बढ़ता तापमान: साल 2300 तक 45 फीसदी तक के टिपिंग के भारी खतरों की जद में होगी धरती

शोध के मुताबिक यदि दो डिग्री सेल्सियस से अधिक वैश्विक तापमान बढ़ जाए, तो टिपिंग के खतरे और भी तेजी से बढ़ जाएंगे।
यदि दो डिग्री सेल्सियस से अधिक वैश्विक तापमान बढ़ जाए तो टिपिंग के खतरे और भी तेजी से बढ़ जाएंगे।
यदि दो डिग्री सेल्सियस से अधिक वैश्विक तापमान बढ़ जाए तो टिपिंग के खतरे और भी तेजी से बढ़ जाएंगे। फोटो साभार: आईस्टॉक
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हीलाहवाली वाले वर्तमान जलवायु नीतियों के कारण धरती की कई प्रणालियों को टिपिंग का सबसे अधिक खतरा है। एक नए अध्ययन से पता चलता है कि अगर बढ़ते तापमान पर तेजी से लगाम लगाई जाती है तो इन खतरों को कुछ हद तक कम किया जा सकता है।

मानवजनित जलवायु परिवर्तन से पृथ्वी की अहम प्रणालियों जैसे बर्फ की चादरें और महासागरीय परिसंचरण पैटर्न आदि के टिपिंग तत्वों में अस्थिरता आ सकती है। नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित अपने नए अध्ययन में, पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च (पीआईके) के शोधकर्ताओं ने वर्तमान में जलवायु में बदलाव को कम करने और भविष्य के उत्सर्जन परिदृश्यों के कारण चार परस्पर जुड़े मुख्य जलवायु टिपिंग तत्वों के खतरों का विश्लेषण किया है।

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शोधकर्ताओं ने 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने के कारण चार मुख्य जलवायु तत्वों में से कम से कम एक को अस्थिर करने के खतरों का वर्णन किया है। ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर, वेस्ट अंटार्कटिक की बर्फ की चादर, अटलांटिक मेरिडियन ओवरटर्निंग सर्कुलेशन और अमेजन वर्षावन। ये चारों पृथ्वी की जलवायु प्रणाली की स्थिरता को नियमित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ग्लोबल वार्मिंग इन जैव-भौतिक प्रणालियों में अचानक परिवर्तन को तेज कर सकती है, जिसके ऐसे परिणाम हो सकते हैं जिन्हें फिर कभी बदला नहीं जा सकता है।

शोधकर्ताओं के द्वारा किया गया विश्लेषण दिखता है कि धरती की स्थिति के लिए पेरिस समझौते के जलवायु उद्देश्यों का पालन करना कितना जरूरी है, आने वाले सदियों से लेकर सहस्राब्दियों तक हमारी जलवायु किस तरह का रूप ले सकती है।

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शोध के परिणामों के मुताबिक, आने वाली शताब्दियों और उससे आगे भी टिपिंग के खतरों को प्रभावी रूप से सीमित करने के लिए, हमें नेट-जीरो या कुल शून्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को हासिल करना और इसे बनाए रखना होगा। इस सदी में वर्तमान नीतियों के चलते हम 2300 तक 45 फीसदी तक टिपिंग के भारी खतरों के जद में होंगे, भले ही बढ़ते तापमान को फिर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे ही क्यों न लाया जाए।

शोधकर्ताओं ने पाया कुल शून्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन तक पहुंचने के बावजूद, 2100 तक तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे आने में विफल रहने पर, 2300 तक 24 फीसदी तक का खतरा हो सकता है, जिसका अर्थ है कि लगभग एक चौथाई मॉडल में, जो 2100 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे लौटने में विफल रहते हैं, उनमें कम से कम एक खतरे वाले तत्व में गिरावट आएगी।

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तापमान के दो डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने से टिपिंग के खतरे बहुत बढ़ जाएंगे

शोध के मुताबिक, 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के हर दसवें हिस्से के साथ टिपिंग के खतरों में वृद्धि होती है। यदि दो डिग्री सेल्सियस से अधिक वैश्विक तापमान बढ़ जाए तो टिपिंग के खतरे और भी तेजी से बढ़ जाएंगे। यह बहुत चिंताजनक है क्योंकि वर्तमान में लागू जलवायु नीतियों के चलते दुनिया भर में इस सदी के अंत तक तापमान के लगभग 2.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने का अनुमान है।

शोधकर्ता ने शोध में कहा, तापमान की सीमा के पार होने के बाद, केवल तेजी से इसे कम करने से ही टिपिंग के खतरों को कुछ हद तक सीमित किया जा सकता है। इसके लिए कम से कम नेट-जीरो ग्रीनहाउस गैसों को हासिल करना जरूरी है। यह अध्ययन इस बात को सामने लाता है कि पेरिस समझौते के अनुच्छेद चार में निहित यह दुनिया भर में जलवायु में बदलाव को कम करने के उद्देश्य, धरती की स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण है।

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शोधकर्ताओं के अनुसार, पृथ्वी की प्रणालियों का अध्ययन करने के लिए वर्तमान में उपयोग किए जाने वाले उन्नत मॉडल अभी भी आसान नहीं हैं और ये कुछ टिपिंग तत्वों के बीच की क्रियाओं को पूरी तरह से पकड़ने में सक्षम नहीं हैं। इनसे निपटने के लिए, टीम ने एक सरल, शैलीबद्ध पृथ्वी प्रणाली मॉडल का उपयोग किया, जो चार एक दुरसरे से जुड़े गणितीय समीकरणों का उपयोग करके इन टिपिंग तत्वों को सामने लाती है। ऐसा करके, उन्होंने भविष्य में स्थिर करने वाली क्रियाओं पर भी गौर किया, जैसे कि कमजोर होते अटलांटिक मेरिडियनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन का उत्तरी गोलार्ध पर ठंडा होने वाला प्रभाव आदि।

शोध के मुताबिक, टिपिंग पॉइंट के खतरों का यह विश्लेषण इस निष्कर्ष को सही साबित करता है कि हम खतरों को कम आंक रहे हैं। अब हमें यह पहचानने की आवश्यकता है कि पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के कानूनी रूप से बाध्यकारी उद्देश्य का वास्तव में मतलब वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है।

शोधकर्ता ने शोध के हवाले से कहा, उत्सर्जन की कटौती में कमी के कारण, हम तापमान की सीमा को पार कर गए हैं, जिसके कारण हम बढ़ते खतरों का सामना कर रहे हैं, जिसे हमें दुनिया भर के लोगों पर पड़ने वाले भयानक प्रभावों को कम करने के लिए हर कीमत पर सीमित करने की आवश्यकता है।

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