कॉप-28: बेहद जटिल है ‘क्लाइमेट इंजीनियरिंग’, नफा-नुकसान की सटीक गणना के बाद ही उठाने होंगे कदम

जब बात इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक प्रणालियों से छेड़छाड़ से जुड़ी हो तो जोखिम का खतरा लाजिमी है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्लाइमेट इंजीनियरिंग के उपयोग में सतर्कता बेहद जरूरी है
जलवायु में आते बदलावों का सबसे ज्यादा प्रभाव अग्रिम पंक्ति में हाशिए पर रह रहे समुदायों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी नीतियों में उन समुदायों की भागीदारी भी जरूरी है; फोटो: आईस्टॉक
जलवायु में आते बदलावों का सबसे ज्यादा प्रभाव अग्रिम पंक्ति में हाशिए पर रह रहे समुदायों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी नीतियों में उन समुदायों की भागीदारी भी जरूरी है; फोटो: आईस्टॉक
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आधुनिक युग में मानवता आज हर समस्या का समाधान तकनीकों में ढूंढ रही है। बढ़ते उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने की ऐसी ही एक तकनीक क्लाइमेट इंजीनियरिंग है, जिसने पिछले कुछ वर्षों में जलवायु परिवर्तन के संभावित समाधान के रूप में वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है।

लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि जहां नफा है, वहां नुकसान भी छुपा होता है। ऐसे में जब बात इतने बड़े पैमाने पर प्राकृतिक प्रणालियों से छेड़छाड़ से जुड़ी हो तो जोखिम का खतरा बना रहना लाजिमी भी है। यही वजह है कि यूनेस्को ने देशों और जलवायु वैज्ञानिकों को क्लाइमेट इंजीनियरिंग की दिशा में सावधानी से कदम उठाने की सलाह दी है।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग, जिसे जियोइंजीनियरिंग के रूप में भी जाना जाता है, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने या उसकी रोकथाम के लिए पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में जानबूझकर, बड़े पैमाने पर किए हस्तक्षेपों से जुड़ी है।

क्या है 'क्लाइमेट इंजीनियरिंग'

इन हस्तक्षेपों का उद्देश्य या तो वायुमंडल से ग्रीनहाउस गैसों को हटाना या ग्लोबल वार्मिंग को कम करने के लिए पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन में संशोधन करना है। इन क्लाइमेट इंजीनियरिंग तकनीकों को मोटे तौर पर दो मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है, इनमें पहला सौर विकिरण प्रबंधन (एसआरएम) और वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना (सीडीआर) है।

उदाहरण के लिए औद्योगिक पैमाने पर कार्बन को हटाने के लिए बुनियादी ढांचे का निर्माण करना या फिर प्राकृतिक रूप से सीओ2 को अवशोषित करने के लिए पेड़ लगाना। इसी तरह पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन में संशोधन के लिए सूर्य के प्रकाश को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित करना शामिल है। इसके लिए समताप मंडल में एरोसोल को इंजेक्ट करना या फिर छतों को हल्के रंगों में रंगना जैसे उपाय शामिल हैं।

हालांकि किसी साइंस फिक्शन में दर्शाई जाने वाली फिल्मों की तरह आकर्षक लगने वाली यह तकनीकें संभावित जोखिम, नैतिक चिंताओं के साथ-साथ अनिश्चितताओं से भरी हैं, क्योंकि आज भी हमें इन तकनीकों और उनके परिणामों के बारे में बेहद कम जानकारी है। यही वजह है कि यह क्लाइमेट इंजीनियरिंग तकनीकें वैज्ञानिक और सामाजिक बहस का मुद्दा बन गई हैं।

इस बारे में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने अपनी नई रिपोर्ट में चिंता जताई है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग मौजूदा जलवायु नीतियों को कमजोर कर सकती है। साथ ही यह उत्सर्जन में कमी और अनुकूलन से जुड़ी पहलों की ओर से धन और ध्यान दूसरी ओर आकर्षित कर सकती है।

बता दें कि जलवायु सम्मेलन कॉप-28 से ठीक पहले जारी इस रिपोर्ट में यूनेस्को ने जलवायु इंजीनियरिंग के नैतिक पहलुओं के साथ-साथ इससे जुड़े संभावित खतरों और फायदों का मूल्यांकन किया है। इसके साथ ही यह रिपोर्ट इस क्षेत्र में की जा रही रिसर्च और उसके उपयोग के लिए व्यावहारिक सिफारिशें भी प्रदान करती है।

रिपोर्ट के मुताबिक इन उपकरणों को बनाने के साथ इनके उपयोग का खर्च बहुत ज्यादा है, जो आर्थिक रूप से असमान देशों के बीच खासकर जोखिम से जुड़ी विषमताओं को और बढ़ा सकता है। बता दें कि पहले ही आर्थिक रूप से कमजोर देश जलवायु आपदाओं के साए में रह रहे हैं। ऐसे में यदि अनुकूलन के लिए खर्च होने वाले धन में की गई कटौती उनकी समस्याओं को कहीं ज्यादा बढ़ा सकती है।

यूनेस्को के मानव विज्ञान और सामाजिक मामलों की सहायक निदेशक गैब्रिएला रैमोस का इस बारे में कहना है कि, "पर्यावरण आपातकाल को देखते हुए, हमें क्लाइमेट इंजीनियरिंग सहित सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करना चाहिए।" हालांकि उनके मुताबिक इनका कार्यान्वयन पेरिस समझौते की प्रतिबद्धताओं की कीमत पर नहीं होना चाहिए। इनेक लिए स्पष्ट रूप से स्थापित नैतिक ढांचा जरूरी है। उनका आगे कहना है कि इस नैतिक ढांचे को स्थापित करने के लिए यूनेस्को सदस्य देशों के साथ सहयोग करने के लिए प्रतिबद्ध है।

कहीं हथियार न बन जाएं जियोइंजीनियरिंग तकनीकें

इतना ही नहीं यूनेस्को ने अपनी रिपोर्ट में चिंता यह भी चिंता जताई है कि इन जियोइंजीनियरिंग तकनीकों का उपयोग एक हथियार के रूप में भी किया जा सकता है। ऐसे में इनसे सैन्य या भू-राजनीतिक उपयोग का जोखिम भी पैदा हो सकता है। जो उनकी निगरानी के लिए वैश्विक प्रयासों को बढ़ाने की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।

इस बारे में विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि मौजूदा समय में हमें इनके बारे में जितनी जानकारी है उस अंतराल को देखते हुए, जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने में इन तकनीकों पर अभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता। इसी तरह परिप्रेक्ष्य और अनुभव की कमी के कारण, हम इन हस्तक्षेपों के जलवायु परिणामों का पूर्णतः अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

उदाहरण के लिए, यह तकनीकें ऐसी श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रियाएं शुरू कर सकती हैं जो इंसानों, समुद्रों, वैश्विक तापमान और जैव विविधता के लिए खतरा बन सकती हैं। साथ ही यह सवाल भी पैदा होता है कि एक बार यदि इन तकनीकों को शुरू कर दिया जाए तो उन्हें कब और कैसे चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाएगा। साथ ही ऐसा करने के क्या प्रभाव होंगें उनपर भी विचार करना जरूरी है।

वैज्ञानिक ज्ञान और प्रौद्योगिकी की नैतिकता पर बनाए यूनेस्को के वैश्विक आयोग की अध्यक्ष एम्मा रुटकैम्प-ब्लोएम का कहना है कि, “क्लाइमेट इंजीनियरिंग जोखिम भरी हो सकती है। जलवायु के साथ इसकी अंतःक्रिया, मौजूदा जोखिमों को बढ़ाने के साथ-साथ नए जोखिम भी पैदा कर सकती है।“ 

ऐसे में उनके मुताबिक इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने से पहले, इनके प्रभावों और नैतिक निहितार्थों की व्यापक समझ जरूरी है। विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों के बीच परस्पर विरोधी हितों पर विचार करते हुए, क्लाइमेट इंजीनियरिंग पर चर्चा में नैतिक और राजनीतिक दोनों आयाम शामिल होने चाहिए।

ऐसे में यूनेस्को ने जोर दिया है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग पर किसी भी शोध का प्राथमिक लक्ष्य जलवायु परिवर्तन के साथ-साथ उसके आसपास मौजूद अनिश्चितताओं को बेहतर ढंग से पहचानना और कम करना होना चाहिए।

अपनी रिपोर्ट में यूनेस्को ने क्लाइमेट इंजीनियरिंग पर रिसर्च और इनके उपयोग के लिए कई सिफारिशें भी प्रस्तुत की हैं, उनके मुताबिक देशों को ऐसे कानून बनाने चाहिए जो नए जलवायु समाधानों को नियंत्रित कर सकें, क्योंकि नुकसान को रोकना भी उनका कानूनी दायित्व है। इसी तरह क्लाइमेट इंजीनियरिंग पर होने वाले वैज्ञानिक अनुसंधान स्पष्ट रूप से अंतरराष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप और नैतिक मानकों पर आधारित होने चाहिए।

नीतियों में हाशिए पर रह रहे समुदायों की भागीदारी भी है जरूरी 

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि क्लाइमेट इंजीनियरिंग कार्यक्रमों के सीमा पार क्या प्रभाव पड़ेंगें देशों को उनपर भी विचार करना चाहिए। विश्व स्तर पर इन तकनीकों को प्रभावी ढंग से लागू करना शासन के लिए भी एक चुनौती है, जिसके लिए निरंतर निगरानी के साथ-साथ सभी देशों के बीच आपसी सहयोग की आवश्यकता है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि जलवायु में आते बदलावों का सबसे ज्यादा प्रभाव अग्रिम पंक्ति में हाशिए पर रह रहे समुदायों को भुगतना पड़ रहा है। ऐसे में क्लाइमेट इंजीनियरिंग से जुड़ी नीतियों में इसपर विचार करने के साथ-साथ उन समुदायों की भागीदारी भी जरूरी है।

इसमें कोई शक नहीं कि जलवायु में आता बदलाव आज मानवता के लिए एक बड़ा खतरा बन चुका है। साथ ही बढ़ते उत्सर्जन को कम करने के जो प्रयास किए जा रहे हैं वो सार्थक सिद्ध नहीं हो रहे हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि अपनी किसी एक गलती का सुधार दूसरी भूल करके नहीं किया जा सकता। ऐसे में इन तकनीकों के उपयोग ने सजगता और परिणामों की सटीकता बेहद जरूरी है।

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