धराली त्रासदी का सबक: प्रकृति की सीमा को मत लांघिए
उत्तराखण्ड के सीमान्त जनपद उत्तरकाशी में पांच अगस्त को खीर गंगा की भारी बाढ़ ने धराली कस्बे का भूगोल ही बदल दिया है।
हरिद्वार-उत्तरकाशी-गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसे धराली पड़ाव में खीर गंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्रों से आये जल सैलाब ने जिस उन्माद के साथ धराली के मकानों को ताश के पत्तों की तरह ढहा दिया, वह हम सबके लिए विचलित कर देने वाली एक त्रासदी पूर्ण घटना के तौर पर सामने आयी है।
धराली में आयी इस आपदा का परिदृश्य वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। देखा जाय तो इस तरह की आपदाएं प्राकृतिक तो होती ही हैं परन्तु हमारी लापरवाही आपदा के परिणामों हुए नुकसान को और बढ़ा देती है।
हम यह कतई भूल जाते हैं कि प्रकृति की सीमा में दखलदांजी करने का खामियाजा अन्ततः हमें ही भुगतना पड़ सकता है।
हम बिना सोचे-समझे संवेदनशील जगहों जैसे नदी के किनारे, उसके प्रवहण क्षेत्र, भू-स्खलन वाली जगहों, भू-स्खलन के पुराने अवसादों वाली जगहों पर जहां से मोटर मार्ग गुजरता हो उनके आसपास बसासतें बसाना शुरु कर देते हैं। इसके पीछे मुख्य रूप से आर्थिक लाभ कमाने की अति महत्वाकांक्षा को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
पहाड़ में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं के सन्दर्भ में यहां यह बात महत्वपूर्ण है कि हमें अपने आसपास की प्रकृति के मिजाज उसकी सीमाओं को ध्यान रखते हुए उससे तालमेल बनाये रखना बहुत जरुरी है।
इस बात से कहीं भी इन्कार नहीं किया जा सकता यदि हम प्रकृति की सीमा से परे उसे लांघने प्रयास करेगंे अथवा उसके खिलाफ जाने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही देर सबेर उसके प्रतिकूल प्रभाव के परिणाम हम सबको भुगतने ही पड़ेगें।
वैसे भी उत्तराखण्ड का पहाड़ी इलाका प्राकृतिक आपदाओं केे प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। विशिष्ट पर्यावरणीय जलवायुगत विविधताओं के कारण यहां भू-स्खलन,बाढ़, व बादल फटने की घटनाएं होती रहती हैं। भू-गर्भिक संरचना की दृष्टि से भी उत्तराखण्ड को संवेदनशील श्रेणी में माना जाता है।
हिमालयी इलाकों खासकर हिमाचल और उत्तराखण्ड में उनकी संवेदनशीलता और उसकी सीमित धारण क्षमता और उसके भू-आकारिकी को नजरअन्दाज करते हुए जिस तरह विकास कार्यों की बाढ़ आ रही है वह पर्यावरण के लिहाज से चिन्ता के एक बड़े विषय के रूप में सामने आ रहा है।
सड़क किनारे के स्थित छोटे-छोटे कस्बों, शहरों में बढ़ते शहरीकरण की प्रक्रिया ने यहां के स्थानीय पर्यावरणीय सन्तुलन को प्रभावित कर दिया है। इसके चलते प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले जानमाल में और अधिक वृद्धि हो रही है।
धराली में खीर गंगा जिस सपाट व मध्यम ढाल क्षेत्र में भागीरथी नदी से मिलती है उस क्षेत्र की आकृति शंक्वाकर पंखे के समान बनी हुई है। भौगोलिक शब्दावली में इस तरह की भू-आकृति को जलोढ़ पंख कहा जाता है। इस तरह की भू-आकृति तब बनती है जब कोई नदी किसी मैदान, घाटी अथवा संगम क्षेत्र के मुहाने पर अपने गाद (सिल्ट) को जमा करती रहती है।
सामान्यतः जलोढ़ पंख में बालू, बजरी ,छोटे-बडे़ बोल्डर व अन्य निक्षेपों का जमाव होते रहने से एक निश्चित क्षेत्र में अस्थायी भू-आकृति उभर आती है। कभी-कभार गाद लाने वाली नदी कई शाखाओं में बंट कर अपना नये प्रवाह पथ का भी निर्माण भी कर लेती है। धराली में खीर गंगा नदी की बाढ़ की गाद ने भागीरथी नदी के तट तक फैले इस जलोढ़ पंख को पूर्ववर्ती समय में अनेकों बार भरा है और अपने प्रवाह पथ की दिशा भी बदली है।
पुराने समय में जब गंगोत्री पहुंचने का एकमात्र साधन पैदल मार्ग था तब धराली इस पैदल मार्ग के प्रमुख पड़ावों में एक था। भागीरथी को पार करने के लिए यहां पर एक झूला पुल था और तीर्थ यात्रियों को यहां पर खाने-पीने की वस्तुएं दुकानों से मिल जाती थी।
