एक नई रिसर्च से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग में आते बदलावों से परागण करने वाले कीटों में 61.1 फीसदी की गिरावट आई है। इसकी वजह से आम, तरबूज, कॉफी और कोको जैसी उष्णकटिबंधीय फसलों के लिए भारी खतरा पैदा हो सकता है।
रिसर्च के अनुसार कुल उत्पादन के सन्दर्भ में देखें तो इससे सबसे ज्यादा खतरा चीन, भारत, इंडोनेशिया, ब्राजील और फिलीपींस में पैदावार को है। वहीं फसलों के लिहाज से कोको पर सबसे ज्यादा विशेष रूप से अफ्रीका में खतरा मंडरा रहा है।
इसके बाद आम उत्पादन को विशेष रूप से भारत में खतरा है, जबकि इसके बाद चीन में तरबूज की पैदावार खतरे में है। वहीं यदि सामाजिक और आर्थिक रूप से देखें तो कोको उत्पादन का जोखिम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि अधिकांश कोको का उत्पादन छोटे खेतों (जिनका आकार दो से चार हेक्टेयर के बीच) में किया जाता है, जो वैश्विक स्तर पर करीब पांच करोड़ लोगों की आय का साधन हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं को जलवायु परिवर्तन, बढ़ता तापमान और भूमि उपयोग में आते बदलावों के कारण परागण करने वाले जीवों की विविधता पर पड़ते प्रभाव के बीच जटिल अंतरसंबंधों का पता चला है। जो वैश्विक स्तर पर फसलों के परागण को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकते हैं।
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन और नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के शोधकर्ताओं द्वारा किए इस अध्ययन के नतीजे 12 अक्टूबर 2023 को अंतराष्ट्रीय जर्नल साइंस एडवांसेज में प्रकाशित हुए हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने वैश्विक स्तर पर 1,507 क्षेत्रों से फसलों और इन कीटों से जुड़े आंकड़ों को एकत्र किया है। इस दौरान शोधकर्ताओं ने परागण करने वाले कीटों की 3,080 प्रजातियों की पहचान की है। देखा जाए तो इस के जो नतीजे सामने आए हैं वो एक चिंताजनक पैटर्न को उजागर करते हैं।
रिसर्च से इस बात की पुष्टि हुई है कि जलवायु परिवर्तन और कृषि गतिविधियों के संयुक्त प्रभाव से परागण करने वाले कीटों की संख्या और विविधता में महत्वपूर्ण कमी आई है। जो फसलों की पैदावार को प्रभावित कर सकती है। शोध में कीटों में आती इस गिरावट के लिए मुख्य रूप से उनके निवास स्थान के होते विनाश, भूमि-उपयोग में बिना सोचे समझे किए जा रहे बदलाव, उर्वरक और कीटनाशकों का होता बेतहाशा उपयोग जैसे कारणों को जिम्मेवार माना है।
शोध के नतीजे दर्शाते हैं कि उन क्षेत्रों में जहां फसलें बढ़ते तापमान के संपर्क में हैं, वहां परागण करने वाले कीटों की संख्या उनके प्राकृतिक आवासों की तुलना में 61.1 फीसदी कम दर्ज की गई। यहां प्राकृतिक आवासों को तापमान में वृद्धि का सामना नहीं करना पड़ा है।
शोध के अनुसार करीब 75 फीसदी फसलें कुछ हद तक इन जीवों द्वारा किए जा रहे परागण पर निर्भर करती हैं। शोधकर्ताओं ने 2050 तक परागण पर निर्भर सबसे कमजोर फसलों की पहचान के लिए एक मॉडल विकसित किया है, जिससे पता चल सके कि किन फसलों को 2050 तक समस्या का सामना करना पड़ सकता है। इसका उद्देश्य किसानों और प्रकृति संरक्षकों का सचेत करना है ताकि उन्हें यह बताया जा सके कि इन फसलों को लेकर सावधान रहने की जरूरत है।
इस बारे में यूसीएल सेंटर फॉर बायोडायवर्सिटी एंड एनवायरनमेंट और अध्ययन से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता डॉक्टर जो मिलार्ड का कहना है कि, "परागणकर्ताओं को खोने के कारण फसलों को होने वाले नुकसान का सबसे ज्यादा जोखिम उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में है। यह मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन और भूमि उपयोग में आते बदलावों की वजह से है।"
