बढ़ता तापमान पूरी दुनिया के लिए नई समस्याएं पैदा कर रहा है, जिससे भारत के पहाड़ी राज्य भी सुरक्षित नहीं है। जलवायु परिवर्तन का यह दुष्प्रभाव उत्तराखंड में फलों की पैदावार पर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है, जहां पिछले कुछ वर्षों में सेब, नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा, नींबू जैसे फलों के उत्पादन में गिरावट आई है।
देखा जाए तो उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था में बागवानी की बड़ी भूमिका रही है। इसके साथ ही देश के फल उत्पादन में उत्तराखंड के बागवान सक्रिय तौर पर योगदान करते रहे हैं, लेकिन जलवायु में आते बदलावों का असर इनपर भी साफ तौर पर देखा जा सकता है।
कभी नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा और खुबानी के बड़े उत्पादकों में शामिल रहा उत्तराखंड, देश में उच्च गुणवत्ता वाले सेबों के उत्पादन के लिए भी जाना जाता रहा है, लेकिन बीते सात वर्षों से इस पहाड़ी प्रदेश में इन फलों की पैदावार चिंताजनक रूप से घट गई है। 2020 से देखें तो उत्तराखंड में इन प्रमुख फलों की बागवानी के क्षेत्र और उत्पादन पर अच्छा-खासा असर पड़ा है।
आंकड़ों की मानें तो उत्पादन में यह कमी उष्णकटिबंधीय फलों जैसे आम आदि की तुलना में शीतोष्ण फलों के उत्पादन में खासतौर पर देखी जा सकती है।
अंतराष्ट्रीय संगठन क्लाइमेट सेंट्रल ने इस बारे में एक नया अध्ययन किया है, जिसमें उत्तराखंड में मौसम के बदलते पैटर्न के बागवानी पर पड़ते प्रभावों को उजागर किया है। इस अध्ययन के मुताबिक गर्म होता मौसम फलों की कई प्रजातियों के उत्पादन में आती गिरावट की वजह बन रहा है। इसकी वजह से बागवान उष्णकटिबंधीय फलों की ओर रुख कर रहे हैं, क्योंकि ये फल बदलती जलवायु परिस्थितियों का सामना करने में कहीं ज्यादा सक्षम हैं।
क्लाइमेट सेंट्रल द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड में बागवानी के क्षेत्रफल में भारी गिरावट के साथ-साथ मुख्य फलों के उत्पादन में भी कमी देखी जा रही है। गौरतलब है कि हिमालयी क्षेत्र में ऊंचाई वाले स्थानों पर आड़ू, खुबानी, आलूबुखारा और अखरोट जैसे फलों के उत्पादन में सबसे अधिक कमी देखी गई है। इसी तरह सेब और नींबू के उत्पादन में भी पहले की तुलना में कमी देखी गई है।
आड़ू, खुबानी, आलूबुखारा और अखरोट जैसे फलों में देखी गई सबसे ज्यादा गिरावट
आंकड़ों के मुताबिक साल 2016-17 में उत्तराखंड में 25,201.58 हेक्टेयर क्षेत्र में सेब का उत्पादन किया गया, जोकि वर्ष 2022-23 में 55 फीसदी की गिरावट के साथ घटकर महज 11,327.33 हेक्टेयर रह गया। इसी तरह इस अवधि के दौरान सेब के उत्पादन में 30 फीसदी की गिरावट देखी गई।
नींबू की विभिन्न प्रजातियों में भी 58 फीसदी की भारी कमी आई है। खास बात यह है कि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले फल जलवायु में आते बदलावों से कम प्रभावित रहे हैं।
यही वजह है कि बागवानी क्षेत्र में क्रमशः 49 और 42 फीसदी की गिरावट के बावजूद आम और लीची का उत्पादन कमोबेश स्थाई रहा। हालांकि इन दोनों फलों के उत्पादन में क्रमशः 20 एवं 24 फीसदी की कमी देखी गई। दूसरी तरफ, अमरूद उत्पादक क्षेत्र में 2016-17 की तुलना में 2022-23 में 36.6 फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हुई है। बता दें कि जहां 2016-17 में यह क्षेत्र 3,432.67 हेक्टेयर था, जो 2022-23 में बढ़कर 4,609.32 हेक्टेयर पर पहुंच गया।
अमरुद की तरह ही इस दौरान करौंदा के उत्पादन में भी करीब 64 फीसदी की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई। अमरूद के लिए तो वृद्धि का यह आंकड़ा करीब 95 फीसदी रहा, जोकि अमरूद और करौंदा के उत्पादन में सकारात्मक बदलाव को दिखाता है।
आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में बागवानी के कुल क्षेत्र में 54 फीसदी की गिरावट आई है। वहीं 2016-17 से 2022-23 के बीच सभी प्रकार के फल उत्पादन 44 फीसदी की कमी दर्ज की गई। गौरतलब है कि जहां 2016-17 में फल उत्पादन का कुल क्षेत्र करीब 177,324 हेक्टेयर था, जो 2022-23 में घटकर महज 81692.58 हेक्टेयर रह गया। इसी तरह जहां उत्तराखंड में 2016-17 के दौरान फलों का कुल उत्पादन 662847.11 मीट्रिक टन था, जो 2022-23 में घटकर 369447.3 मीट्रिक टन पर पहुंच गया।
क्लाइमेट सेंट्रल के मुताबिक उत्तराखंड में 2016-17 से 2022-23 के बीच फलों के उत्पादन में आई भारी कमी विभिन्न फलों के संदर्भ में इन्हें उगाने के तौर-तरीकों में आ रहे बड़े बदलाव की ओर भी इशारा करती है। पिछले सात वर्षों में चुनिंदा फलों के उत्पादन में आई उल्लेखनीय कमी कृषि रणनीतियों, भूमि आबंटन, बाजार की परिस्थितियों और संभवतः कुछ फलों पर पड़ रहे पर्यावरण के प्रभावों को दर्शाती है। वहीं अमरूद और करौंदा के उत्पादन में आई वृद्धि यह दर्शाती है कि अब इस प्रकार के फलों को उगाने में बागवान विशेष तौर पर दिलचस्पी ले रहे हैं, जो स्थानीय मांग और परिस्थितियों के हिसाब से कहीं ज्यादा अनुकूल हैं।
यदि जिलावार देखें तो टिहरी में बागवानी के क्षेत्रफल में सबसे ज्यादा कमी देखी गई। इसके बाद देहरादून का नंबर है। हालांकि दोनों ही जिलों में इसके सापेक्ष फलों के उत्पादन में अधिक कमी नहीं देखी गई।
दूसरी तरफ, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ और हरिद्वार में बागवानी के क्षेत्रफल और फलों के उत्पादन दोनों ही में उल्लेखनीय गिरावट आई है। उदाहरण के अल्मोड़ा में फल उत्पादन 84 फीसदी घट गया है, जो उत्तराखंड के सभी जिलों में सर्वाधिक है।
वहीं चमोली में 2016-17 से 2022-23 के बीच बागवानी के क्षेत्रफल में महज 13 फीसदी की कमी दर्ज की गई, लेकिन दूसरी तरफ फल उत्पादन में करीब 53 की गिरावट आई है। वहीं दूसरी तरफ उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग में बागवानी के क्षेत्रफल में क्रमशः 43 और 28 फीसदी की कमी होने के बावजूद फलों के उत्पादन में 26.5 और 11.7 फीसदी की वृद्धि देखी गई है।
फल उत्पादन पर पड़ रहा बढ़ते तापमान का प्रभाव
बागवानी में इस प्रकार के बड़े बदलावों के तार कुछ हद तक बढ़ते तापमान से भी जुड़े हैं। तापमान के पैटर्न में आता बदलाव फल के विकास-वृद्धि और कुल उत्पादन को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए बढ़ते तापमान के चलते फल उत्पादन पर गर्मी, पानी की कमी और बारिश के पैटर्न में आते बदलावों का असर पड़ सकता है, जिससे उत्पादन पर भी असर पड़ता है।
इसके साथ ही तापमान में आता बदलाव फलों में कीटों और रोगों को फैलने का मौका देता है। इससे कीटों को नियंत्रित करने की अधिक जरूरत पड़ सकती है।
गर्म और शुष्क होती सर्दियों से उत्पादन पर पड़ रहा असर
1970 से 2022 के बीच देखें तो उत्तराखंड के औसत तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। मतलब की इस दौरान राज्य में सालना 0.02 फीसदी की दर से तापमान में वृद्धि हुई है। वहीं अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में यह वृद्धि कहीं ज्यादा स्पष्ट थी। रिसर्च भी पुष्टि करते हैं कि अपेक्षाकृत गर्म होती सर्दियों से ऊंचाई वाले क्षेत्रों में बर्फ अधिक तेजी से पिघल रही है जिसे बर्फ से ढंके क्षेत्र क्षेत्र घट रहे हैं। बीते दो दशकों के दौरान उत्तराखंड के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में सर्दियों के दौरान तापमान 0.12 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ा है।
दूसरी तरफ बारिश में 11.3 मिलीमीटर प्रति दशक की दर से कमी आई है। इसकी वजह से जो क्षेत्र बर्फ से ढंके रहते थे उनके क्षेत्रफल में औसतन 58.3 वर्ग किलोमीटर की दर से कमी आई है। उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग जिलों में बर्फ से ढका क्षेत्र साल 2000 की तुलना में 2020 में 90-100 वर्ग किमी तक सिकुड़ गया है।
