में शामिल हैं: एक ट्रांशिपमेंट पोर्ट, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा, एक पॉवर प्लांट, एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप, जो लगभग 130-160 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में फैली होगी। यह परियोजना 72 हजार करोड़ रुपए की लागत की बताई जा रही है और वर्तमान आबादी लगभग 8 हजार से बढ़ाकर लगभग 3.5 लाख करने की योजना है, यह एक चौंकाने वाला आंकड़ा है जहां 4 हजार प्रतिशत तक का इजाफा होगा।

यह भी उल्लेखनीय है कि प्रस्तावित क्षेत्र एक यूनेस्को बायोस्फीयर रिजर्व है जहां जंगली कछुए विशेषकर लेदरबैक टर्टल, निकोबार मेगापॉड और अन्य दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं। इस परियोजना की चिंता है कि वन क्षेत्रों का विनाश होगा। इसके अलावा ग्रेट निकोबार क्षेत्र भूकंपीय रूप से सक्रिय क्षेत्र है। 2004 में आए सुनामी और भूकंप को यहां की संवेदनशीलता का उदाहरण माना गया है।

ऐसे उच्च जोखिम वाले क्षेत्र में विशाल बुनियादी ढांचा स्थापित करना विशेषज्ञों द्वारा “एक महान मूर्खता” जैसा बताया गया है। साथ ही आदिवासी समुदायों पर प्रभाव शोम्पेन और निकोबारी जनजातियां, जो यहां सहस्त्राब्दियों से निवास करती आई हैं, इस परियोजना से उनके विस्थापन और सांस्कृतिक विनाश जैसी गंभीर चुनौतियां खड़ी हैं।

ट्राइबल काउंसिल ने 2022 में वन भूमि पर आपत्ति जताते हुए नो-ऑब्जेक्शन सर्टिफिकेट वापस ले लिया था। इस पुस्तक में यह सब महत्वपूर्ण पत्र संलग्न किए गए हैं जो अन्य इलाकों के ऐसी ही लड़ाई लड़ने वाले समूहों के लिए बहुत उपयोगी हो सकते हैं।

दुनिया की विकराल होती पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के लिए ब्राजील में होने वाले आगामी कॉप-30 की तैयारी में लगा है। भारत भी विकासशील देशों में एक भरोसेमंद और जिम्मेदार देश की तरह स्वयं को प्रस्तुत करना चाहता है। विश्व के विकसित देश अपनी आर्थिक और सामरिक सुरक्षा के लिए वे सब कर चुके हैं जो भारत अपने संवैधानिक दायित्वों की अवहेलना करते हुए करना चाह रहा है।

संभवत: पर्यावरणीय कानून उस समय उतने सशक्त नहीं थे जब विकसित देशों ने जंगल काटे और अपने बंदरगाह बनाए। यह पुस्तक भारत में हो रही गड़बड़ियों का एक भयावह चित्र प्रस्तुत करता है पर संभावित समाधान की कोई राह नहीं दिखाता।

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