उनके मुताबिक भले ही यह समस्या उप-सहारा अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका के उत्तरी हिस्सों और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में स्थानीय पैमाने पर है, लेकिन यह पूरी दुनिया को प्रभावित कर रहा है, क्योंकि हम उन फसलों का व्यापार करते हैं, जिन्हें परागणकों की आवश्यकता होती है।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि जिस तरह से जलवायु और भूमि उपयोग में बदलाव आ रहे हैं। उसके कारण उष्णकटिबंधीय क्षेत्र जो भूमध्य रेखा के पास कहीं ज्यादा गर्म हो रहे हैं, वो कहीं ज्यादा खतरे में हैं। इससे कॉफी, कोको, आम और तरबूज जैसी फसलों को सबसे ज्यादा खतरा है क्योंकि उन्हें पैदावार के लिए कीटों की जरूरत होती है। ये फसलें स्थानीय अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वैश्विक व्यापार के लिए भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। यदि इन फसलों की पैदावार में गिरावट आती है तो इसका खामियाजा इन क्षेत्रों के छोटे किसानों को उठाना पड़ेगा जो एक बड़ी समस्या बन सकता है।
डॉक्टर मिलार्ड का कहना है कि, "जब बदलते मौसम और भूमि उपयोग के चलते कीट कम हो जाएंगें तो जिन फसलों की पैदावार के लिए इनकी जरूरत होती है वो भी घट जाएगी। इसके लिए वैकल्पिक तरीकों की मदद लेनी पड़ सकती है, जिसका मतलब है कि हमें इसके लिए अधिक पैसा और श्रम खर्च करना होगा।“
किसानों के लिए भी बढ़ रहा है खतरा
रिसर्च से यह भी पता चलता है कि फसलों की पैदावार को बढ़ाने में बहुत सारे परागणकों का होना वास्तव में महत्वपूर्ण है। यह स्पष्ट है कि यदि हम जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए काम करते हैं, तो वो भविष्य में फसलों की पैदावार को सुरक्षित कर सकता है, लेकिन इसके लिए अभी भी समस्याओं का समाधान किया जाना बाकी है। चूंकि दुनिया जलवायु परिवर्तन, भूमि उपयोग में आते बदलावों और जैवविविधता को होते नुकसान जैसे जटिल मुद्दों से जूझ रही है, ऐसे में यह अध्ययन याद दिलाता है कि यह सब कुछ कैसे आपस में एक दूसरे से जुड़ा है। यह दर्शाता है कि परागण करने वाले यह नन्हे जीव हमारे खेतों और भोजन को सुरक्षित रखने में कितने महत्वपूर्ण हैं।
एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से परागण करने वाले जीवों में कमी आ रही है, उसके चलते करीब 90 फीसदी जंगली पौधों का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। गौरतलब है कि परागण करने वाली यह मधुमखियां और दूसरे कीट वैश्विक स्तर पर करीब 35 फीसदी खाद्य उत्पादन में योगदान देते हैं। रिसर्च की मानें तो परागण का फायदा सिर्फ फलों की पैदावार तक ही सीमित नहीं है, यह उनकी गुणवत्ता के लिए भी बेहद मायने रखता है।
यदि इन परागणकर्ताओं द्वारा दी जा रही सेवाओं के सालाना मूल्य को आंकें तो वो करीब 29.5 लाख करोड़ रुपए के करीब बैठता है। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया भर में करीब 200 करोड़ छोटे किसानों की पैदावार के लिए इन नन्हें जीवों द्वारा प्रदान की जा रही सेवाएं विशेष रूप से मायने रखती है।
शोधकर्ताओं के अनुसार जलवायु में आता बदलाव केवल पर्यावरण और जैवविविधता से जुड़ा मुद्दा ही नहीं है यह इंसानों के बेहतर भविष्य से भी जुड़ा है। इसकी गिरावट से किसानों को भी भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। ऐसे में शोधकर्ताओं ने जलवायु में आते बदलावों से निपटने के साथ-साथ भूमि उपयोग और इन जीवों के प्राकृतिक आवास पर पड़ते प्रभावों को सीमित करने की बाद कही है।