विशेषज्ञों की मानें तो हिमालय के ऊंचे क्षेत्रों में अधिक सर्दी और बर्फ सेब, नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा, अखरोट, खुबानी जैसे फलों को फलने के लिए बेहद जरूरी है। वहीं बारिश और बर्फ की कमी पहाड़ पर होने वाले फलों के लिए जरूरी ठंडक कम कर रहे हैं, इससे फलों के जीवनचक्र पर असर पड़ रहा है।
क्लाइमेट सेंट्रल के अनुसार सर्दियों में शीतोष्ण पेड़ सुसुप्तावस्था में चले जाते हैं ताकि कम तापमान में वृद्धि रोककर अपनी कोशिकाओं को नुकसान होने से बचा सकें। वहीं अत्यधिक सर्दी, जिसे चिलिंग रिक्वायरमेंट भी कहते हैं, इन पेड़ों को सुसुप्तावस्था से बाहर लाकर फल लगने की प्रक्रिया को आरंभ करने में मदद करती है। ऐसे में गर्म सर्दियों, कम बर्फबारी और बारिश के कारण फल लगने की प्रक्रिया में बदलाव आया होगा, जिससे फल उत्पादन प्रभावित होता है।
आईसीएआर-सीएसएलआइआई के कृषि विज्ञान केंद्र में बागवानी विभाग के प्रमुख और वरिष्ठ विज्ञानी डॉक्टर पंकज नौटियाल ने क्लाइमेट सेंट्रल से कहा, “सेब जैसी परंपरागत शीतोष्ण फसलों को दिसंबर से मार्च के बीच 1,200 से 1,600 घंटे के लिए सात डिग्री सेल्सियस से कम की चिलिंग रिक्वायरमेंट होती है। पिछले पांच-दस वर्षों में जितनी बर्फबारी हुई है, देखा जाए तो सेब की फसल को उसकी तुलना में दो से तीन गुना अधिक बर्फबारी की जरूरत है। ऐसे में कम बर्फबारी के चलते सेब की क्वालिटी और उत्पादन में कमी हुई है।“
इस बारे में रानीखेत के किसान मोहन चौबटिया का कहना है कि, बारिश और बर्फबारी के कम होने से बहुत दिक्कत हो रही है। अल्मोड़ा में बीते दो दशकों से ठंडे स्थानों पर होने वाले फलों के उत्पादन में करीब आधे की कमी आई है। जो किसान सिंचाई नहीं कर सकते, वे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।
लम्बे समय से उत्तराखंड भारी बारिश, बाढ़, ओले और भूस्खलन जैसी आपदाओं से भी प्रभावित रहा है। इनकी वजह से कृषि क्षेत्रों और खड़ी फसलों को भारी नुकसान हुआ है। गौरतलब है कि 2023 में खराब मौसम के चलते 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि को नुकसान पहुंचा था। यही वजह है कि कृषि, बागवानी की कठिन स्थितियों के चलते पहाड़ों से पलायन भी बढ़ा है।
वहीं दूसरी तरफ बढ़ते तापमान से उष्णकटिबंधीय फलों को फायदा होता है, यही वजह है किसान इनकी ओर रुख कर रहे हैं। उत्तराखंड के कुछ जिलों में तो किसान सेब की कम तापमान पर होने वाली प्रजातियों को चुन रहे हैं। इसी तरह नाशपाती, आड़ू, आलूबुखारा, खुबानी जैसे फलों की जगह किसान कीवी और अनार जैसे उष्णकटिबंधीय फल लगा रहे हैं। निचले क्षेत्रों में आम्रपाली आम के अधिक घनत्व वाली फसलों पर भी प्रयोग किया गया है, जिससे किसानों को अधिक लाभ हुआ है।
दिल्ली स्थित आईसीएआर-आइईएआरआई के एग्रीकल्चर फिजिक्स विभाग के प्रमुख डॉक्टर सुभाष नटराज घटते फल उत्पादन से उत्तराखंड की धुंधली होती तस्वीर की बात करते हुए कहते हैं, ‘कम अवधि में तापमान में होते बदलाव की यह प्रवत्ति चिंताजनक है। उनके मुताबिक विशेषतौर पर फसल और उनके पैटर्न में आते बदलावों के सन्दर्भ में मौसम संबंधी कारकों में लंबी अवधि की प्रवत्ति का अध्ययन जरूरी है।
जलवायु अनुकूल कृषि से जुड़े तौर-तरीकों की तरफ बढ़ने की बात करते हुए डॉक्टर नटराज आगे कहते हैं कि, ‘जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव कम करने के लिए स्थान के हिसाब से जलवायु अनुकूल प्रजातियों की पहचान और विकास करना होगा। उनके मुताबिक विपरीत मौसमी परिस्थितियों से किसानों को बचाने के लिए क्लाइमेट फाइनेंसिंग भी बेहद जरूरी है। एक और अहम बात यह कि गांव के स्तर पर कृषि मौसम संबंधी सलाह समयबद्ध तरीके से पहुंचनी चाहिए ताकि सभी लोग समय रहते तैयारी कर सकें और निर्णय ले सकें।’