निर्भया की मांग - भयमुक्त शहर

शहरों को महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों के लिए सुरक्षित बनाने के लिए सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि सार्वजनिक जगहों को सुरक्षित तरीके से डिजाइन किया जाए
Photo: twitter @@zafarabbaszaidi
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मैं सबसे पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं केंद्रीय बजट में महिलाओं की सुरक्षा के लिए प्रस्तावित एक हजार करोड़ के निर्भया फंड पर कोई टिप्पणी नहीं कर रही। तमाम लोगों को सरकार का यह त्वरित कदम महिला-सुरक्षा की दिशा में सराहनीय प्रयास लगता है, वहीं बहुत सारे लोग गुस्से में और आंदोलित हैं क्योंकि उन्हें यह कदम प्रतीकवाद और लोकप्रियतावाद से ज्यादा कुछ नहीं लग रहा। उनके मुताबिक, इस फैसले में बहुमत की राय नहीं ली गई। फिर भी मैं बजट भाषण में इससे संबंधित पैराग्राफ को दोहराना चाहूंगी।

मेरा ध्यान, भाषण के विश्लेषण में इस बिंदु पर ठहर गया, जिसमें कहा गया कि - ‘चूंकि महिलाएं शिक्षा के लिए, काम के लिए या दूसरी अन्य वजहों से सार्वजनिक जगहों पर ज्यादा पहुंच रही हैं, इसलिए उनके खिलाफ हिंसा की घटनाएं भी ज्यादा दर्ज हो रही हैं। यहां ‘सार्वजनिक जगह’ प्रमुख शब्द है।
निश्चित तौर पर चिदंबरम (तत्कालीन वित्त मंत्री) ने स्थिति को व्यक्त करने के लिए सटीक शब्द का इस्तेमाल किया। हालांकि अगर हम ‘निर्भया फंड’ के दायरे और संरचना को परिभाषित करने के लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय और अन्य मंत्रालयों के संदर्भ में देखें तो ‘सार्वजनिक जगहों’ के लिए सुरक्षित डिजाइन बनाना, सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल होगा।

अगर हम वैश्विक स्तर पर शहरों की योजना और उनकी डिजाइन पर चर्चा को देखें तो शहरों को सुरक्षित रखने के लिए नया मंत्र है - ‘सार्वजनिक जगह के रूप में ऐसी जगहों का निर्माण करना, जिस पर लोगों का हक हो।’ क्या भारत महिलाओं की गरिमा और उनकी सुरक्षा के लिए सभी को जिम्मेदार ठहराने वाले  इस मंत्र को अपने एजेंडे में शामिल करेगा, जैसा केंद्रीय बजट में कहा गया है?
16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में गैंगरेप के बाद जिस तरह से दिल्ली के लोग गुस्से में आए और सरकार ने उच्च स्तरीय बैठकें कर महिलाओं की सुरक्षा के लिए बसों में सुरक्षा गैजेट और पुलिस की निगरानी व्यवस्था में सुधार पर सारा जोर दिया है, उसे लोग पर्याप्त नहीं मान रहे।

बहुत कम लोग यह समझ सके हैं कि शहरों में सार्वजनिक जगह की डिजाइन बनाने के लिए उस सिद्वांत का क्या मूल्य है, जो एक शहर बसाने में उसकी गलियों और इमारतों पर नजर रखता है। सदियों से हम इसी तरह से अपने शहरों को बसाते आ रहे थे, लेकिन जब इतिहास का टकराव कारों से हुआ, तो हम इस रास्ते से भटक गए।
अब हम अपने शहरों को उस तरह से बसा नहीं रहे, जिसमें लोगों का एक-दूसरे से संवाद हो, जहां लोग एक-दूसरे से मिल सकें, जो सबके लिए सुरक्षित हों और जिसमें सब खुश रहें।
बड़ी-बड़ी कारों ने शहरों के डिजाइन को इस तरह से बदलने को मजबूर किया, जिसमें लोगों के बीच दूरियां बने, जिसमें असुरक्षा हो, अलगाव हो और मानव-रहित ऐसी जगह रहें, जहां अपराध की आशंका ज्यादा हो।

इसीलिए दिल्ली विकास प्राधिकरण के यूनिफाइड ट्रैफिक एंड ट्रांसपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर (प्लानिंग-इंजीनियरिंग) सेंटर ने जब दिशा-निर्देशों जारी कर कहा कि महिलाओं के लिए सुरक्षा, स्वतंत्रता और सम्मान को शहरी नियोजन और डिजाइन साथ जोड़ा जाना चाहिए तो सुखद आश्चर्य हुआ।
नए दिशा-निर्देशों ने शहर के योजनाकारों को फ्लाईओवर, सिग्नल-फ्री कॉरिडोर, सबवे, खाली किनारों, गेट वाले समुदायों और उनकी दीवारों जैसे सुनसान अनदेखे स्थानों से छुटकारा पाने के लिए कहा है। इसमें समावेशी सड़कों, शहरी और लैंडस्केप डिजाइन की बात की गई है। इसका संदेश है - ‘शहरों को कारों के लिए नहीं, लोगों के लिए बनाओ।’

इस विचार को तब और बल मिला जब यूनिफाइड ट्रैफिक एंड ट्रांसपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर (प्लानिंग - इंजीनियरिंग) सेंटर ने यातायात-उन्मुख दिशा-निर्देश जारी किए। इसका मकसद था कि सभी को चलने, साइकिल चलाने, बसों और मेट्रो में चढ़ने-उतरने आदि मेें असुविधा न हो और सार्वजनिक जगहें कम जोखिम भरी हों।

केंद्रीय शहरी विकास ने भी यातायात के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जिस बर्ताव के मानक तैयार किए हैं, उसमें शहरों में मिली-जुली गतिविधियों को बढ़ावा देने ,छोटी और खुली इमारतें बनाने, खुली गलियां बनाने को कहा गयाहै, जिनसे होकर आराम से आया-जाया जा सके। यानी इस स्तर पर दिल्ली और केंद्र की सोच एक जैसी है।

दुर्भाग्य से अभी तक रियल एस्टेट इंडस्ट्री, शहरी और यातायात नियोजन व निर्माण की संस्थाओं, प्रोजेक्ट स्वीकृत करने वाली एजेंसियों और शहरों के जमीनी स्तर के निवासियों तक यह विचार नहीं पहुंचा है। दिल्ली और अन्य शहरों व नई टाउनशिप में कई नई विकास और पुनर्विकास परियोजनाएं इस बड़े विचार से अछूती नजर आ रही हैं।

अगर केंद्रीय बजट वास्तव में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए फंड को लेकर प्रतिबद्ध है तो उसे इस बड़े विचार को अपनाना होगा। जब शासन की चुनौती बदल गई हो तो बजट केवल किसी पुराने स्कूल की लेखा-प्रणाली बनकर नहीं रह सकता है।
यही नहीं, अगर सार्वजनिक परिवहन के बुनियादी ढांचे को बदलने की नीति के साथ इस विचार को जोड़ना है तो ‘जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण योजना’ कार्यक्रम के तहत सरकार, शहरों के लिए बसें खरीदने के लिए बजट की मंजूरी क्यों नहीं देती?

‘जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण योजना’ में पहले ही गलती हो चुकी है। इसने शहरों में पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ढांचा तैयार किए बिना पुरानी बसों को शहर से बाहर कर दिया। इससे शहर की सड़कें, फ्लाईओवरों और कारों के लिए मल्टीलेवल कार पार्किंग्स के साथ झूठी शान दिखाने लगीं।
जबकि शहरों को अच्छी बसों की जरूरत है ओर वह भरोसेमंद बस-सेवा चाहते हैं लेकिन इस दोषपूर्ण योजना से यह तय किया गया कि बसों को शहरों में न तो जगह मिले, न वे गति पा सकें, वे असुरक्षित हों, उनकी देखरेख खराब हो, उन तक पहुंचना मुश्किल बने, वे कारों और मेट्रो से ज्यादा टैक्स चुकाएं और इनकी तुलना में ईधन पर ज्यादा खर्च करें।
इससे शहरों को लोगों के लिए बसाने के उत्कृष्ट विचार को नष्ट किया गया। नई बसें आने के बाद भी लोगों के लिए कुछ नहीं बदला, उन्हें वैसे ही आना-जाना पड़ रहा है, जैसे वे पहले करते थे। इस योजना में इस तरह से पैसा खराब किया गया।

इसे बदलना चाहिए। हमें सभी को स्वस्थ, खुश और सुरक्षित रखने के लिए शहरों को नए तरीके से डिजाइन करने और सार्वजनिक परिवहन तंत्र को बदलने की जरूरत है।
(अनुमिता रॉयचौधरी ने यह लेख निर्भया फंड की घोषणा के बाद लिखा था। यह लेख आज निर्भया कांड की बरसी पर हिंदी में प्रकाशित किया जा रहा है। निर्भया कांड के नौ साल बीतने के बाद भी शहरों की योजना को लेकर हालात कमोबेश वही पुराने ही हैं)

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