मूल गांव वर्तमान बाजार (2506मी.) से आधा किमी. उपर (2593 मी.) की ऊंचाई पर बसा है। करीब साठ के दशक में मुख्य गांव की तलहटी में मोटर सड़क बन जाने के बाद शनैः-शनैः उसके किनारे भी बसासतें बनने लगीं।
राज्य बनने के बाद पिछले पांच-सात सालों में गंगोत्री में पर्यटकों/तीर्थयात्रियों की बढ़ोतरी होने ये यहां होटल, ढाबों,दुकानों और होमस्टे की संख्या बढ़ने लगी।
लोगों द्वारा इस स्थान की संवेदनशीलता व अस्थिर बनावट को पूरी तरह भुला दिया गया और विकास का यह अनियंत्रित व अनियोजित सिलसिला अनवरत चलता रहा। जबकि वास्तविकता में निर्धारित मानकों के अर्न्तगत इस तरह के क्षेत्रों में नदी-नालों के 100 मी. के इर्द-गिर्द किसी भी तरह के भवन निर्माण की मनाही है।
गूगल मैप में देखने पर यह स्पष्ट होता है कि सुक्खी टॉप के बाद जसपुर पड़ाव में भागीरथी मोटर पुल के बाद सुनगढ़,झाला, हर्षिल,पुरगा,धराली,मुखबा,जंगम ऋषि गुफा और भैंरोघाटी तक मोटर रोड से होकर 28 के करीब छोटे-बड़ी खाले-गधेरे (जल सरिताएं) गुजरती हैं।
उच्च हिमालय के 4000 से लेकर 5000 मीटर अथवा उससे अधिक ऊंचाई से हिमनदों और जल से संतृप्त होनी वाली इन सरिताओं ने अपने जलग्रहण क्षेत्रों से मिट्टी, बालू, बजरी, बोल्डर का मलवा लाकर भागीरथी के तट क्षेत्रों पर लघु व मध्यम आकार के जलोढ़ पंखों का निर्माण किया हुआ है। इन जगहों पर बरसात के दौरान इनमें मलवा आ जाने के कारण अक्सर मार्ग अवरूद्ध होता रहता है।
उल्लेखनीय है कि 19 वीं सदी के तीसरे दशक के मध्य में इस खीर गंगा में आयी भीषण आपदा ने भी धराली में तबाही मचायी थी।
बाद के कई सालों के दौरान मुख्यरूप से 1978, 2003, 2010, 2013, 2019, 2021, 2023 व 2024 में धराली व उसके समीपवर्ती भागीरथी घाटी में अतिवृष्टि, बाढ़ आने, भू-स्खलन होने, जमीन धंसने, बादल फटने आदि की घटनाएं सामने आती रहीं हैं। इन आपदाओं में भी बड़ी संख्या में स्थानीय गांवो में बड़ी संख्या में जान-माल का नुकसान हुआ।
वर्तमान दौर में जिस तरह पहाड़ो के कमजोर भू-स्थानिक क्षेत्रों और पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील स्थानों पर अतिक्रमण बढ़ता जा रहा है और आपदा के समय उसका खामियाजा जान माल के नुकसान के तौर पर आ रहा है वह एक गहन विचारणीय बात है।
सवाल चाहे हिमालयी क्षेत्र की लुप्त होती जैव विविधता का हो अथवा सड़को, नदी थालों के प्राकृतिक प्रवाह मार्ग के किनारे बसते जा रहे कस्बों ,नगरों में बढ़ती जा रही जनसंख्या व प्रदूषण का। आखिर इनके उचित समाधान के लिये हमें भोगवादी विचारधाराओं से उबरकर ‘समन्वयवाद‘ विचारधारा की ओर उन्मुख होना श्रेयकर होगा।
सही रूप में प्रकृति के साथ समन्वय करते हुए उसकी सीमा से बाहर रहते हुए उसके साथ रहना ही श्रेयस्कर हो सकता है। प्रकृति के सिद्वान्तों के अनुरूप ही हम सभी को अपनी सुविधाओं एवं आकांक्षाओं में परस्पर तालमेल बिठाना होगा।
इसके लिये पग-पग पर प्रकृति से सहयोग करना उतना ही जरुरी समझा जाना चाहिए जितना कि उससे लाभ उठाने की इच्छा। प्रकृति की पीडा़ को समझते हुए हमें उसकी सुरक्षा के लिये सवयं की जीवन शैली में बदलाव लाने जैसी तमाम कोशिशें हमारी सर्वाेच्च प्राथमिकताओं में दर्ज की जानी चाहिए।
हांलाकि इस समन्वयवादी सोच पर सम्भववादी अथवा भोगवादी विचारधारा को मानने वाला एक वर्ग इस बात से भी इन्कार नहीं करता कि मानव अपनी योग्यता व महत्वाकांक्षी प्रवृति के बल पर प्रकृति पर विजय पाकर उसका उपयोग अपने लाभ के लिए करने में पूरी तरह सक्षम व स्वतंत्र रह सकता है।
परन्तु यहां पर इस बात पर भी गहराई से गौर करना बेहद जरूरी है कि जब प्रकृति ही नहीं रहेगी तब हम क्या हम योग्यता, महत्वाकांक्षा और अपने जीवन को बचाये रखने में सक्षम रह सकेगें....? अतः यह आवश्यक है कि हम प्रकृति की सीमा को लांघने का प्रयास न करें।
लेखक दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, देहरादून में रिसर्च एसोसिएट हैं। लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं