आमतौर पर सर्दियों के दौरान आर्कटिक समुद्री बर्फ अपने चरम विस्तार यानी सबसे ज्यादा फैलाव पर होती है। लेकिन यह फैलाव लगातार कम होता जा रहा है। इस बार 22 मार्च 2025 को अपने पीक टाइम पर आर्कटिक में समुद्री बर्फ के आवरण ने अब तक का सबसे कम फैलाव यानी विस्तार किया है। यह सालाना समुद्री बर्फ के अधिकतम विस्तार का सबसे निचला रिकॉर्ड है।
नासा और नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के मुताबिक आर्कटिक में 1979 से रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से समुद्री बर्फ का यह सालाना विस्तार पिछले 47 वर्षों में सबसे कम दर्ज किया गया है। इससे पहले वर्ष 2017 में सर्दियों के दौरान बर्फ का अधिकतम विस्तार सबसे कम 1.44 करोड़ वर्ग किलोमीटर था। हालांकि इस साल आर्कटिक में बर्फ के विस्तार ने इस न्यूनतम फैलाव के रिकॉर्ड को भी ध्वस्त कर दिया और बर्फ का अधिकतम विस्तार 1.43 करोड़ वर्ग किलोमीटर ही रहा।
आर्कटिक समुद्री बर्फ जो शरद ऋतु और सर्दियों के दौरान बढ़ती है 2025 में अपने वार्षिक अधिकतम विस्तार तक पहुंच चुकी है।
धरती के उत्तरी ध्रुव यानी नॉर्थ पोल और उसके आसपास के क्षेत्र को आर्कटिक कहा जाता है। यह क्षेत्र आर्कटिक महासागर और उससे घिरे देशों के उत्तरी हिस्सों को शामिल करता है।
इस वर्ष का अधिकतम विस्तार 1981-2010 की औसत 1.56 करोड़ वर्ग किलोमीटर से 13 लाख 20 हजार वर्ग किलोमीटर कम है। समुद्री बर्फ के विस्तार में हुई गिरावट के क्षेत्र की तुलना करें तो यह कैलिफोर्निया राज्य से भी बड़े क्षेत्र के बराबर है। सर्दियों के दौरान आर्कटिक बर्फ विस्तार में यह गिरावट पिछले कई दशकों से वैज्ञानिकों द्वारा देखी गई प्रवृत्ति को जारी रखती है।
चिंता बढ़ाने वाली बात यह है कि लगभग उसी समय, 1 मार्च को अंटार्कटिक समुद्री बर्फ अपने वार्षिक न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई, जो 19 लाख 80 हजार वर्ग किलोमीटर था। यह अब तक दर्ज किए गए दूसरे सबसे कम न्यूनतम स्तर के बराबर है।
आर्कटिक में रिकॉर्ड न्यूनतम अधिकतम स्तर और अंटार्कटिक में लगभग रिकॉर्ड न्यूनतम स्तर के कारण फरवरी 2025 में वैश्विक समुद्री बर्फ का कुल विस्तार अब तक के सबसे निचले स्तर पर दर्ज किया गया।
आर्कटिक में सर्दियों के दौरान समुद्री बर्फ के कम फैलाव का न्यूनतम रिकॉर्ड स्तर बेहद चिंताजनक है क्योंकि यह गर्मियों में बर्फ पिघलने की प्रक्रिया को प्रभावित करता है। नई बर्फ के कम बनने और वर्षों पुरानी मजबूत और मोटी बर्फ के जमाव के कम होने से गर्म महीनों में टिकने के लिए काफी कम बर्फ बचती है। यानी गर्मी से मुकाबला करने के लिए बर्फ नहीं होती। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन इसका मुख्य कारण है और आर्कटिक क्षेत्र दुनिया के औसत से लगभग चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस गिरावट के पीछे मुख्य कारण जलवायु का गर्म होना है। क्योंकि आर्कटिक वैश्विक औसत की तुलना में लगभग चार गुना तेजी से गर्म हो रहा है।
नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर के वरिष्ठ शोध वैज्ञानिक वॉल्ट मीयेर का कहना है
