जलवायु अनुकूलन के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है भारत जैसे देशों में छोटी दूरी के लिए होने वाला प्रवास

देखा जाए तो शुष्क क्षेत्र पहले ही दबाव में है ऊपर से जलवायु में आते बदलावों के चलते उनकी समस्याएं कहीं ज्यादा विकराल रूप ले लेंगी
फोटो: पिक्साबे
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प्रवास को लेकर आम धारणा यह रही है कि ज्यादातर मामलों में लोग इसके लिए एक देश से दूसरे देश या फिर लम्बी यात्रा करते हैं। हालांकि यह सच नहीं है, दुनिया में ज्यादातर प्रवास छोटी दूरी के होते हैं।

इस बारे में एक नए अध्ययन से पता चला है कि छोटे दूरी के लिए किए यह प्रवास जलवायु अनुकूलन के दृष्टिकोण से भी काफी मायने रखते हैं। देखा जाए तो अधिकांश लोग सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरण संबंधी कारकों जैसे जलवायु परिवर्तन आदि से बचने के लिए प्रवास के दौरान कम दूरी तय करते हैं।

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे जर्नल इकोलॉजी एंड सोसाइटी में प्रकाशित हुए हैं। यह अध्ययन भारत और अफ्रीका के शुष्क क्षेत्रों में रहने वाले लोगों पर आधारित है। इसमें शोधकर्तओं ने भारत, घाना, केन्या और नामीबिया के शुष्क क्षेत्रों से लोगों के पलायन के कारणों और परिणामों का अध्ययन किया था। साथ ही इसे समझने के लिए 2016 और 2017 में उन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का साक्षात्कार लिया था।

देखा जाए तो यह शुष्क क्षेत्र दुनिया के करीब 45 फीसदी हिस्से को कवर करते हैं, जहां दुनिया की एक-तिहाई से ज्यादा आबादी बसती है। यदि शुष्क क्षेत्रों की विशेषता को देखें तो यहां पानी की उपलब्धता बहुत कम और उतार चढ़ाव से भरी होती है। साथ ही यहां तापमान भी अधिक होता है।

यह क्षेत्र कई तरह के खतरों का सामना कर रहे हैं, जिनमें मिट्टी में घटती नमी, और क्षरण की बढ़ती दर शामिल हैं। इसके अलावा यह क्षेत्र अनियोजित विकास, जनसंख्या में होती तीव्र वृद्धि, गरीबी, संचार साधनों की कमी के साथ प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर जीविका पर बढ़ता दबाव जैसे खतरे प्रमुख हैं। यह सब ऐसे खतरे हैं जिन्होंने वहां से लोगों को पलायन करने पर मजबूर किया है।

इस बारे में रिसर्च का नेतृत्व करने वाले शोधकर्ता डॉक्टर मार्क टेबॉथ का कहना है कि सबसे ज्यादा ध्यान अंतराष्ट्रीय स्तर पर हो रहे प्रवास पर दिया जा रहा है। मत है कि जलवायु परिवर्तन के चलते लोगों को बड़ी संख्या में सीमाओं के पार पलायन करना पड़ेगा। लेकिन वास्तविकता में अधिकांश लोग अवसरों का लाभ उठाने या जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव और तनाव का सामना करने के लिए अपने देश में ही बहुत कम दूरी तय करते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उत्तरी कर्नाटक के कोलार जिले को भी शामिल किया था। जहां काम के लिए श्रमिकों और लोगों का बैंगलोर में रोजाना आना जाना आम है। इसी तरह गुलबर्गा जिले में जहां ज्यादातर लोगों की जीविका का साधन कृषि है वहां से भी लम्बे समय से बड़े शहरों की ओर पलायन हुआ है।

बढ़ते तापमान के साथ और बढ़ जाएंगी समस्याएं

देखा जाए तो यह क्षेत्र पहले ही दबाव में है ऊपर से जलवायु में आते बदलावों के चलते उनकी समस्याएं कहीं ज्यादा विकराल रूप ले लेंगी। उदाहरण के लिए यदि पूर्वी अफ्रीका की बात करें तो वहां तापमान वैश्विक औसत से कहीं ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है। नतीजन उस क्षेत्र को पहले से कहीं ज्यादा चरम घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है।

इससे उस क्षेत्र में गर्म दिनों की संख्या बढ़ जाएगी। साथ ही गर्मी का कहर और तूफान का खतरा भी कहीं ज्यादा बढ़ जाएगा। इसी तरह के बदलाव पश्चिम, दक्षिणी अफ्रीका और भारत के शुष्क क्षेत्रों में भी सामने आ सकते हैं। यह दर्शाता है कि आने वाले दशकों में स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो जाएगी।

इसी तरह केन्या के इसिओलो में जहां पशुपालन, खेती और पर्यटन आम है। उस क्षेत्र में पानी एक दुर्लभ संसाधन है। वहीं आशंका है कि भविष्य में उस क्षेत्र में जल संकट कहीं ज्यादा विकराल रूप ले लेगा।

डॉक्टर टेबॉथ का कहना है कि इन क्षेत्रों से रोजमर्रा होने वाला यह प्रवास बहुत मायने रखता है। वास्तविकता में यह लोगों के लिए जीवन और जीविका का हिस्सा बन चुका है। उनके अनुसार इस तरह का प्रवास लोगों को उनके जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव और तनावों को हल करने में मदद करता है।

इनमें जलवायु में आते बदलाव और उनसे उपजी परेशानियां भी शामिल हैं। ऐसे में उनका कहना है कि इस प्रवास के समर्थन और मदद से लोगों को अपने जीवन में दबावों से निपटने और उनका सामना करने में मदद मिलेगी।

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