"यह नया रिकॉर्ड निम्न स्तर इस बात का एक और संकेतक है कि आर्कटिक समुद्री बर्फ पहले के दशकों की तुलना में मौलिक रूप से बदल गई है। लेकिन इस रिकॉर्ड निम्न स्तर से भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इस वर्ष का डेटा सभी मौसमों में आर्कटिक समुद्री बर्फ की दीर्घकालिक गिरावट में एक और कड़ी जोड़ता है।"
आर्कटिक समुद्री बर्फ में कमी के महत्वपूर्ण वैश्विक प्रभाव हैं।
समुद्री बर्फ एक वैश्विक एयर कंडीशनर की तरह काम करती है, जो सूर्य के प्रकाश और गर्मी को अंतरिक्ष में परावर्तित करती है। परिणामस्वरूप, जब समुद्री बर्फ कम होती है, तो महासागर अतिरिक्त गर्मी अवशोषित करता है, जिससे जलवायु असंतुलित हो सकती है और मौसम के पैटर्न में परिवर्तन तथा समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश की संभावना बढ़ जाती है।
इसके अलावा समुद्री बर्फ में गिरावट के कारण आर्कटिक में लंबे समय तक खुले पानी की अवधि आर्कटिक जेट स्ट्रीम को अधिक अस्थिर बना सकती है। इसका प्रभाव उत्तरी गोलार्ध के विभिन्न हिस्सों में लंबे समय तक चलने वाले तूफानों, भारी बारिश और ठंड की लहरों के रूप में दिखाई दे सकता है। यह कृषि, बुनियादी ढांचे, आर्थिक विकास और मानव जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है।
समुद्री बर्फ आर्कटिक खाद्य श्रृंखला के लिए भी आवश्यक है, क्योंकि यह उन कई प्रजातियों का आधार है जो इस पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर करती हैं।
यह तंत्र बड़ा दिचलस्प है। मसलन बर्फ की दरारों में शैवाल उगते हैं, जो खाद्य श्रृंखला की नींव बनाते हैं। ये शैवाल महासागरों, झीलों और नदियों में छोटे तैरने वाले जलीय जीव जैसे जूप्लांकटन को भोजन प्रदान करते हैं। इन जूप्लांकटन को ठंडे आर्कटिक महासागरों में पाई जाने वाली मछली आर्कटिक कॉड अपना भोजन बनाती है। जबकि ऑर्कटिक कॉड का शिकार सील करता है जबकि ध्रुवीय भालू इन सीलों का शिकार करते हैं।
बहरहाल आर्कटिक में घटती समुद्री बर्फ वहाँ की जैव विविधता के लिए एक गंभीर खतरा है। यह कई तरह के जीवों को प्रभावित कर रही है, जिससे उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आ सकती है और कुछ प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर पहुँच सकती हैं।
इस बर्फ की कमी के वैश्विक स्तर पर भी बड़े प्रभाव हैं। इतनी बड़ी मात्रा में बर्फ का पिघलना यह दर्शाता है कि मानव-जनित जलवायु परिवर्तन को तुरंत रोकने की जरूरत है, ताकि आर्कटिक और पूरी दुनिया पर इसके और अधिक बुरे प्रभावों को कम किया जा सके।
इसके अलावा, आर्कटिक में घटती बर्फ और वहाँ मौजूद तेल और गैस संसाधनों की संभावना के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। कई देश इन संसाधनों तक पहुँचने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे भू-राजनीतिक तनाव (geopolitical tensions) और पर्यावरणीय चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
आर्कटिक से सटे कई देश, जैसे रूस, कनाडा, अमेरिका, नॉर्वे और डेनमार्क (ग्रीनलैंड के माध्यम से), समुद्र तल के इन संसाधनों पर अपने दावे पेश कर रहे हैं और इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।